सुभाष
गाताड़े
उड़िसा के केवनझार जिले
के आंगनवाडी केन्द्र में रोज की तरह अपने ढाई साल के बेटे परशुराम मुंडा को छोड़ते
वक्त उसके पिता रिलु मुंडा ने यह सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसकी किलकारियां
जल्द ही कराहों में बदलेंगी क्योंकि आंगनबाड़ी की महिला कर्मचारी उस पर पतले चावल की
(पेजा) हंडिया उलट देगी। वजह थी कि 'निम्न जाति' के समझे जानेवाले
परशुराम ने केन्द्र में एक बर्तन में रखे उबले अंडों को अपने हाथ से छू दिया था।
ख़बरों के मुताबिक घटना में शामिल दो कर्मचारियों को पुलिस हिरासत में ले लिया गया
है और परशुराम का इलाज चल रहा है।
इसे
महज संयोग कहा जाना चाहिए कि जिस दिन अख़बार में यह ख़बर छपी, उसी दिन हयूमन
राइटस वॉच संस्था द्वारा भारत के चार राज्यों में किए गए सर्वेक्षण के निष्कर्ष
प्रकाशित करते हुए रिपोर्ट जारी हुई जिसका शीर्षक था 'दे से
वी आर डर्टी : डिनाईंग एजुकेशन टू इंडियाज मार्जिनलाइज्ड'।
इन राज्यों के स्कूलों के निरीक्षण के आधार पर यह रिपोर्ट इस नतीजे तक पहुंचती है
कि किस तरह इनमें अध्ययनरत दलित, आदिवासी और मुस्लिम बच्चों
के साथ भेदभाव होता है। इस भेदभाव के वातावरण की अन्तिम परिणति बच्चे के स्कूल
छोड़ने में होती है।
उदाहरण
के तौर पर दिल्ली के जावेद नामक दस साल के बच्चे ने टीम को बताया कि जबभी अध्यापक
गुस्से में होते हैं,
वह हमें मुल्ला कह कर बुलाते हैं, हिन्दू
बच्चे भी हमें मुल्ला कह कर बुलाते हैं क्योंकि हमारे पिताजी दाढी रखते हैं। यह
सुन कर हम अपमानित महसूस करते हैं। उत्तर प्रदेश के 14 साल
के दलित बच्चे श्याम ने बताया कि शिक्षक हमें हमेशा कमरे के एक कोने में बिठाते
हैं और जब वह गुस्से में होती हैं तो हमारे ऊपर चाभी का गुच्छा फेंकती हैं। जब
सारे बच्चे खा लेते थे और कुछ बचता था तो हमें खाना मिलता था। धीरे धीरे हम लोगों
ने स्कूल जाना बन्द कर दिया।
कमजोर
देखरेख प्रणालियों के चलते न इस बात की निगरानी हो पाती है कि कौन बच्चे स्कूल में
अनियमित आ रहे हैं या छोड़ने की स्थिति में है। चार साल पहले भले ही सरकार ने 6 से 14 साल के बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए कानून पारित
किया हो, मगर हकीकत यही है कि आधो से अधिक बच्चे एलिमेण्टरी
शिक्षा पूरा करने के पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं।
प्रस्तुत
रिपोर्ट तैयार करने के लिए हयूमन राइटस वॉच की टीम ने आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश,
बिहार और दिल्ली मे 160 लोगों से बातचीत की
जिनमें बच्चे, माता पिता, अध्यापक और
शिक्षा क्षेत्र के विशेषज्ञ, मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी और शिक्षा जगत के अधिकारी शामिल थे। बच्चों ने
जो अनुभव सुनाए वह स्कूल के अन्दर व्याप्त उस वातावरण को बयां कर रहे थे, जो आज भी वहां उपलब्ध है।
रिपोर्ट के मुताबिक
शिक्षा अधिकार अधिनियम के लिए बुनियादी तौर पर महत्वपूर्ण है कि समानता और
गैरभेदभाव को सुनिश्चित किया जाए तब भी उसका उल्लंघन करनेवालों को कोई सज़ा नहीं दी
जाती। यह अकारण नहीं कि आठ करोड बच्चे सरकारी आंकड़ों के मुताबिक प्राथमिक शिक्षा
पूरी करने के पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं।
दिलचस्प
है कि यूनिसेफ द्वारा प्रायोजित एक अन्य अध्ययन - जो लगभग इसी समय प्रकाशित हुआ है
- ''आल चिल्डे्रन इन स्कूल बाई 2015 ' इसी बात को पुष्ट
करता है कि किस तरह स्कूलों में अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय, अनुसचित
जाति और अनुसूचित जनजाति से सम्बधित बच्चे राष्ट्रीय औसत की तुलना में स्कूल में
कम सहभागी हो पाते हैं।रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करती है छह साल से तेरह साल के
दरमियान जहां अनुसूचित जाति के बच्चों के स्कूल के बहिष्करण का प्रतिशत 5.6
है और अनुसूचित जनजातियों के लिए 5.3 फीसदी है
तो राष्ट्रीय औसत 3.6 फीसदी है। रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित
