जावेद अनीस
शिक्षा अधिकार कानून को लागू हुए चार साल
बीत चुके हैं, एक अप्रैल 2०1० को यह कानून पूरे देश में लागू किया गया था।
इसको लागू करते समय यह दावा किया जा रहा था कि यह कानून भारत के बच्चों को उनके
शिक्षा का अधिकार देने के सफर में महत्वपूर्ण पड़ाव माना साबित होगा। हम तीन साल
बाद पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पाते हैं कि स्थितियां बहुत ज्यादा अनुकूल नहीं हुई
हैं, दुर्भाग्यवश कई सारी शंकाएं तो सही साबित हो रही
है। चिता करने की बात तो यह है कि कई मामलों में स्थितियां सुधरने के बजाए बिगड़ी
ही है और यह हालात कमोबेश देश के सभी राज्यों में है। अगर हम मध्य प्रदेश के बात
करें तो यह उन राज्यों में शुमार हैं जहां स्थिति बदतर है और अगर अभी ध्यान नहीं
दिया गया तो हालात बेकाबू हो सकते हैं।
मध्य प्रदेश के संदर्भ में
अगर इस कानून को लागू करते समय उन लक्ष्यों के क्रियान्वयन की स्थिति को देखें
जिन्हें राज्यों को 3 साल में पूरा कर लेना था तो इस मामले में प्रदेश, देश के सभी राज्यों में सबसे पिछले कतार में शुमार नजर आता है। भारत
सरकार की मानव संसाधन विकास मंत्रालय,
भारत सरकार द्बारा अप्रैल 2०13 को जारी रिपोर्ट के अनुसार मध्यप्रदेश में 52 प्रतिशत शिक्षक प्रशिक्षित नही है। जो कि देश में सबसे ज्यादा है। इसी
तरह से शिक्षकों की कमी के मामले में यह देश में अरुणाचल प्रदेश के बाद दूसरे
स्थान पर है। शिक्षा के अधिकार कानून के मानकों के आधार पर देखा जाए तो मध्य
प्रदेश में 42.०3
प्रतिशत शिक्षकों की कमी है।
इसी तरह से अगर राष्ट्रीय शिक्षा
योजना और प्रशासन विश्वविधालय (एनयूईपीए) की `स्टेट रिपोर्ट
कार्ड 2००8-2००9’’
और प्रोविजनल रिपोर्ट 2०11-2०12
को तुलनात्मक रुप से देखा जाये तो वर्ष 2००8-०9
में मध्य प्रदेश के 17.4 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं तथा 11.5
प्रतिशत माध्यमिक शाला में केवल एक शिक्षक
थे। वही एनयूईपीए की 2०11-2०12
की प्रोविजनल रिपोर्ट देखें तो स्थिति में
ज्यादा परिवर्तन देखने को नही मिलता है। 2०11-12
में 16.7 प्रतिशत प्राथमिक
शालाएं तथा 16.8 प्रतिशत माध्यमिक शालाएं एक शिक्षक के भरोसे चल
रही है। यानी माध्यमिक शालाओं में स्थिति ओर भी बदतर हुई है। शिक्षा की गुणवत्ता
की बात करे तो वह भी सुधरने के बजाए लगातार बिगड़ती जा रही है।
अभी हाल ही में प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन द्बारा एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की नौवीं रिपोर्ट 2०13 (असर- 2०13
) जारी की गयी है, इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश के सरकारी शालाओं में शिक्षा के गुणवत्ता की
स्थिति को पिछले रिपोर्टों से तुलना करके बताया गया है कि किस तरह से वर्ष 2००9 से शालाओं में शिक्षा की गुणवत्ता लगातार कम होती
जा रही है। रिपोर्ट के अनुसार जहां 2००9
में कक्षा 5 के 76 प्रतिशत बच्चे कक्षा 2
के स्तर की किताबें पढ़ सकते थे,वहीं 2०1० में यह दर 55.2 प्रश., 2०11 में 33.4
प्रश., 2०12 में 27.5 और 2०13
में 25.9 प्रश. हो चुकी है।
यह स्थिति बताती है कि हमें चिता करने की जरूरत है।
रिपोर्ट के अनुसार
मध्यप्रदेश के शालाओं में पहली कक्षा के 54 प्रश. बच्चों को अक्षर ज्ञान तक
नहीं है, कक्षा
5 के 31 प्रश. छात्र दूसरी कक्षा की किताब
नहीं पढ़ सकते हैं। प्रदेश में सतत व्यापक मूल्यांकन व्यस्था लागू है लेकिन प्रदेश
के 18.3 प्रश.
