जावेद अनीस
Daily News Activist, 2 April 2014 |
हर साल 1 अप्रैल को पूरी दुनिया मूर्खदिवस मानती है, संयोग से चार साल पहले भारत सरकार ने देश के 6 से 14 साल के सभी बच्चों को शिक्षा का
अधिकार देने के लिए के लिए इसी दिन को चुना और एकअप्रैल 2010 को “शिक्षा का अधिकार कानून 2009” पूरे देश में लागू किया गया.
वैसे शिक्षा के उद्देश्य को
लेकर कहा जाता है कि शिक्षा सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन के लिए सबसे जरूरी हथियार है और किसी भी राष्ट्र के विकास में शिक्षा एक बुनियादी तत्व है इसलिए
किसी भी लोकतान्त्रिक राज्य के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह इसके महत्त्व
को समझते हुए यह सुनिश्चित
करे की देश और समाज के सभी वर्गों को समान और गुणवत्तापूर्णशिक्षा
का अवसर मिले. परन्तु इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा की आजादी के67 साल
बाद भी यह देश आज भी अपने सभी बच्चों को स्कूलों में नामांकन को लेकर ही जूझ रहा
है. अभी तक हम सभी बच्चों को स्कूल भेजने में कामयाब भी नहीं हो सके हैं,बच्चों द्वारा बीच में ही पढाई छोड़ने का दर 6% के आस पास बना हुआ
है. हैरानी की बात यह है कि अगले पांच सालों के लिए देश के लिए नयी सरकार के लिए
चुनाव हो रहे हे इस चुनाव में किसी भी राजनीतिक दल के लिए शिक्षा एजेंडा पर ही
नहीं है ।
अप्रैल 2010 में शिक्षा
का अधिकार अधिनियम लागू होते है. भारत आधे अधूरे रूप से ही सही उन देशों
की जमात में शामिल हो था, जो अपने देश के बच्चों को निःशुल्क शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए कानूनन जबावदेह हैं। यूनेस्को की ’’एजूकेशन फॉर आल ग्लोबल
मानिट्रिंग रिपोर्ट 2010’’ बताती है कि दुनिया के करीब 134 देशों में बच्चों को निःशुल्क
और भेदभाव रहित शिक्षा प्रदान करने के लिए
प्रावधान हैं लेकिन इस प्रावधान के बावजूद ज्यादातर देशों में वास्तविक रूप से
भेदभाव रहित समान शिक्षा नहीं मिल पाती है। लकिन उपरोक्त रिपोर्ट में विश्वबैंक द्वारा 2005 में किये गये एक अध्ययन
का भी जिक्र है, जिसके मुताबिक वास्तविक
रूप से दुनिया में मात्र 13 देश ही ऐसे है जहां पूरी तरह निःशुल्क शिक्षा मिल पाती है
दुर्भाग्यवश 2014 में
हम पाते हैं कि भारत के बच्चे उन 13 देशों के बच्चों की तरह खुश नसीब नहीं है।
भारत ने शिक्षा के अधिकार के
लेकर एक लम्बा सफ़र तय किया है और “शिक्षा का अधिकार कानून2009” इस सफ़र
की मंजिल नहीं बल्कि एक पड़ाव है !स्वतंत्रता उपरांत देश के संविधान निर्माता शिक्षा के अधिकार को संविधान
में एक मूल अधिकार के रूप में शामिल करना चाहते थे, लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसा नहीं हो सका था और
इसको राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में अनुच्छेद 45 के अर्न्तगत ही स्थान
मिल सका तथा इसे राज्यों की इच्छा पर छोड़ दिया गया जो कि न्यायालयों मैं
परिवर्तनीय नहीं थे।वर्ष 2002 में भारत की संसद में 86 वें सविंधान संषोधन द्वारा नया अनुच्छेद ’’21-क’’ जोड़कर इसे मूल अधिकार
के रूप में अध्याय-3 में शामिल कर परिवर्तनीय बना दिया गया।इस संवैधानिक संषोधन के साथ
शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार का दर्जा मिल गया तथा इसे नीति निर्देषक तत्वों
एवं मूल कर्त्तव्यों में भी शामिल कर लिया गया। लेकिन हमारी सरकारों के पास न तो
