डॉ. एके अरुण
यह विडम्बना ही है कि आधुनिक
विकास के दौर में जहां समृद्धि बढ़ रही है,
वहीं बड़ी संख्या में लोग विभिन्न
बीमारियों की गिरफ्त में भी फंसते जा रहे हैं। नए अनुसंधान चिकित्सा व उपचार की
तकनीक तो जोड़ रहे हैं, लेकिन इससे लोगों में रोगों की सम्भावना कम होती
नहीं दिख रही। मामला केवल तकनीकी ही नहीं,
बल्कि व्यवस्था का भी है। यदि स्वास्थ्य
सेवाएं समुचित रूप से समय पर उपलब्ध न हों तो भी रोग जटिल हो जाते हैं और स्थिति
नियंत्रण से बाहर चली जाती है। आजादी के पहले से ही भारत में जनस्वास्थ्य व्यवस्था
को मजबूत करने की बातें तो खूब हुईं,
लेकिन इसे अमल में नहीं लाया जा सका।
आम मरीज कोई वोट बैंक नहीं
होता, इसलिए न उससे पूछ कर नीतियां बनाई जाती हैं और न
ही राजनीतिक दलों के लिए जनस्वास्थ्य कोई महत्वपूर्ण मुद्दा होता है। यही कारण है
कि जब जनता बीमार होती है तो वह अत्यंत बेबस हो जाती है। वैसे भी शुरू से ही
स्वास्थ्य कभी भी राजनीति का मुख्य मुद्दा नहीं रहा। किसी भी राजनीतिक दल ने
स्वास्थ्य पर विमर्श की बात तो दूर,
चर्चा तक करना उचित नहीं समझा। विभिन्न
राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र में स्वास्थ्य एक शीर्षक के रूप में अंकित भले ही हो, लेकिन उस पर व्यापक नीति का उल्लेख तक नहीं होता। अनेक जन स्वास्थ्य
कार्यकर्ताओं ने जनस्वास्थ्य को चुनाव के बहाने जनता के मुख्य मुद्दे के रूप में
दर्ज कराने की काफी कोशिश की,
लेकिन कुछ खास फायदा नहीं हुआ।
आज की तारीख में स्वास्थ्य पर सकल
घरेलू उत्पादन का बामुश्किल 6.1
प्रतिशत खर्च होता है। योजना आयोग के
आंकड़ों के अनुसार केवल 1.4
प्रतिशत खर्च केंद्र और राज्य सरकारें वहन
करती हैं, शेष 4.7
प्रतिशत का बोझ जनता पर डाल दिया जाता है।
2०12-13 के बजट प्रस्ताव में तो सरकार ने स्वास्थ्य के लिए
34,448 करोड़ रुपए का ही प्रावधान रखा, जो कुल बजट का 2.3
प्रतिशत और सकल घरेलू उत्पाद का केवल ०.38 प्रतिशत रहा। मतलब यह कि राज्य सरकारों के मत्थे लगभग 1.1 प्रतिशत की रकम स्वास्थ्य पर खर्चे के लिए डाल दी गई है। हम इस
घोषणा-पत्र के माध्यम से कहना चाहते हैं कि केंद्र सरकार स्वास्थ्य पर सकल घरेलू
उत्पाद का तीन से चार प्रतिशत और राज्य सरकारें दो से तीन प्रतिशत की रकम खर्च
करें, जिससे जनता के सामने जीने का संकट नहीं पैदा हो।
स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार
उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर, डाइबिटीज, श्वसन तंत्र की बीमारी तथा मानसिक रोग
के कारण मौत के मुंह में समाने वालों की संख्या 42 प्रतिशत है।
संक्रमण यानी फैलने वाली
बीमारियों जैसे डेंगू, चिकनगुनिया,
मलेरिया, पेट की बीमारी तथा
जापानी एन्सेफेलाइटिस के कारण जिन लोगों की मौत होती है, उनकी संख्या 38
प्रतिशत है। इसके अलावा, दुर्घटना एवं चोट तथा बुढ़ापे की बीमारियों के कारण मरने वालों की संख्या
1०-1० प्रतिशत है। जिस बीमारी के कारण सर्वाधिक लोगों
