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गरीबी के आंकलन पर भारत के योजनाकारों के नाम एक खुला पत्र

गरीबी के आंकलन पर भारत के योजनाकारों के नाम एक खुला पत्र




प्रिय (?) अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सभी सदस्य
भारत का योजना आयोग,
नई दिल्ली,

योजना आयोग द्वारा 19 मार्च 2012 को भारत में गरीबी के आंकड़ों के सन्दर्भ में जारी की गयी रिपोर्ट के तारतम्य में मैं एक नागरिक की हैसियत से यह पत्र लिखने से अपने आप को रोक नहीं पाया. मुझे लगता है कि देश के लिए योजनाओं का निर्माण करने वाले अर्थशास्त्रियों का वंचित तबकों के प्रति उपेक्षित नजरिया हमारे देश के लोकतंत्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है. यह पत्र राजनीति या अर्थशास्त्र के सिद्धांतों का वर्णन नहीं है, यह मौजूदा सत्ता के खिलाफ दिल की बातें हैं.

ऐसा लगता है कि डाक्टर अभी अभी आपरेशन थियेटर से बाहर निकले है, और प्रफुल्लित होकर कह रहे हैं - आपरेशन सफल रहा पर मरीज़ मर गया!!!

जब आप यह कहते हैं कि देश में 7.3 प्रतिशत गरीबी कम हो गयी है तब इसका मतलब यह है कि देश में 5 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से बाहर आ गए हैं. जब आप यह कहते हैं कि गाँव में एक व्यक्ति 222 रूपए और शहरों में 28 रूपए खर्च करके जीवित रह सकता है और यह सरकार का विश्वास है; तब मैं अपने देश के राजनीतिक नेतृत्व में अपने विश्वास को डगमगाते हुए पाता हूँ. मेरा यह विश्वास है कि आपको भी गरीबी की परिभाषा का कोई अंदाजा है ही नहीं. 20 सितम्बर 2011 को सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल अपने शपथ पत्र में आपके समूह ने कहा था कि देश में 26 और 32 रूपए (गाँव और शहर) से कम खर्च करने वाले लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं, अब आपने कह दिया कि नहीं 22 और 28 रूपए से कम खर्च करने वाले लोग गरीब हैं. इसका क्या मतलब है? हमारा मौजूदा नीति निर्माता समूह एक प्रयोग कर रहा लगता है कि देखो किस हद तक वंचितों का गला मसका जा सकता है, कभी ज्यादा मसको , कभी थोड़ी धी दो; परन्तु गले को दबा कर रखो.

गरीबी कम करने के नए तरीकों के आविष्कार के लिए योजनाकारों का सम्मान होना चाहिए. उन्होंने हमें यह बताया है कि बिना हथियारों का उपयोग किये और बिना लाल रंग का खून बहाए किस तरह से समाज के सबसे बड़े वंचित तबके - गरीब, को ख़त्म किया जा सकता है. हमें आपके सामने नतमस्तक हो जाना चाहिए कि संविधान में योजना आयोग का कहीं कोई जिक्र नहीं है परन्तु आप इसके बावजूद देश की संसद से ऊपर हो गए. आप पंचवर्षीय योजना बनाते हैं, यह तय करते हैं कि देश के 5 लाख करोड़ रूपए किस तरह खर्च होंगे और गरीबी के परिभाषा भी तय करते है और आपको संसद के सामने भी नहीं जाना पड़ता. संसद में जो सरकार कहती है, आप उसके उल्टा कहते और करते है; पिछले साल वित्त मंत्री जी ने कहा कि मंहगाई के कारण 5 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे चले गए; पर आपने घोषणा कर दी कि नहीं, 5 करोड़ लोग गरीबी की रेखा के ऊपर चले आये हैं.

