प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में हाल ही में दो दावे
देश के सामने आए हैं और ये दोनों ही परस्पर विरोधाभासी हैं। एक तरफ भारत के
मानव संसाधन विकास मंत्रलय ने कहा था कि देश में स्कूल नहीं जाने वाले बच्चों
की संख्या में कमी आ रही है और अपने इस कथन के पक्ष में उसने बाकायदा आंकड़े
भी जारी किए थे। उन्हीं आंकड़ों के अनुसार, वर्ष-2009 में छह से 14 वर्ष की आयु के करीब 80 लाख बच्चे स्कूलों में नहीं पहुंचे
थे, जिनकी संख्या 2012 में घटकर 30 लाख रह गई थी।
मंत्रलय का कहना है कि 2013 के
आंकड़े आने दीजिए,
उनमें यह संख्या
और घटेगी तथा भारत सभी बच्चों को स्कूल भेजने के लक्ष्य की ओर तेजी से आगे बढ़
रहा है, यह पता भी हमें चलेगा। वहीं, दूसरी ओर यूनिसेफ (यूनाइटेड नेशन्स
चिल्ड्रेन फंड) यानी संयुक्त राष्ट्र बाल कोष के भारत में मौजूद प्रतिनिधि
जॉर्ज आर्सेनॉल्ट ने भारत में महिलाओं और बच्चों के लिए बनी नीतियों और
कार्यक्रमों पर हाल ही में संपन्न हुई एक संगोष्ठी में दूसरी ही बात कही थी।
उन्होंने कहा था, भारत में आठ करोड़ बच्चे अनेक
कारणों से अपनी प्राथमिक शिक्षा अधूरी छोड़ चुके हैं व इन बच्चों में लड़कियों
की तादाद ज्यादा है। सवाल यह है कि हम किसे सही मानें, जॉर्ज आर्सेनॉल्ट को या कि भारत
सरकार के मानव संसाधन मंत्रलय को या फिर दोनों को ही? दरअसल, चीजें तब उलझ जाती हैं, जब हमारा यह मंत्रलय यह भी दावा
करने लगता है कि बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले बच्चों की तादाद में भी गिरावट आने
लगी है। उसके आंकड़ों पर भरोसा करें, तो
2009-10 में प्राथमिक स्तर पर पढ़ाई बीच में
ही छोड़ने वाले बच्चों की जो दर 29 फीसदी
थी, वह 2010-11 में
घटकर 27 फीसदी व 2011-12 में घटकर 24 फीसदी रह गई थी।
इसी अवधि में आठवीं कक्षा तक पढ़ाई बीच में ही
छोड़ने वाले बच्चों की दर 42.4
फीसदी से कम होकर
40.6 फीसदी रह गई है, तो ऐसे दसवीं तक के बच्चों की दर
घटकर 52.8 फीसदी के मुकाबले 49.3 प्रतिशत पर आ गई। यानी, मानव संसाधन मंत्रलय मानता है कि
तस्वीर में तेजी से बदलाव आने लगा है, वरना
हम दोनों को सही मान लेते,
मंत्रलय को भी और
यूनिसेफ के भारत प्रतिनिधि को भी।
हम यह मान ही लेते कि मंत्रलय सही कह रहा है, क्योंकि वह बच्चों को स्कूल भेजने
की बात करने तक ही सीमित है और उसने पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की तो
चर्चा भी नहीं की। उधर,
यूनिसेफ को सच
मानने की भी गुंजाइश थी ही। मान लेते कि वह केवल बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले
बच्चों की बात कर रहा है,
न कि इसकी कि
कितने बच्चे प्रवेश लेते हैं या कितने नहीं। यह सही है कि जॉर्ज आर्सेनॉल्ट ने
पढ़ाई बीच में छोड़ने वाले बच्चों की ही बात की है, लेकिन मानव संसाधन मंत्रलय ने तो इस
विषय से संबंधित तथ्यों को उलझाकर रख दिया है।
तो सवाल वही कि हम किसको सही मानें? एक बड़ी उलझन पर और गौर कीजिएगा।
जॉर्ज आर्सेनॉल्ट कहते हैं कि जो बच्चे बीच में पढ़ाई छोड़ते हैं, उनमें बच्चियों की तादाद ज्यादा
होती है, तो मानव संसाधन मंत्रलय ऐसा नहीं