की मौत होती है, उस पर सर्वाधिक ध्यान देने की जरूरत है। इन
बीमारियों में महंगी दवाएं लंबे समय तक लेनी पड़ती हैं। दूसरी तरह की जो बीमारियां
हैं उनके इलाज के लिए नई-नई दवाइयों का इस्तेमाल करना पड़ता है। ये भी महंगी तथा
उच्च स्तरीय इलाज की मांग करती है। बुढ़ापे में तो स्वस्थ रहने के लिए दवाओं पर
निर्भरता और बढè जाती है। दुर्घटना एवं चोट की स्थिति में तुरंत और
कई प्रकार के इलाज की आवश्यकता होती है।
पिछले वर्ष केंद्र सरकार ने नैगम
राजस्व वसूली में 5.3 लाख करोड़ रुपए की छूट बड़े घरानों को दी है, जो सकल घरेलू उत्पाद के 5.95
प्रतिशत के आसपास है। अगर यह छूट बड़े
घरानों को नहीं दी गई होती तो जनता के स्वास्थ्य पर खुले हाथ से खर्च किया जा सकता
था। सरकार को चाहिए कि वह नैगम घरानों से कड़ाई से राजस्व की वसूली करे। 2००7-०8
में केंद्र एवं राज्य सरकारों द्बारा जो
राजस्व वसूली की गई थी, वह भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 17.4 प्रतिशत था। 2०1०-11
में यह आंकड़ा गिरकर 14.7 प्रतिशत रह गया। इस गिरते राजस्व की वसूली को रोका जा सकता है। कुल करों
में प्रत्यक्ष करों की एक तिहाई हिस्सेदारी है तथा अप्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी
दो-तिहाई है। इसे बदलने की जरूरत है,
जिससे आम जनता से करों का बोझ हटा कर उस
आभिजात्य वर्ग पर डाला जा सके जो करोड़ों-अरबों रुपए महंगे खेलों में उड़ा कर खुश
होता है। लाखों करोड़ रुपए के होने वाले भ्रष्टाचार को रोक कर सरकारी खजाने को
बढ़ाया जा सकता है। इस प्रकार हम चाहते हैं कि शासन जन स्वास्थ्य पर होने वाले
खर्च की व्यवस्था सुनिश्चित करे और जन स्वास्थ्य पर अधिक से अधिक खर्च करे।
अब हम जन स्वास्थ्य की सबसे
महत्वपूर्ण कड़ी पर गौर करें। यह कड़ी है चिकित्सा एवं अधोसंरचना। यह इस घोषणा-पत्र
का सर्वाधिक महत्वपूर्ण हिस्सा है,
जिसमें ढेरों महत्वपूर्ण आंकड़े और तथ्य
हैं, जिनको जानना हम जरूरी समझते है। 2०11 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या 1 अरब 21 करोड़ 1
लाख 93 हजार 4 सौ 22 है,
जो 2००1
की तुलना में 17.64 प्रतिशत की दर से बढ़ी है। हमारे देश में 35 राज्य और केंद्र
शासित प्रदेश हैं, जिनमें कुल 64० जिले हैं। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार, भारत में करीब 7
लाख 5० हजार एलोपैथिक
चिकित्सक हैं। वर्तमान में कुल चिकित्सा शिक्षा संस्थानों की संख्या 355 है जो देश के 193
जिलों में फैले हुए हैं। इन चिकित्सा
संस्थानों में हर साल 43,89० विद्यार्थी भर्ती हो सकते हैं।
आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता
है कि देश में 1613 नागरिक
एक चिकित्सक के भरोसे हैं, जो
अंतरराष्ट्रीय सूची में 97वें
स्थान पर है। हमारा पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान इससे तीन पायदान ऊपर है।
भारत में जनसंख्या की रफ्तार अगर ऐसी
ही रही तो 2०21
