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बालश्रम की कैद में बचपन

विश्व बाल श्रम निरोधक दिवस (12 जून ) पर विशेष
जावेद अनीस
किसी भी देश  में बच्चों की स्थिति से उस देश की प्रगति और सामाजिक, सांस्कृतिक स्तर का पता चलता है। बचपन एक ऐसी स्थिति है जब बच्चे को सबसे अधिक सहायता, प्रेम, देखभाल और सुरक्षा की जरुरत होती है। ऐसे में बाल श्रम किसी भी देश और समाज के लिए घातक और शर्म की बात है। ‘‘बच्चों के द्वारा किये जाने वाले किसी भी प्रकार के कार्य जिससे उनके शारीरिक, मानसिक विकास, न्यूनतम शिक्षा  या उनके आवष्यक मनोरंजन में रुकावट उत्पन्न होता है,बाल श्रम कहलाता है।’’

यूनिसेफ के अनुसार दुनियाभर में लगभग 250 मिलियन बच्चे बाल श्रमिक हैं और जिनकी उम्र 14 साल से कम है परन्तु इस आंकड़े में घरेलू काम करने वाले बच्चों को शामिल नही किया गया है। अगर उन्हें भी शामिल किया जाये तो बाल श्रमिक की संख्या ओर अधिक होगी।भारत में यह स्थिति ओर भी भयावह है। दुनिया में सबसे ज्यादा बाल मजदूर भारत में ही हैं। 1991 की जनगणना के हिसाब से बाल मजदूरों का आंकड़ा 11.3 मिलियन था। जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार यह आंकड़ा बढ़कर 12.7 मिलियन पहुंच गया है। अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में 5 से 17 आयु वर्ष के करीब 218 बिलियन बाल श्रमिक हैं।

2001 की जनगणना के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा बाल मजदूर उत्तरप्रदेश (15.22 प्रतिशत) में हैं जबकि दूसरे नम्बर पर आन्ध्रप्रदेश है जहाँ  10.76 प्रतिशत बाल मजदूर है, राजस्थान में 9.97 प्रतिशत, बिहार में 8.82 प्रतिशत, मध्यप्रदेश में 8.41 प्रतिशत तथा पष्चिम बंगाल में 6.77 प्रतिशत है।

5 से 14 साल आयु समूह के बच्चों में ‘‘बाल मजदूरी सहभागिता दर’’  का राष्ट्रीय औसत 5 प्रतिशत है। सिक्किम में यह दर सबसे ज्यादा 12.4 प्रतिशत है। वही मध्यप्रदेश  में यह दर 6.71 प्रतिषत है जो कि देश में 5 वे स्थान पर है।


उपरोक्त स्थिति के परिणाम व्यापक है। इसके नतीजे में हम देखते हैं कि हमारे देश के करीब 50 प्रतिशत बच्चे बचपन के समस्त अधिकारों जैसे शिक्षा , स्वास्थ, सुरक्षा इत्यादी से वंचित हैं और वे भविष्य में अनपढ़ कामगार ही बने रहने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें अपनी क्षमताओं को हासिल करने का कोई मौका नहीं मिल रहा है। जाहिर है कि ऐसी स्थिति में कोई भी देश सामाजिक और आर्थिक रुप से प्रगति करने का दावा नही कर सकता है।