आपकी ताकत का अनुमान इसलिए भी लगता है क्यूंकि आप कारपोरेट, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संगठनों और धनिकों के पक्ष में खडे होकर भी सरकार को कोई निर्णय नहीं लेने देते हैं. आपने यह साबित करने की भरसक कोशिश की है कि गरीबी अर्थशास्त्र के कुछ आंकड़ों का खेल है; इससे ज्यादा कुछ नहीं. आप जानते हैं कि आय को मापदंड बनाने से गरीबी का स्तर बढ़ जायेगा; इसलिए आप आय के बजाये केवल खर्च को मानक बनाते हैं. आप सरकारी अफसरों के लिए मंहगाई की दर कुछ और रखते हैं गरीबी की परिभाषा के लिए कुछ और. आपने यह चुनौती कभी स्वीकार नहीं की कि 22 और 28 रूपए में आप एक दिन जिन्दा रहने का प्रयोग करके दिखाएँ. हमारे लिए गरीबी नहीं आप और आपकी गरीबी की रेखा की परिभाषा सबसे बड़ी चुनौती है.

हमें इंतज़ार है जब आप यह बताने लगेंगे कि लोग कितने प्रतिशत भूखे होंगे तब उन्हे भूखा माना जाएगा!!
मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि योजना आयोग के अध्यक्ष की हैसियत से आपकी बात सुनूँ या प्रधानमंत्री की हैसियत से; अभी कुछ दिन पहले आप ने कहा कि कुपोषण हमारे लिए राष्ट्रीय शर्म का विषय है और कुल 63 दिनों बाद आप कह रहे हैं कि गरीबी कम हो गयी? यह विरोधाभास करोड़ों लोगों के लिए जानलेवा रोग से बड़ा संकट है.

एक विरोधाभास यह भी है कि 10 लाख रूपए कमाने वाले से भी आप 30 प्रतिशत की दर से आयकर लेते हैं और 1000 करोड़ रूपए कमाने वाले से भी. यह किस तरह का समाजवाद ला रहे हैं आप?

यदि आप कह रहे हैं कि गरीबी कम हुई है तो इसका मतलब है कि इतनी लोग पिछले सालों में भूख और गरीबी के कारण मर गए हैं; क्यूंकि देश में ऐसा तो कुछ नहीं हुआ जिससे लोग गरीबी के मकद जाल से बाहर आ जाएँ. आपने रोज़गार गारंटी योजना लागू की पर 3 साल में ही यह भी तय कर लिया कि मजदूरों की मजदूरी नहीं बढ़ाई जायेगी. अभी की औसत मजदूरी 110 रूपए है यानी एक सदस्य को सरकार ही 22 रूपए के मान से दी जा रही है. और आपने राजों पर भी मजदूरी बढाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है; पर कह रहे हैं कि फिर भी गरीबी कम हुई है.

हमारी सरकार केवल गरीबों के प्रति निष्ठुर है, अमीरों और पूंजीपतियों के प्रति नहीं. वे तो कितनी भी लूट मचा सकते हैं. 16 मार्च 2012 को ही वित्त मंत्री जी ने बताया कि वर्ष 2011-12 यानी इस वित्त वर्ष में सरकार ने अमीरों को 5,80,724 करोड़ रूपए के करों की छूट दे दी. यह सरकार के राजस्व का नुकसान है. वास्तव में 1,39,744 करोड़ रूपए की एक्साइज ड्यूटी वसूल की गयी पर छूट दी गई 1,92,227 करोड़ रूपए की; कस्टम ड्यूटी के रूप में कुल राजस्व मिला 1,35, 789 करोड़ का पर छूट दी गयी 1,72,740 करोड़ रूपए की. इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि सार्वजनिक धन से अमीरों के निजी खाते भर दो इससे गरीबी कम होती है. यह हमारे मौजूदा नीतिकारों का नया सिद्धांत है.