में 17.64 की दर से 1 अरब 42 करोड़ 37
लाख 77 हजार 3 सौ 81 होगी और 1० वर्षों में चिकित्सा संस्थानों से पढèकर बाहर निकलने वालों की संख्या 4
लाख 38 हजार 9 सौ रहेगी। इस तरह आज की तारीख में काम करने वाले चिकित्सकों को 2०21 तक चिकित्सक बनने वालों की संख्या में जोड़ दिया
जाए तो देश में कुल चिकित्सकों की संख्या 11
लाख 88 हजार 9 सौ हो जाएगी। इस तरह,
तब भी 1197 लोगों की जनसंख्या
एक चिकित्सक के भरोसे ही रहेगी।
आज की तारीख में औसतन 1111 नागरिकों के लिए अस्पताल में एक बिस्तर उपलब्ध है। यदि केवल सरकारी
अस्पतालों के आंकड़ों का इस्तेमाल करें तो पता चलता है कि 1541 नागरिकों के लिए सरकारी अस्पताल में केवल एक बिस्तर उपलब्ध है। ऐसे में
अगर चिकित्सा संस्थानों की संख्या बढè
जाएगी तो अस्पतालों में बिस्तरों की संख्या
भी उसी अनुपात में बढè जाएगी। कुछ जरूरी आंकड़े और 2०11 में भारत में कुल नर्सों की संख्या 17 लाख 57 हजार 4
सौ 16
है। यानी प्रत्येक नर्स के जिम्मे औसतन 688 नागरिक हैं। आदर्श स्थिति तो यह है कि प्रति 1०० लोगों की आबादी पर एक नर्स की पदस्थापना सुनिश्चित हो।
जनवरी,
2०11 के आंकड़ों के अनुसार भारत में कुल 7 लाख 12 हजार 1
सौ 21
आयुष चिकित्सक हैं। इनमें आयुर्वेद के 4 लाख 29 हजार 2
सौ 46,
यूनानी चिकित्सा के 49 हजार 4 सौ 31,
सिद्ध के 7 हजार 5 सौ 68, होम्योपैथी के 2 लाख 24 हजार 2 सौ 79
और प्राकृतिक चिकित्सा के 1 हजार 5 सौ 97
चिकित्सक शामिल हैं। आज यह हमारी जरूरत है
कि ऐलोपैथी के अलावा आयुष चिकित्सा को भी गंभीरता से लिया जाए और इनके विकास के
लिए भी संसाधन उपलब्ध कराए जाए। देश के सभी 64० जिलों में एक-एक आयुष चिकित्सालय की स्थापना
सुनिश्चित करने की बात भी हम घोषणा-पत्र के माध्यम से कहना चाह रहे हैं। जनता को
इस बात के लिए उपयुक्त अवसर प्रदान किया जाए कि वह अपनी पसंद की चिकित्सा पद्घति
का चुनाव कर सके।
किसी भी राजनीतिक दल के लिए गवर्नेंस
आज एक आकर्षक शब्द है जो काफी वोट बटोर रहा है लेकिन स्वास्थ्य गवर्नेंस के लिए
स्वास्थ्य पर आज भी व्यापक चर्चा नहीं होती। स्वास्थ्य महज मंत्रालय और विभाग का
रूटीन कार्यकारी एजेण्डा भर है। क्या विभिन्न राजनीतिक दलों से यह उम्मीद की जाए
कि वे आगामी लोक सभा चुनाव में स्वास्थ्य को मुख्य मुद्दे के रूप में चिह्नि्त
करेंगे। यदि अमरीका का उदाहरण दें तो विगत चुनाव में वहां के वर्तमान राष्ट्रपति
बराक ओबामा ने जनस्वास्थ्य तथा स्वास्थ्य बीमा को मुद्दा बनाकर चुनाव जीता था।
जाहिर है कि सम्पन्न देश में जहां आमतौर पर औसत आदमी महंगी स्वास्थ्य व्यवस्था का
बोझ उठा सकता है, वहां जनस्वास्थ्य और सरकारी जिम्मेदारी का मुद्दा
भी वोट बटोरने का जरिया हो सकता है। भारत के राजनेता क्या इसे समझेंगे?
(लेखक राष्ट्रीय
पुरस्कार प्राप्त चिकित्सक एवं जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक हैं।)
Courtesy- http://hindi.governancenow.com/
0 Comments