एक बड़ा मसला बच्चे की परिभाष को लेकर है विभिन्न सरकारी और गैर – सरकारी एजेंसियों द्वारा दी गया परिभाषा में  एकरुपता नही है, इससे भ्रम के स्थिति बनती है और ठोस जवाबदेही भी तय नहीं हो पाती है । संयुक्त राष्ट्र संघ जहाँ 18 साल से कम आयु वर्ष को बच्चा  मानता है, तो वही अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन 15 या उससे कम उम्र को बच्चा मानता है। भारत में इसको लेकर भ्रम इसलिए भी पैदा होती है क्योंकि बच्चों को लेकर सरकार द्वारा अलग अलग कानूनों में बच्चों की उम्र भी अलग अलग निर्धारित की गई है। अगर भारत के सदर्भ में बच्चे की परिभाषा को देखें तो यह अलग अलग कानूनों  में अलग अलग है। भारत के संविधान और कानून के अनुसार 9 से 14 आयु वर्ष के बीच के बच्चे अपने श्रम के बदले मजदूरी लेते हैं या पारिवारिक ऋण चुकाते हैं वे सभी बाल श्रमिक हैं। वही सर्व शिक्षा अभियान के अनुसार जो बच्चे शाला से बाहर हैं उन्हें बाल श्रमिक माना जाता है। माइनिंग कानून के अनुसार बच्चे की उम्र 18 साल मानी गई है। किशोर  न्याय अधिनियम के अनुसार भी बच्चे की परिभाषा 18 साल से कम उम्र को मानी गई है।

बच्चों का नियोजन इसलिए किया जाता है, क्योंकि उनका आसानी से शोषण किया जा सकता है। बाल मजदूरी के कारणों में आमतौर पर गरीबी को प्रमुख माना गया है। इसके अलावा अधिक जनसंख्या का होना, सस्ता श्रम, उपलब्ध कानूनों का लागू नहीं होना, माता.पिता द्वारा अपने बच्चों को स्कूल की बजाय काम पर भेजा जाना ताकि परिवार की आय बढ़ सके जैसे अन्य कारण भी बाल मजदूरी के लिए जिम्मेदार माने जाते हैं। एन.एफ.एच.एस.-3 के अनुसार कुल बाल श्रमिक में से 28.2 प्रतिषत बच्चे अति गरीब या गरीब परिवारों से हैं और प्रत्येक 7 बाल श्रमिकों में से 1 बाल श्रमिक अति गरीब परिवार से है।

निश्चित रूप से बाल श्रम के गरीबी एक प्रमुख कारण है लेकिन यह जानना भी जरुरी है कि क्या केवल यह गरीबी ही है जिसके कारण परिवार अपने बच्चों को कम उम्र में ही काम-धंधों में लगा देते हैं पड़ता है, या इसके अन्य कारण भी हैं ?  हाल ही में में एक ऐसे अध्यन के साथ जुदा था जिसमें बालश्रम से सामाजिक आर्थिक कारणों को जानने की कोशिश की गयी थी . यह अध्यन भोपाल शहर के पुराने इलाके में की गयी है अध्ययन के दौरान बच्चों के अभिभावकों से जब यह जानने की कोशिश  की गई कि वे अपने बच्चों को पढ़ायी की जगह काम पर क्यों भेजते हैं तो इसके मुख्य रुप से 3 प्रमुख कारण निकल कर आये। पहला कारण यह है कि परिवार को अपने बच्चों को पढ़ायी के उम्र में काम पर मजबूरी के कारण भेजना पड़ता है, क्योंकि इन परिवारों की आर्थिक स्थिति ठीक नही है। परिवार में सदस्यों की संख्या ज्यादा है तथा कमाने वाले कम हैं। इस परेशानी के चलते बच्चे को काम पर भेजना पड़ता है। वर्तमान में बच्चों को कम मजदूरी मिल रही है लेकिन कम आमदनी के कारण यह भी परिवार के लिए बहुत उपयोगी है।

