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क्यों बन रहे-स्कूल यातना और शोषण के केन्द्र?


डा. सुनील शर्मा

शिक्षक की पिटाई से छात्र का हाथ टूटा, आँख फूटी या कान फूटा की खबरें आए दिन हमारे सामने आती रहती हैं। इनमें से अधिकांश खबरों को हम नजरअंदाज कर जाते है। लेकिन अब राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के सर्वे में शिक्षकों के द्वारा बच्चों के साथ किए जा रहे यातनापूर्ण व्यवहार का खुलासा हुआ है। आयोग की रिपोर्ट के अनुसार देश के 80 फीसदी स्कूली बच्चों को उनके शिक्षक यह कहकर अपमानित करते हैं कि-वे पढ़ने के योग्य नहीं हैं। आयोग के सर्वे में स्कूलों में करंट लगाने जैसी क्रूर सजा का भी उल्लेख है। सर्वे के अनुसार 99 फीसदी छात्रों ने माना कि उन्हें स्कूल में किसी न किसी प्रकार की सजा दी गई है। सर्वे में बेंत से पिटाई, पीठ पर मारना और गाल पर तमाचा जैसी शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना की सजा देने की बात सामने आई है। इस तरह सर्वे से स्पष्ट है कि भारतीय स्कूल बच्चों के लिए यातना घर बन गए है।

वैसे स्कूलों में बच्चों को सजा देने की बात कोई नई नहीं हैं पहले तो गुरूजी की पिटाई को अच्छाई का आवरण देकर कहा जाता था कि गुरूजी मारे धमधम विद्या आवे छम छम। पालक भी अपने बिगड़े बच्चे को गुरूजी के पास खड़ा करके अनुनय करता था कि गुरू जी इसको सुधारो। फिर गुरूजी का बेंत और हाथ दोनों का संयोग बच्चो को सुधारने के कार्य में लग जाते थे। जिससे प्रताड़ित होकर बच्चे को असमय ही पढ़ाई को तिलांजलि देना पड़ती थी फिर पालक के सामने गुरूजी का उत्तर होता था इसे सुधारने की बहुत कोशिश मगर इसके दिमाग में भूसा भरा सो अब यह नहीं पढ़ पाएगा।

इस तरह गुरूजियों की मार से लाखों बच्चें असमय ही स्कूल छोड़ने मजबूर होते थे। हमारे आसपास अब भी ऐसे अनेक लोग मिल जाते है जो गुरूजी जी मार से अंगभंग हो गए थे। तथा जिन्हें असमय ही पढ़ाई को छोड़ना पड़ा था। लेकिन शिक्षकों की प्रताड़ना को शायद पहले गंभीरता से नहीं समझा गया। पहले बडे़ और संयुक्त परिवार के चलते भी इस तथ्य को अनदेखा किया गया तथा माॅ बाप की अशिक्षा के चलते बच्चे को शिक्षित कराने के लिए पालकों की पूरी निर्भरता शिक्षकों पर ही रहती थी,सो शिक्षक गुरूर ब्रह्मा था। लेकिन बच्चों का कोमल मन गुरूओं की प्रताड़ना से जार जार हो जाता था। अतः गुरूओं की पिटाई से छात्रों का कभी भी हित नहीं हुआ।

इस संदर्भ में मनोविज्ञान भी कहता है कि भय और प्रताड़ना कभी भी सृजनता को जन्म नहीं दे सकती है और यह बच्चे के मानसिक विकास को अवरूद्व कर देती है। भय और डाट डपट से बच्चों में हकलाहट और हताशा जैसी मानसिक विकृतियाँ पैदा हो जाती जिसका अभिशाप जिंदगी भर भोगना पड़ता हैं। इस तरह पिटाई से बच्चे का कोई फायदा होता हो तो यह कोरी और भयावह गप्प है। शिक्षा मनोविज्ञान ने इस तथ्य को उजागर किया कि पिटाई से छात्र की भलाई नहीं हो सकती जिसके चलते सारे पश्चिमी देशों में इसे कड़ाई से रोका गया।

हमारे देश में भी इसे प्रतिबंधित किया गया। लेकिन पिटाई पर प्रतिबंध एवं शिक्षा के आधुनिकीकरण और प्राथमिक शिक्षा के लगभग निजीकरण से तथा शिक्षा तकनीक के प्रसार से बच्चों की पिटाई और प्रताड़ना में तनिक भी कमी नहीं आई। वरन मासूमों पर प्रताड़ना का कहर और गहरा हुआ है। अब बच्चों को शारीरिक प्रताड़ना के साथ मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। कहीं बच्चों को खाली क्लास में हेडडाउन करा दिया जाता है तो कहीं हिंदी बोलने पर नीलडाउन (घुटनाटेक) करा दिया जाता है। कहीं बच्चे से कहा जाता है कि वो बोलेन - आई एम डंकीं! प्राइवेट स्कूल की शोषित, अल्पवेतन में काम करती और काम के बोझ से दबी मेम अपनी खीज और गुस्सा बच्चों पर ही उतारती है और वो कभी उनका कान फोड़ देती है। और कभी हाथ में फेक्चर कर देती है।

इस तरह देशी गुरूजियों का गुस्सा लगातार बढ़ता जा रहा है। यह विचारणीय है कि ऐसा क्यों हो रहा है? इसका सीधा सा उत्तर है कि हमारे गुरूजी में ही कहीं न कहीं कोई कमी है जिसकी खीज बच्चों पर कहर बन जाती है। वास्तव में हमारे समाज में अब शिक्षक बनने की कोई नहीं सोचता है क्योंकि आर्थिक और सामाजिक रूप से यह अनाकर्षक पेशा है। अतः जब कहीं कोई काम नहीं मिल पाता है तब आदमी शिक्षक बनता है तो सबसे पहले तो उसके मस्तिष्क में हताशा और कुंठा का भाव रहता है जो बच्चे की तनिक सी गल्ती पर कहर बनकर टूटता है।

शिक्षक बनने के लिए शैक्षिक योग्यता के साथ मानसिकता का महत्तवपूर्ण स्थान रहता है व्यवस्था के चलते यह तय है कि मानसिक रूप से थका हारा आदमी ही शिक्षक बन रहा है। तथा शैक्षणिक स्तर पर भी शिक्षक बनने के पूर्व प्रशिक्षण, शिक्षा मनोविज्ञान और बाल मनोविज्ञान के अध्ययन को देश में गंभीरता से नहीं लिए जा रहा है। अतः उसके पास बच्चों की शरारतों और अवज्ञा से निपटने के लिए हाथ चलाने के अलावा कोई राह मालूम नहीं रहती है। अतः स्कूल में पैर रखने के पूर्व इन विषयों का ज्ञान शिक्षक को करा दिया जाए तो वह बच्चों के साथ क्रूरता से कभी भी पेश नहीं आएगा।

देशभर में गली गली में कुकुरमुत्ते की शक्ल मे उग आए निजी स्कूलों ने सस्ते और अपरिपक्व शिक्षक नियुक्त कर स्कूलों को यातनागृह में बदलने की प्रक्रिया को तेज किया है। अतः निजी स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति की परख की जाए। निजी स्कूलों में शिक्षकों के आर्थिक शोषण ने भी उन्हें कुंठित किया है।

अतः बालअधिकार आयोग को इससे जुड़ी संस्थाओं को इस बात पर मनन करना चाहिए कि स्कूलों से क्रूरता का अभिशाप मिटाना है तो शिक्षकों की स्थिति और अवस्था सुधार जरूरी है

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