सत्येन्द्र पाण्डेय
कोरोना वैश्विक महामारी का कहर निरंतर बढ़ता
ही जा रहा है. अब तक दुनिया भर में 31 लाख से अधिक लोग इस बीमारी के संक्रमण के
शिकार हो चुके हैं और 2.25 लाख से अधिक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा है.
भारत में इस संक्रमण ने देर से अपने पाँव पसारे परन्तु भयावहता दिन ब दिन बढती ही
जा रही है और अब तक 32 हजार से अधिक लोग संक्रमित हो चुके हैं. कोई यह नहीं जानता
कि यह सिलसिला कब तक चलेगा. बल्कि हमारी जानकारी इस बारे में भी बहुत सीमित है कि
क्या इस बीमारी का चरम बिंदु आ चूका है या बाद में आने वाला है. यदि ऐसा हुआ तो
इसके दुष्परिणामों की हम कल्पना भी नहीं कर सकते. लेकिन दुनिया भर में इस बात पर
विचार किया जा रहा है कि कोरोना के बाद की जिन्दगी कैसी होगी? अभी चूँकि यह कहना
समझना भी मुश्किल है कि दुनिया कोरोना से मुक्त कैसे और कब होगी क्योंकि न तो अब
तक इसके लिए कोई प्रमाणिक दवा मौजूद है और न वैक्सीन. इसलिए कोरोना के बाद की
जिन्दगी की सूरत के बारे में सिर्फ अनुमान लगाये जा सकते हैं, क्योंकि इन अनुमानों
की प्रमाणिकता इस बात पर निर्भर करेगी कि कोरोना का संकट कब ख़त्म होगा और दुनिया
पर कितना असर डालकर जायेगा?
लेकिन यह अनुमान लगाना कोई कठिन बात नहीं है
कि कोरोना काल में और उसके बाद भी सबसे अधिक दुष्प्रभाव समाज के किन वर्गों पर
पड़ने वाला है. आर्थिक और सामाजिक असमानता के शिकार समाज में हर आपदा का सबसे ख़राब
प्रभाव उसी पर होता है जो पहले से ही संसाधनों से वंचित हो. इस तरह हम देख सकते
हैं कि हमारे समाज में कई तरह की वंचनाओं के शिकार असंगठित क्षेत्र के श्रमिक,
सामाजिक भेदभाव के शिकार लोग, महिलाएं और बच्चे सर्वार्धिक परेशानियों का शिकार हो
सकते हैं. इस आलेख में हम बच्चों पर होने वाले संभावित प्रभावों पर केन्द्रित रहने
का प्रयास करेंगे. बच्चे जो पहले से ही हमारे समाज में दोयम दर्जे की नागरिकता का
शिकार रहे हैं और उन्हें वयस्कों की संपत्ति की तरह देखा जाता रहा है, इस आपदा के
संभावित सामाजिक-आर्थिक-मनोवैज्ञानिक दुष्प्रभावों के सबसे निकट के शिकार साबित हो
सकते हैं. यदि हम ऐसा नहीं होने देना चाहते तो हमें आपदा के दौरान ही कई स्तरों पर
प्रयास करने की आवश्यकता है.
इस आपदा का सबसे बड़ा असर जो बताया जा रहा
है, वह आर्थिक दुष्प्रभावों का है. लॉक डाउन के चलते बहुत सारे लोगों का रोजगार
समाप्त हो गया है. इनमे अधिकांश वे लोग हैं जो रोजनदारी का काम करते थे. संगठित और
असंगठित क्षेत्र दोनों में ही बड़ी संख्या में लोग रोजगार विहीन हुए हैं और हम नहीं
जानते कि उनके परिवारों का गुजारा कैसे चल रहा है? अभी सरकारों ने सार्वजनिक वितरण
प्रणाली के माध्यम से राशन का इंतजाम करने की बात कही है लेकिन सवाल ये है कि क्या
वह पर्याप्त है और यदि है भी तो कितने समय तक? जीवन जब सामान्य होने लगेगा तो
उन्हें सम्मान के साथ जीवन बसर करने के लिए काम की जरूरत होगी और हम नहीं जानते कि
लॉक डाउन के बाद की दुनिया में कितने काम बचे रह पाएंगे? जाहिर है, इन सबके कारण
परिवारों में तनाव और मनोवैज्ञानिक समस्याएं तेजी से बढेंगी और जिनका आवश्यक रूप
से शिकार परिवारों की महिलाएं और बच्चे होंगे. हम अभी से देख रहे हैं कि लॉक डाउन
के दौरान भी महिलाओं और बच्चों के साथ घरेलू हिंसा की घटनाएँ अचानक से बहुत बढ़ गई
हैं. बच्चों के साथ लैंगिक शोषण और उत्पीडन की घटाओं में भी तेजी से इजाफा हुआ है.