शिक्षकों को इस व्यवस्था की जानकारी ही नहीं है।
एक तरफ उपरोक्त स्थितियां हैं
तो दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में जिस तरह से `शिक्षा अधिकार कानून’ को लागू किया जा रहा है उनसे भी कुछ समस्याएं निकल कर आयी हैं अगर इस
समस्याओं को ही दूर किया जाए तो हालत में कुछ सुधार की उम्मीद की जा सकती है। पहला
मुद्दा है , शिक्षा अधिकार कानून में शिक्षकों की संख्या और
योग्यता के बारे में विशेष प्रावधान तय किए गए हैं किन्तु इन प्रावधानों का पालन
मध्यप्रदेश में नही हो पा रहा है। यहां कई स्तर के शिक्षक मौजूद है जिन्हें सहायक
शिक्षक, अध्यापक संवर्ग और संविदा शिक्षक के नाम से जाना
जाता हैं। इस सबंध में विशेष वित्तीय प्रावधान लागू करते हुए पूर्णकालिक शिक्षकों
की नियुक्ति किए जाने की जरूरत है।
दूसरा मुद्दा है कि, मध्य प्रदेश में शाला प्रबंधन समिति में सबसे ज्यादा नंबर लाने वाले
बच्चे के माता और पिता दोनों को शामिल किया गया है इस कारण प्राथमिक शाला में 14 के स्थान पर केवल 7
बच्चों के और माध्यमिक शाला में 12 के स्थान पर केवल 6
बच्चों के माता पिता का ही प्रतिनिधित्व
हो पाता है। दूसरी तरफ मध्य प्रदेश में ऐसा भी देखने में आ रहा है कि कई शाला के
शिक्षक जानबूझ कर ऐसे बच्चो को ज्यादा नंबर देते जिनके माता पिता को वे शाला
प्रबन्धन समिति में देखना चाहते हैं ताकि शाला प्रबंधन उनके हिसाब से चल सके। ऐसे
में अंदाजा लगाया जा सकता है कि शाला प्रबन्धन समिति की भूमिका को लेकर शिक्षा के
अधिकार के कानून की मूल भावना थी उसके साथ किस हद तक खिलवाड़ किया जा रहा है। इसलिए
मध्य प्रदेश के सन्दर्भ में यह जरूरी है कि एसएमसी के गठन करते समय एसएमसी के
सदस्यों के चयन का आधार उनके बच्चों द्बारा प्राप्त किए गए अधिकतम अंक न हों।
केन्द्रीय कानून की मूल भावना को ध्यान में रखते हुए सदस्यों के चयन का मानदंड
ज्यादा लोकतांत्रिक बनाया जाए। तभी शाला प्रबन्धन समितियां सही रूप में शिक्षा
अधिकार कानून के मूल भावना के अनुरूप शालाओं के निगरानी और वास्तविक भागीदारी की
अपनी भूमिका को निभा सकेंगीं।
इसी तरह से मध्य प्रदेश में
शाला प्रबंधन समिति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को भी कागजी बना दिया गया है, वैसे मध्य प्रदेश के स्टेट रूल्स में यहां महिलाओं के लिए एसएमसी में 5० प्रतिशत आरक्षण तो किया गया है लेकिन यह हमारे सामाजिक परिवेश को देखते
हुए अव्यवहारिक है क्योंकि आरक्षण के नाम पर एक की परिवार के दंपति को सदस्य के
रूप में शामिल किया गया है। इस कारण बैठकों में महिला सदस्यों की भागीदारी नहीं हो
पाती है। इसलिए जरूरत इस बात की है की इस व्यवस्था को तत्काल खत्म किया जाए और शाला
प्रबंधन समिति में महिलाओं की आरक्षण व्यवस्था को व्यवहारिक बनाया जाए तभी उनकी
वास्तविक भागीदारी हो सकती है। इस तरह से स्पष्ट है कि तीन साल बीत जाने के बाद भी
मध्य प्रदेश `शिक्षा अधिकार कानून’ के क्रियान्वयन की स्थिति संतोषजनक नहीं है। तीन साल पहले इसे लागू कराते
समय जो दावे किए गए थे और सपने देखे गये थे उन्हें प्राप्त करने में हम फिसड्डी
साबित हुए हैं। मध्य प्रदेश में शिक्षा अधिकार कानून के क्रियान्वयन आ रही कई सारी
समस्याएं स्टेट रूल्स की वजह आ रही हैं।
स्टेट रूल्स में बदलाव की जरूरत है ताकि इसकी वजह से आ रही रुकावटों को दूर किया जा सके,दूसरी तरफ राज्य बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एससीपीसीआर) को अधिक क्रियाशील
बनाए जाने की जरूरत है इसके लिए एससीपीसीआर में अलग से आरटीई सेल का गठन की जा
सकती हैं। देश के सभी राज्यों की तरह मध्य प्रदेश में भी शालाओं में शिक्षा की
गुणवत्ता एक बहुत बड़ी चुनौती के रूप में उभर कर सामने आयी है, आगामी वर्षों में अगर इसपर विशेष ध्यान नहीं दिया गया तो सरकारी शालाओं
पर ही सवाल खड़ा किया जाने लगेगा और यह समाज के सब से कमजोर तबकों के बच्चों के लिए
मध्यान्ह भोजन परोसने और महज साक्षर बनाने का माध्यम बन कर रह जाएंगे।
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