मानता है। उसका दावा यह है कि जो बच्चे पढ़ाई बीच में छोड़ देते हैं, उनमें लड़कियों की तादाद कम है, तो लड़कों की ज्यादा। हालांकि, उसने यह तो माना है कि कक्षाएं
बढ़ने के साथ-साथ लड़कों की तुलना में लड़कियां ज्यादा पढ़ाई छोड़ने लगती हैं।
जैसे-2010-11
में कक्षा एक से
पांच तक के बच्चों में लड़कों के विद्यालय छोड़ने की दर जहां 28.7 फीसदी और लड़कियों की इससे कम यानी 25 फीसदी थी, तो वहीं इसी अवधि में कक्षा छह से
आठ तक के बच्चों में यह दर लड़कों की 40.3 और
लड़कियों की इससे ज्यादा 41.0
फीसदी थी। यानी, कक्षाएं बढ़ने के साथ-साथ लड़कियों
की पढ़ाई छोड़ने की दर भी अपने देश में बढ़ती चली जाती है।
यहीं आकर हम एक सरल निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं। जॉर्ज
आर्सेनॉल्ट ने प्राथमिक स्तर पर बच्चों के स्कूल छोड़ने की जो बात कही है, वह भले ही पूरी तरह सही न हो, पर यह सच है कि देश में बच्चे बड़ी
तादाद में पढ़ाई बीच में छोड़ते हैं। मतलब, मानव
संसाधन मंत्रलय ने जो कहा है,
वह भी पूरा सच
नहीं है।
हमारा दूसरा निष्कर्ष यह निकलेगा कि प्राथमिक स्तर पर स्कूल छोड़ने
वाले बच्चों में भले ही लड़कों के मुकाबले लड़कियों की पढ़ाई छोड़ने की दर कम
हो, मगर जहां बात प्राथमिक कक्षाओं से
ऊपर पहुंचती है,
बात बिगड़ जाती
है व लड़कियां लड़कों के मुकाबले में ज्यादा पढ़ाई छोड़ने लगती हैं। इस तस्वीर
को बदलना होगा,
लेकिन सवाल यह है
कि यह बदले भी तो कैसे?
सबसे बड़ी
विडंबना यह है कि हमारे देश में सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक नहीं है। अव्वल
तो हमारे पास जरूरत के अनुसार स्कूल ही नहीं हैं और दूसरे जो हैं, उनमें करीब-करीब आधे ऐसे हैं, जिनमें टायलेट की तक व्यवस्था नहीं
है। ऐसे में जो स्कूल लड़कियों के हैं, उनमें
तो उनका काम चल भी जाता होगा,
मगर जो सामूहिक
स्कूल हैं यानी जिनमें लड़के-लड़कियां साथ-साथ पढ़ते हैं, उनमें तो उनको बहुत मुश्किल आती
होगी और लड़कियां ऊंची कक्षा में पहुंचने के बाद इसीलिए पढ़ाई छोड़ती होंगी।
अलबत्ता, इसे इसका एकमात्र कारण नहीं माना जा सकता। लड़कियों द्वारा
पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने का दूसरा कारण यह समझ में आता है कि अभिभावक उनकी
सुरक्षा के प्रति चिंतित रहते हैं, क्योंकि
हमारे देश में माहौल बहुत खराब है। कोई नहीं कह सकता है कि यहां लड़कियां और
महिलाएं पूरी तरह से सुरक्षित हैं। सच तो यह है कि भेड़िए ताक में बैठे ही
रहते हैं कि कब उन्हें मौका मिले और वे कब झपट्टा मारें। तमाम कानून होने के
बाद भी स्थिति बदली नहीं है।
इधर, लड़कियों द्वारा पढ़ाई छोड़ने का एक कारण और है। भारतीय सामाजिक
मान्यताओं में लड़कियों के बारे में माना जाता है कि उन्हें पराए घर जाना ही
है। ऐसे में ज्यादातर अभिभावक उन्हें चिट्ठी-पाती पढ़ने लायक बनाने पर भरोसा
करते हैं, उनका मकसद उन्हें शिक्षित करके अपने
पैरों पर खड़ा करने का नहीं रहता है। यह सही है कि वक्त के साथ चीजें बदल रही
हैं। शहरों में हम इस बदलाव को साफ-साफ महसूस कर सकते हैं, पर ग्रामीण भारत अभी नहीं बदला है।
अत: जरूरत बदलाव की गति को तेज करने की है।
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