इसे लागू करने की इच्छाशक्ति थी और न ही सकारात्मक सोच।वैसे तो 1992 के मोहिनी जैन बनाम
कर्नाटक राज्य के मामले में देश के शीर्ष अदालत ने ’अनुच्छेद-21’ के तहत शिक्षा पाने के
अधिकार को प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार बताते हुये ऐतिहासिक निर्णय दिया था कि
प्रत्येक नागरिक को शिक्षा उपलब्ध करवाना राज्य का संवैधानिक दायित्व है।
लेकिन उन्नीकृष्णन बनाम आन्ध्र प्रदेष (1993) 4scc645 के मामले में निजी
कालेज संचालकों ने न्यायालय से मोहिनी जैन मामले में अदालत द्वारा दिये गये फैसले
पर पुर्नविचार के लिए आवेदन दिया। इसके बाद अदालत ने शिक्षा को मूल अधिकार
तो माना लेकिन इसे 14 साल तक के बच्चों तक सीमित कर दिया। इसी कड़ी में “शिक्षा
का अधिकार अधिनियम 2009” है जो केंद्र तथा
राज्यों के लिए कानूनी बाध्यता है ।
लेकिन इस अधिनियम के
लागू होने के चार वर्षों के बाद सुधार सुधार कम और कमियां ज्यादा
सामने आने लगी है, चार साल बाद अब हम देख सकते हैं किस तरह
से ना केवल शिक्षाविदों और सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा
इसको लेकर की गयी आशंकाये सही साबित हो रही हैं बल्कि इसे
जमीनी स्तर पर लागू कराने में भी पूरी तरह से कामयाबी नहीं मिल सकी
हैं ।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा जनवरी 2014 में शिक्षा के अधिकार
कानून के क्रियान्वयन को लेकर जरी रिपोर्ट के अनुसार एक भौतिक मानकों जैसे शालाओं
की अधोसंरचना, छात्र- शिक्षक अनुपात आदि को लेकर तो सुधार
देखने को मिलता है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता, नामांकन के दर आदि मानकों को लेकर स्थिति में में ज्यादा परिवर्तन देखने
को नहीं मिलता है. जैसे प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन अभी भी 2009-10 के
स्तर 48% पर ही बना हुआ है,यानी
इस दौरान प्राथमिक स्तर पर लड़कियों का नामांकन को लेकर कोई प्रगति नहीं हुई है.
इसी तरह से अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों में भी नामांकन दर भी 2009-10 के
स्तर क्रमशः 20% और 11% पर बना हुआ है, जबकि
मुस्लिम बच्चों के नामांकन दर में वर्ष 2009-10 (13%) के मुकाबले 2012-13 में मात्र 1 प्रतिशत (14%) का
सुधार देखने को मिलता है .इसी रिपोर्ट के मुताबिक देश के 31% प्रतिशत शालाओं में
लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं है जो की लड़कियों के बीच में ही पढाई छोड़ने का
एक प्रमुख है.
अभी भी केवल 88% स्कूलों में शाला प्रबन्धन समिति (एस.एम.सी.)
का “गठन” हो सका है, इनमें से कितने एस.एम.सी अपनी भूमिका
सक्रिय रूप से निभा पाते होंगें यह जांच का विषय हो सकता है .
एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन की नौवीं रिपोर्ट 2013 शिक्षा
की चिंताजनक तस्वीर पेश करती है रिपोर्ट हमें बताती है की कैसे शिक्षा का अधिकार कानून मात्र बुनयादी सुविधाओं का कानून साबित हो रहा है.
स्कूलों में अधोसंरचना सम्बन्धी सुविधाओं में तो लगातार सुधार हो रहा है लेकिन
पढाई की गुणवत्ता सुधरने के बजाये बिगड़ रही है. रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2009 में कक्षा 3 के43.8% बच्चे
कक्षा 1 के
स्तर का पाठ पढ़ सकते थे 2013 में यह अनुपात कम होकर 32.6 प्रतिशत
हो गया है. इसी तरह से 2009 में कक्षा 5 के 50.3 % बच्चे
कक्षा 2 के
स्तर का पाठ पढ़ सकते थे 2013 में यह अनुपात घट कर 41.1 प्रतिशत
हो गया है.
