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राजनीतिक विमर्श और जन-स्वास्थ्य

-नीकी नैनसी

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव अपने आखिरी चरण में हैं, लेकिन अभी तक किसी पार्टी ने सामाजिक विकास को लेकर कोई ठोस बहस या तथ्य पर आधारित चर्चा करने की जरूरत नहीं समझी है। किसी भी पार्टी का घोषणापत्र उठा लें, एक बात पर सभी अपना दावा करते नजर आएंगे- आर्थिक और समेकित विकास। इन भारी-भरकम शब्दों के इस्तेमाल में आपको कोई कटौती नहीं मिलेगी, चाहे वह मोदी प्रचारित गुजरात मॉडल हो या फिर कांग्रेस समर्थित नव-उदारीकृत अर्थव्यवस्था। 

मोदी का कहना है कि उन्होंने गुजरात में आर्थिक विकास के लिए जो किया है वही मॉडल वे सारे देश में लाएंगे, क्योंकि गुजरात विकास के मानकों पर सफल हुआ है। लेकिन वे इस पर चर्चा क्यों नहीं करते कि वहां सामाजिक विकास के आंकड़े अन्य प्रदेशों से काफी गए-गुजरे हैं। क्या उन्होंने आर्थिक विकास की परिभाषा और उनके मानक बदल दिए हैं या फिर वे इस मुद्दे को उठाना ही नहीं चाहते। अगर स्वास्थ्य की बात करें तो महाराष्ट्र, तमिलनाडु की तुलना में गुजरात में मातृ-शिशु मृत्युदर और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्युदर ज्यादा है। कुपोषण का स्तर भी संतोषजक नहीं है। स्वास्थ्य के लगभग सभी मानकों पर गुजरात पूरे भारत की औसत दर से नीचे है। अन्य प्रदेशों की तुलना में गुजरात के अल्पसंख्यक और दलित समूहों की स्थिति भी अच्छी नहीं है। गुजरात का उदाहरण यह समझने के लिए पर्याप्त है कि राजनीति में नागरिक स्वास्थ्य सेवा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर विमर्श न के बराबर है। 

किसी भी देश के समग्र विकास का मॉडल स्वास्थ्य और शिक्षा के बगैर अधूरा माना जाता है। ये दो ऐसे आधार स्तंभ हैं, जिन पर किसी भी देश के न केवल वर्तमान विकास के कारक देखे जाते हैं, बल्कि आने वाले समय में होने वाले विकास के बीज सन्निहित होते हैं। अर्थशास्त्रियों द्वारा समेकित विकास बनाम आर्थिक वृद्धि की बहस का अधिक से अधिक स्पष्टीकरण इन्हीं दोनों कसौटियों पर रख कर देखा जाता है। और जब विकास के साथ मूलभूत आवश्यकताओं की जवाबदेही और बेहतर जिंदगी जीने के अधिकार जुड़ जाएं तो जाहिर-सी बात है कि विकासशील देशों के लिए उनके विकास के मायने सिर्फ आर्थिक वृद्धि की एक पूर्व निर्धारित दर प्राप्त करने तक सीमित नहीं रह जाने चाहिए। भारत में नागरिकों के स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं के निस्तारण पर कमोबेश यही स्थिति है। इस संदर्भ में प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन का कहना है कि संसद से लेकर मीडिया की मुख्यधारा, यहां तक कि व्यापक पहुंच वाले सोशल मीडिया में स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं, उनसे जुड़ी योजनाओं की सफलता (विफलता), कारण और तमाम अन्य महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर होने वाली चर्चा न के बराबर है।

हम विकास के जिस प्रारूप की बात भारत जैसे देश के संदर्भ में करते हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति के मद्देनजर वह कितना सही या अनुकूल है? उसके लिए स्वास्थ्य संबंधी उपलब्धियों के साथ विफलताओं पर भी विचार करना समीचीन होगा। एक तरफ तो पोलियो मुक्त देश बन जाने पर गर्व किया जाता है, पर इस बात पर ध्यान नहीं जाता कि ऐसी अन्य बीमारियों के उन्मूलन में हम बांग्लादेश से भी पीछे क्यों हैं। विश्व बाल स्वास्थ्य पर आधारित यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट में भारत की टीकाकरण दर विश्व की निम्नतम दरों में से एक है। सिर्फ खसरा और पोलियो को हटा दें तो कुछ काफी पिछड़े अफ्रीकी देश, अफगानिस्तान, हैती, इराक और पापुआ न्यू गिनी ही इस मामले में भारत से नीचे हैं। बांग्लादेश जैसे विकासशील देश ने तो इस क्षेत्र में पंचानबे प्रतिशत तक टीकाकरण दर हासिल कर ली है। 