हम जानते हैं कि एक बार जिस बच्चे का लैंगिक शोषण हो जाता है उसके आगे भी शोषित
होते रहने या अपचारी बन जाने की आशंका बढ़ जाती है. मुश्किल यह है कि लॉक डाउन ने
बच्चों के साथ अत्याचार करने वालों को एक निरंतर अबाध अवसर उपलब्ध करा दिया है जो
लॉक डाउन के बाद भी जारी रहने की आशंका कायम है. इस तरह यह समय बच्चों के जीवन में
एक स्थाई विचलन पैदा कर सकता है जो आगे के तमाम जीवन में उन्हें भावनात्मक और
शारीरिक रूप से मुश्किल में डाल सकता है.
इन दिनों हम लोग सड़कों पर बहुत सी महिलाओं
को छोटे बच्चों को साथ लिए भीख मांगते देख रहे हैं. ये वे लोग हैं जो परंपरागत रूप
से भिक्षव्रत्ति नहीं करते थे. लॉक डाउन के दौरान उत्पन्न हुई भोजन की कमी की
समस्या ने उन्हें लोगों के सामने हाथ फ़ैलाने के लिए मजबूर किया है. इस दौरान भीख
मांगना सीख चुके बच्चे क्या अपने आगामी जीवन में भिखारी नही बन जायेंगे? इसी तरह
लॉक डाउन समाप्त हो जाने के बाद बाल श्रम की घटनाओं में तेजी आने की भी आशंका है.
क्योंकि लॉक डाउन बेतहाशा बेरोजगारी का पैगाम लेकर आया है. और जिस समाज में जितनी
बेरोजगारी होती है, बाल श्रम भी उसी अनुपात में बढ़ता हुआ दिखाई देता है. लॉक डाउन
के दौरान हुए आर्थिक नुकसान की भरपाई नियोक्ता मजदूरी में कमी करके पूरी करना
चाहेंगे जो दो तरह से बाल श्रम को बढ़ाने के लिए जिम्मेवार होंगे. एक तो यह कि जिस
दर पर सस्ता श्रम नियोक्ता तलाश रहे होंगे उसमें सबसे अधिक बच्चे ही उपलब्ध होंगे.
दूसरे, कम मजदूरी के चलते वयस्कों की कमाई से परिवारों का गुजरा नहीं हो पायेगा उर
बच्चों को काम अपर जाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा.
इस आपदा का एक बड़ा असर बाल विवाह की बढ़ोतरी
के रूप में भी देखने को मिल सकता है. आर्थिक रूप से कमजोर और जर्जर हो चुके परिवार
अपनी बेटियों को जल्दी से जल्दी पराया करने की पुरानी मानसिकता पर फिर से वापिस
लौट सकते हैं. लॉक डाउन के दौरान बालिकाओं के साथ बढ़ती जा रही असुरक्षा की भावना
का भी बाल विवाह की घटनाओं को बढाने में योगदान हो सकता है. बच्चों खासकर नवजातों
का स्वास्थ्य भी एक बड़ी चिंता का कारण बन सकता है. कोरोना संक्रमण और लॉक डाउन के
चलते आरंभिक बाल्यावस्था देखभाल और स्वास्थ्य की सेवाएँ बुरी तरह से प्रभावित हुई
हैं और टीकाकरण आदि सम्यक तरीके से नहीं हो पा रहा है. गंभीर रूप से कुपोषित
बच्चों के लिए एनआरसी आदि की व्यवस्थाएं भी सामान्य रूप से उपलब्ध नहीं हैं. इन
सबका दूरगामी असर इस दौर में पैदा होने वाले या अस्वस्थ होने वाले बच्चों के
स्वास्थ्य पर पढने की आशंका है.
लेकिन इस आपदा का जो सबसे प्रतिकूल प्रभाव
बच्चों के ऊपर पड़ने की आशंका जताई जा रही है, वह है मनोवैज्ञानिक. वयस्कों से इतर
बच्चों के लिए कोरोना की आपदा उतना नहीं डरा रही है जितना लॉक डाउन. बच्चों के खेल
बाधित हो गए हैं और वे कैदियों की तरह घरों में कैद हो रहे हैं. इससे उनकी
निर्भरता मोबाइल और टीवी पर बढ़ गई है. ऑनलाइन क्लासेज के दौर में परिवार के लोग भी
उन्हें मोबाइल के अत्यधिक इस्तेमाल से नहीं रोक पा रहे हैं. इससे बच्चे ऑनलाइन
दुर्व्यवहार का आसन शिकार बन सकते हैं. सामूहिक खेलों से उनकी लम्बे समय की दूरी
उनके सामाजीकरण की स्वाभाविक प्रक्रिया को ध्वस्त कर सकती है. इस दौर में उनकी
आदतों में जो परिवर्तन होंगे, यदि परिवारों का सहयोग और भावनात्मक समर्थन उन्हें
नहीं मिल पाया तो वे जीवन भर के लिए परिवर्तन हेतु बाध्य होंगे. द्वितीय विश्व
युद्ध के बाद यूरोप में एक मिसिंग जेनरेशन तैयार हुई थी. आज पूरी दुनिया के सामने
यह मिसिंग जेनरेशन की आशंका सर उठाये खड़ी है. सवाल यह है कि दुनिया इस संकट का
सामना कैसे करती है और बाद में नवनिर्माण कैसे करती है?
(यह लेख साझी बात (अंक 30) में प्रकाशित हुआ है, पूरे अंक को इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं )
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