गणित को लेकर भी हालत बदतर हुई है रिपोर्ट के अनुसार 2009 में कक्षा 3 के36.5 % बच्चे
कम से कम घटाव कर सकते थे, लिंक 2013 में
यह स्तर कम होकर 18.9 प्रतिशत
हो गया है. इसी तरह से 2009 में कक्षा 5 के36.1% बच्चे
भाग कर लेते थे जोकि 2013 में घट कर 20.8 प्रतिशत हो गया है ।
ऐसे में सवाल उठाना लाजमी है कि
बच्चों को किस तरह का शिक्षा का हक मिल रहा है ? निश्चित रूप
से सरकारी शालाओं गुणवत्ता का सवाल सबसे महतवपूर्ण बन
चूका है। लेकिन खतरा इतना भर नहीं है, दरअसल “असर” की ही रिपोर्ट बताती है कि 2013 में
भारत के ग्रामीण इलाको में 29 प्रतिशत बच्चों
के दाखिले प्राइवेट स्कूलों में हुए हैं और पिछले साल के मुकाबले इसमें 7 से 11 प्रतिशत वृद्धि हुई है । ऐसे में राज्य द्वारा निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने का सवाल पीछे
छुटता नजर आ रहा है ।क्यूंकि अब तो देश के ग्रामीण
इलाको में भी प्राइवेट स्कूलों का धंधा बहुत तेजी से अपना पैर पसार रहा है. और तो
और देश की12वीं पंचवर्षीय योजना में शिक्षा के दशा सुधरने के लिए पीपीपी
(सरकारी – निजी
सहयोग ) अपनाने की बात की गयी है, जो की कुछ और नहीं
प्राथमिक शिक्षा की पूरी निजी हाथों में सौपने के दिशा में एक और कदम है. ऐसे में
शिक्षा अधिकार कानून का क्रियान्वयन और प्राइवेट स्कलों का धंधा एक साथ कैसे चल सकता है?
सीमित मात्रा में ही सही यह
कानून सरकार से शिक्षा के हक मांगने के लिए जनता के हाथ में एक हथियार तो मुहैया कराता ही
है। इस अधिनियम के अधीन बच्चों के शिक्षा के अधिकार को सुनिष्चत करने के लिए राष्ट्रीय व राज्य कमीशन के
अतरिक्त अधिकारितायुक्त स्थानीय प्राधिकरण की भी व्यवस्था की गयी है। इसमें स्थानीय
निकायों और शाला प्रबन्धन समिति की भूमिका बहुत
महत्वपूर्ण हो जाती है, इन स्थानीय
निकायों और समुदाय को अपनी भूमिका निभाने के लिए तैयार करने में ,सामाजिक संगठनों की भूमिका बनती है । लेकिन यह
समस्या का सम्पूर्ण इलाज नहीं है। इसके साथ साथ
हमारा लक्ष्य, निजीकरण को रोकना इस कानून में बची
खामियों को दूर करते हुए देश के सभी बच्चों को सामान, अनिवार्य
और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा होना चाहिए।
लेकिन लोकतंत्र में अंततः राजनीती ही सब कुछ तय
करती है और इतना सब होने के बावजूद शिक्षा का एजेंडा हमारे राजनितिक पार्टियों
अजेंडे में नहीं हैं और ना ही यह उनके विकास के परिभाषा के दायरे में आता है , फिर
शिक्षा को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन के औजार के रूप कोन तैयार करेगा ? निश्चित
रूप से यह मात्र वोट डालने से तो नहीं हो सकता इसके लिए हमें इस बैलेट की ताक़त
शिक्षा को राजनीत के एजेंडे में शामिल करने के लिए भी इस्तेमाल करनी होगी । तब तक हमारे पास 1 अप्रेल को मूर्खदिवस मनाने का ही विकल्प बचता है।
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