चिंताजनक बात यह है कि हम योजनाओं की आड़ में इन बातों पर चर्चा न के बराबर करते हैं और इसलिए कोई ठोस कदम भी नहीं उठा पाते। एक आदर्श जनतंत्र में योजनाओं की सफलता बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करती है कि लोगों के बीच हम मुद्दों को कितना उठाते और उन पर कैसे बहस करते हैं। 

अगर लोक-स्वास्थ्य से जुड़े संस्थानों द्वारा प्रकाशित शोधपत्रों या आयोजित संगोष्ठियों को छोड़ दें, तो राजनीतिक विमर्श के क्षेत्र में इसका बिलकुल अभाव है। कह सकते हैं कि आजादी के बाद से कुछ मामलों में हमने सुधार किया है, जैसे कि कुपोषण से बच्चों में होने वाले क्वाशरकोर और मरास्मस जैसे रोगों को नियंत्रित किया है, शिशु मृत्युदर और वयस्क मृत्युदर में भी कमी आई है, लेकिन अब भी शिशु मृत्युदर चौवालीस प्रति एक हजार जन्म, और मातृ मृत्युदर दो सौ बारह प्रति एक लाख जन्म पर है, जो सरकार द्वारा चलाई गई तमाम योजनाओं (जननी सुरक्षा योजना, समेकित शिशु विकास योजना आदि) के क्रियान्वयन की खामियों को उजागर करती है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक भुखमरीग्रस्त बच्चों की तादाद और महिलाओं के कुपोषण में भारत सबसे आगे है। 

इस बाबत 1996 में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के तत्कालीन निदेशक वी. रामालिंगस्वामी ने अपने एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन में बताया था कि दक्षिण एशिया के देशों और खासकर भारत में बच्चों और महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक स्थिति उनके कुपोषण और खराब स्वास्थ्य में एक महत्त्वपूर्ण कारक है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण की रिपोर्टें भी इस बात की पुष्टि करती हैं कि बच्चों का स्वास्थ्य उनकी माताओं के स्वास्थ्य से जुड़े आर्थिक और सामाजिक कारकों पर निर्भर करता है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन की इंटर एजेंसी ग्रुप रिपोर्ट 2013 और यूनिसेफ ने भारत को मातृ मृत्युदर के समय आधारित प्रचलन (ट्रेंड) के आधार पर एक सौ अस्सी देशों में एक सौ छब्बीसवें स्थान पर रखा है। उनके हिसाब से हमारे यहां महिलाओं में रक्ताल्पता (एनीमिया) का स्तर भी चिंताजनक है। 5.7 करोड़ महिलाओं में से 3.2 करोड़ इस समस्या से ग्रस्त हैं। इसकी वजह से प्रसव के दौरान उचित और शीघ्र उपचार न मिलने पर मां और बच्चे दोनों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। 

अगला सवाल स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले संस्थागत व्यय का है, जो कि पिछले बीस सालों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत तक सीमित रहा। यूपीए सरकार ने 2004 में दावा किया था कि अपने सामान्य न्यूनतम कार्यक्रम के तहत स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च को जीडीपी के दो से तीन प्रतिशत अनुपात तक ले जाएगी। लेकिन हुआ इसका उल्टा, यह अनुपात और कम, यानी  0.9 प्रतिशत पर पहुंच गया। जबकि विश्व स्तर पर यह औसत छह प्रतिशत से अधिक है। केवल नौ देश ऐसे हैं, जिनका स्वास्थ्य खर्च भारत से थोड़ा कम या कमोबेश उसके बराबर है। 

दूसरी बात, जो इससे भी महत्त्वपूर्ण है कि स्वास्थ्य सेवाओं के निस्तारण में सरकार का एक जिम्मेवार संस्था के रूप में व्यय करना। यह इसलिए चर्चा का विषय होना चाहिए कि भारत की ज्यादातर जनता ग्रामीण है, यहां की स्वास्थ्य समस्याएं विकसित देशों से अलग हैं। हमारे यहां गरीबी, आय में असमानता, स्वास्थ्य सेवाओं पर उनकी आय के अधिकतर भाग का खर्च होना, स्वास्थ्य सेवाओं के निस्तारण में क्षेत्रीय असमानता, सामाजिक कारक, बीमारियों की प्रकृति आदि ऐसे महत्त्वपूर्ण कारक हैं, जो हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को बहुत गहराई से प्रभावित करते हैं। इसलिए इस बात पर बहुत तफसील से सोचने और बहस करने की जरूरत है कि हम किन संस्थागत माध्यमों और कितनी कुशलता से जनता को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराते हैं। 