तबके की लड़कियों में असमावेश की दर सबसे अधिक 6.1 फीसदी तक
पहुंचती दिखती है।
जहां
स्कूलों में बच्चों की स्थिति पर ऊपरोल्लेखित दोनों रिपोर्टें रौशनी डालती हैं, वहीं ऐसे
अध्ययन भी हुए है जो इन वंचित तबकों के प्रति इन स्कूलों में व्याप्त मानसिकता को
उजागर करते हैं। उदाहरण के तौर पर 'राष्ट्रीय शैक्षिक
अनुसन्धान एवम प्रशिक्षण परिषद' (एनसीईआरटी) के तत्वावधान
में प्रकाशित हुई 'नेशनल फोकस ग्रुप आन प्राब्लेम्स आफ
शेडूयल्ड कास्ट एण्ड शेडयूल्ड ट्राईब चिल्डे्रन' ने
अध्यापकों एव अनुसूचित तबके के छात्रों के अन्तर्सम्बन्ध को उजागर किया था।
रिपोर्ट के मुताबिक : अध्यापकों के बारे में यह बात देखने में आती है कि अनुसूचित जाति और
जनजाति के छात्रों एवम छात्राओं के बारे में उनकी न्यूनतम अपेक्षायें होती हैं और
झुग्गी बस्तियों में रहने वाले गरीब बच्चों के प्रति तो बेहद अपमानजनक और
उत्पीड़नकारी व्यवहार रहता है। अधयापकों के मन में भी 'वंचित'
और 'कमजोर' सांस्कृतिक
पृष्ठभूमि से आने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि,
भाषाओं और अन्तर्निहित बौध्दिक अक्षमताओं के बारे में मुखर या मौन
धारणायें होती हैं। वे लेबिलबाजी, वर्गीकरण और सीखाने की
भेदभावजनक शैक्षिक पध्दतियों का अनुसरण करते हैं और निम्नजाति के छात्रों की सीमित
बोधात्मक क्षमताओं के ''वास्तविक'' आकलन
के आधार पर कार्य करते हैं।
अनुसूचित
एवं वंचित तबके के प्रति उनकी घृणा का इजहार देखना हो तो हम कभी भारत के 240 जिलों में
फैले अनुसूचित जाति और जनजातियों के छात्रों हेतु बने 1,130 छात्रावासों
में मौजूद ''नारकीय परिस्थिति'' को देख
सकते हैं। कुछ साल पहले एक विद्यार्थी संगठन द्वारा एक याचिका दायर की गयी थी जिसे
लेकर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश के जी बालाकृष्णन और न्यायमूर्ति सथासिवम एवम
न्यायाधीश आफताब आलम की पीठ द्वारा केन्द्र और तमाम राज्य सरकारों को नोटिस भी
जारी किया गया था(24 अक्तूबर 2008)।
गौरतलब है कि प्रस्तुत संगठन द्वारा वर्ष 2006-2007 में किए
गए सर्वेक्षण की रिपोर्ट को याचिका का आधार बनाया गया था। मालूम हो कि सर्वेक्षण
रिपोर्ट में इस दारूण तथ्य को भी उजागर किया गया था कि इनमें से कई छात्रावास
जंगलों में भी बने हैं जहां बिजली की गैरमौजूदगी में छात्रों को मोमबत्ता की रौशनी
में पढ़ना पड़ता है, पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं है।
आवासीय
विद्यालयों में अनुसूचित तबके के छात्रों को झेलनी पड़ती अमानवीय स्थितियां हो, सर्वोच्च
न्यायालय द्वारा इस सम्बन्ध केन्द्र एवम राज्य सरकारों को जारी किया गया नोटिस हो
या एनसीईआरटी द्वारा अध्यापक-छात्रा अन्तर्सम्बन्ध पर किया गया अधययन हो, एक बात स्पष्ट है कि 21 वीं सदी में भी शिक्षा हासिल
करना अनुसूचित तबके के अधिकतर छात्रों के लिए बाधा दौड़ जैसा ही है। इसका असर हम
उनके ड्रापआउट दर पर भी देख सकते हैं।
निश्चित ही सिर्फ पूंजी
के तर्क के आधार पर दलितों-आदिवासियों की शिक्षा जगत की वंचना को स्पष्ट नहीं किया
जा सकता है। एक ऐसा पहलू है जिसे हम 'सिविल समाज' ( हालांकि ऊंचनीच
अनुक्रम पर टिके हमारे समाज में यह शब्द खुद एक विवादास्पद हकीकत को बयान करता है)
का अपना आन्तरिक पहलू कह सकते हैं, उसका रोग कह सकते हैं जो
दलितों-आदिवासियों के लिए शिक्षा और बेहतरी के अन्य तमाम रास्तों पर गोया कुण्डली
मार कर बैठा है। यह मसला है नागरिक समाज (सिविल सोसायटी) पर हावी 'वर्ण मानसिकता' का। अगर स्कूल में कार्यरत शिक्षक या
शिक्षा विभाग के अन्य मुलाजिमों का इस मसले पर ठीक से संवेदीकरण/सेन्सिटाइजेशन
नहीं हुआ है, तो यही देखने में आता है कि अपने व्यवहार से वह
इन तबकों के छात्रों को स्कूल से दूर रखने में परोक्ष-अपरोक्ष भूमिका निभाते हैं।
हम समवेत से साभार
हम समवेत से साभार
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