दूसरा कारण स्कूल और सरकारी मदद से चलने वाले मदरसों में पढ़ाई की गुणवत्ता से जुड़ा हुआ है। परिवार और बच्चों दोनों का कहना था कि स्कूलों/मदरसों में अच्छी पढ़ाई नही होती है इसी वजह से परिवार वाले उन्हें पढ़ाने में दिलचस्पी नही लेते और बच्चों का मन भी पढ़ाई में नही लगता है। इसी से जुड़ा एक अन्य कारण परिवार के सदस्यों का ना पढ़ा लिखा होना है, जिसकी वजह से पढ़ाई का माहौल नही है और ना ही आसपास ऐसा कोई सदस्य जो पढ़ाई के लिए प्रोत्साहित करे और पढ़ने में मदद करे। इन परिवारों की आर्थिक स्थिति ऐसी नही है कि वे इसकी पूर्ती के लिए बच्चों को टियुशन भेज सके। ऐसे में बच्चे केवल स्कूल में ही पढ़ायी करते हैं, घर आने के बाद ना तो उन्हें घर के सदस्यों द्वारा कोई मदद/प्रोत्साहित करने की स्थिति में है और ना ही वे खुद पढ़ाई करने की स्थिति में रहते हैं। परिवार वालों का कहना है कि बच्चे पढ़ने के बजाये मोहल्ले के दूसरे बच्चों के साथ इधर उधर घूमते रहते हैं। इसलिए उन्हें काम पर भेज दिया जाता है ताकि वे भविष्य के लिए कुछ काम धंधा सीख लें।

तीसरा कारण शिक्षा को भविष्य से ना जोड़ कर देखना है,  और एक तरह से सपनों का एक खास दायरे में सिमट जाना भी है। अध्ययन के दौरान कई बच्चों से बातचीत की गई। ज्यादातर बच्चे भविष्य में मैकेनिक, पेंटर, दुकानदार ही बनना चाहते हैं। यानी शिक्षा  का भविष्य से कोई जुड़ाव देखने को नही मिल रहा है। इसी तरह की सोच मां -बाप भी है जो मानते हैं  कि बच्चा इस उम्र से हुनर सीखना शुरु करेगा तो कुछ साल में उस काम में वह निपूर्ण हो जायेगा और बाद में इसी काम को रोजगार के रुप में अपना लेगा।

सपनों का दायरा इस कदर एक तरफा हो चुका है कि ज्यादातर बच्चे मौका तथा जरुरी सुविधाऐं मिलने के बाद भी ज्यादा पढ़ाई के हक में नही है, वे इसके पीछे की वजह बताते हैं कि स्कूल में अच्छी पढ़ाई नही होती है, पढ़ने का मन नही करता है, दोस्तों ने पढ़ाई छोड़ दिया है, घर की आर्थिक स्थिति ठीक नही है इसलिए काम करना एक मजबूरी है और काम के साथ साथ पढ़ाई करना मुष्किल होता है आदि।

जाहिर सी बात है की ऐसे में सिर्फ कानून बना कर और बालश्रम को गैरकानूनी धोषित इस समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है , इसके लिए समस्या की गहराई से समझना होगा ! और फिर उसके हिसाब से इस मसले को सही मायनों में एड्रेस कर पायेंगें !

हमारे छोटे से  अध्यन में  सभी सवालों का जवाब तो नहीं मिल सका लेकिन शिक्षा को भविष्य से नहीं जोड़ पाने को लेकर एक समाधान यह  हो सकता है कि   बाल श्रम प्रभावित क्षेत्रों के शासकीय स्कूलों तथा मदरसों आदि में बच्चों को पढ़ाई के साथ साथ गुणवत्तापूर्ण वोकेशनल ट्रेनिग का विकल्प दिया जाये। इससे उस क्षेत्र के कामकाजी बच्चों को शालाओं/मदरसों के साथ जोड़ने में मदद तो मिलेगी और  जो बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ कर बाल श्रम में लग गये को भी शिक्षा के साथ वापस जोड़ने का मौका मिलेगा! ऐसा होने से  कामकाजी बच्चे और उनके परिवार शिक्षा को अपने भविष्य के साथ जोड़ सकेगें ! परन्तु  यह तो समस्या के मात्र एक आयाम का ही समाधान है , जरूरत इस बात की है कि बालश्रम पर काबू पाने के लिए परम्परागत उपायों को एक्स्प्लोर किया जाये और बालश्रम के अन्य आयामों पर  व्यहारिक समाधान के लिए, अध्यन और सोच विचार किया जाये !


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