अगर इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो भारत में सरकार कुल व्यय का एक तिहाई से भी कम इन सेवाओं पर खर्च करती है। जबकि विकसित देश जैसे उत्तरी अमेरिका, यूरोपीय संघ के देशों में सरकारें स्वास्थ्य सेवाओं पर सत्तर से पचासी प्रतिशत तक खर्च उठाती हैं। 

तीसरी बात हमारे यहां इन सेवाओं के निस्तारण में होने वाली अकुशलता और गैर-जवाबदेही से जुड़ी है। उदाहरण के लिए, अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान, मुंबई द्वारा इस विषय पर किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों के सुचारु रूप से काम करने के लिए आवश्यक संसाधनों का भारी अभाव पाया गया। 

मूलभूत सुविधाएं जैसे बिस्तर, उपकरण, जरूरी दवाइयां, टेलीफोन के साथ-साथ स्वास्थ्यकर्मियों, चिकित्सकों का इनमें अभाव है। यह कमी बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा जैसे पिछड़े राज्यों में चिंताजनक स्तर तक है। राजस्थान में किए एक सर्वेक्षण में उन्होंने पाया कि कई जगहों पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र चिकित्सक या अन्य कार्यकर्ता के अभाव में बंद पड़े हैं। ऐसे अन्य कई उदाहरण हैं, जो इस व्यवस्था की अकुशलता, सेवाओं का असमान वितरण, उनसे उपजे क्षेत्रीय असंतुलन जैसे कारकों को दर्शाते हैं। इसका नतीजा भी स्पष्ट देखने को मिल रहा है- निजी स्वास्थ्य क्षेत्र का कायम होता वर्चस्व। 

राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य योजना की 2012 की रिपोर्ट के अनुसार स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने में निजी क्षेत्र की भागीदारी 75 प्रतिशत तक है और लगभग उतना ही प्रतिशत निजी स्तर पर काम या प्रैक्टिस करने वाले एलोपैथिक चिकित्सकों का है। 1946 में स्वास्थ्य संबंधी सेवाओं पर सुझाव के लिए गठित भोरे समिति ने पहले ही इस समस्या पर बात की थी कि सरकारी चिकित्सक निजी प्रैक्टिस में लगे हुए हैं। 

क्षेत्रीय असमानता का एक कारण ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी चिकित्सकों की उदासीनता भी है, जिसकी पुष्टि 2011 में गठित उच्च स्तरीय स्वास्थ्य समिति की रिपोर्ट से होती है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में चिकित्सक और जनसंख्या का परस्पर अनुपात बहुत असमान है। विशेषज्ञ चिकित्सकों के चालीस प्रतिशत पद रिक्त पड़े हुए हैं। ऐसे में रोगी और उनके परिजनों के पास दो ही उपाय रह जाते हैं। या तो कर्ज लेकर किसी निजी चिकित्सक के पास जाएं, शहर में रह कर इलाज करवाएं या फिर रोगी को मरने के लिए नीम हकीम या घरेलू उपचारों पर छोड़ दिया जाए। 

शायद इसी वजह से लोगों की आय का अधिकतर भाग स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च में चला जाता है, जिससे उनकी बचत पर तो प्रभाव पड़ता ही है, जो गरीबी रेखा से नीचे हैं, उनके लिए ये सेवाएं लेना असंभव हो जाता है। तमाम रिपोर्टों और स्वतंत्र रूप से किए गए अध्ययनों से भी यह बात सिद्ध हो चुकी है कि निजी क्षेत्र के अस्पताल या चिकित्सक मनमानी फीस और अनावश्यक परीक्षण या महंगी दवाइयां बता कर पैसा वसूलते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि उपचार पर औसत व्यय सरकारी क्षेत्र की तुलना में निजी क्षेत्र में ढाई गुना ज्यादा है। यह ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों की हकीकत है। 


इन तमाम बातों के मद्देनजर, अगर हम स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरत को नागरिकों के अधिकार के रूप में देखना चाहते हैं (जैसा कि कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कहा भी है) तो पहले हमें इस बात पर व्यापक चर्चा करने की जरूरत है कि उसे किन संस्थाओं के माध्यम से और कैसे लाया जाए। आशय यहां आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक तीनों संस्थाओं से है। भारत जैसे प्रजातांत्रिक समाजवादी देश में तो ये तीनों ही एक दूसरे के अभिन्न अंग हैं।

साभार जनसत्ता 

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