अब मुझे लगता है कि आपने हमारे देश की जनगणना के परिणाम नहीं देखें हैं. मैं बताता हूँ. देश के 67% लोगों तक बिजली की पंहुच है, 53 प्रतिशत लोगों को पीने का साफ़ पानी नहीं मिलता है, २० प्रतिशत लोग बेघर हैं, 50 फ़ीसदी लोग खुले में शोच जाते हैं, 71 प्रतिशत लोगों की खाना पकाने की गेस तक पंहुच नहीं है, 51 प्रतिशत लोगों के रहवास ऐसी जगह पर हैं वहां जल निकास के लिए नाली नहीं है. केवल 3 प्रतिशत के पास इन्टरनेट सहित कंप्यूटर सिस्टम है.

योजना आयोग ने ही स्वास्थ्य के मुद्दे पर एक उच्च स्तरीय समूह (2011) गठित किया था, जिसने बताया कि देश में स्वास्थ्य पर 2500 रूपए प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष खर्च होता है, जिसमे से सरकार केवल 675 रूपए खर्च करती है. शेष लोगों को अपनी जेब से खर्च करना होता है.

आपकी प्राथमिकता में देश की गरीबी कम करना तो है ही नहीं! आपने रक्षा विभाग के लिए पिछले साल के बजट में 30000 करोड़ रूपए की बढौतरी करके 1.94 लाख करोड़ रूपए का आवंटन किया, और कृषि के लिए 20822 करोड़ रूपए ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए भी 20000 करोड़ रूपए; हमें पता है कि रक्षा का बजट देश की रक्षा के लिए कम और श्री बराक ओबामा के पिछली यात्रा के दौरान अमेरिका से 60000 करोड़ रूपए के रक्षा सौदों का व्यापार करने के लिए किये गए वायदे को पूरा करने के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण है.
आप कैसे कह रहे हैं कि देश खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर है. वर्ष 1961 में हमारे पास प्रतिव्यक्ति 399.7 ग्राम अनाज की उपलब्धता थी आज 407 ग्राम है. तब एक व्यक्ति के लिए 69 ग्राम दालों की उपलब्धता थी अब 39 ग्राम रह गयी है. हम तो इसे भूख के विस्तार के रूप में ही देखते हैं.

स्वतंत्र के बाद से कभी भी फुटकर व्यापारियों के लिए कोई नीति और व्यवस्था नहीं बनी, पर जब दुनिया के पूँजीपतियों ने कहा तो आप किसी भी कीमत पर देश के भारी विरोध के बावजूद किराना और फुटकर व्यापार में 100% विदेशी निवेश की अनुमति देने के लिए ख़ुशी-ख़ुशी राज़ी हो गए. अब तो आप कुछ महीनों में गरीबी को शून्य पर ला देंगे, अपने इस निर्णय के आधार पर. क्या सभी गरीबों को सस्ता राशन मिलने लगा, क्या सभी को मुफ्त इलाज़ और दवाएं मिली, क्या सभी को सुनिश्चित और ऊँची दर पर रोज़गार के अवसर सुनिश्चित हो गए? नहीं! एक तरफ तो 78 प्रतिशत को पूरा पोषण नहीं मिल रहा है दूसरी तरफ सरकार कह रही है कि अब 30 प्रतिशत लोग गरीब रह गए हैं.

मुझे अचम्भा होता है जब एक दिन आप यह कहते हैं कि गरीबी कम हो गयी है और दूसरे दिन यह कहते हैं कि इन आंकड़ों में बहुत सी खामियां हैं; और एक दिन कहा था कि इनका उपयोग सामाजिक योजनाओं और हकों के निर्धारण में नहीं किया जाएगा परन्तु आपने प्रस्तावित राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा विधेयक के लिए इसे ही मूल मानक माना है. आप गरीबों पर सरकारी खर्च कम करते जाना चाहते हैं और गरीबी के आंकड़ों को कम करके बताना चाहते हैं कि निजीकरण-उदारीकरण की नीतियां सफल हुई है. कृपया यह अमानवीय खिलवाड़ बंद कीजिए.
हमें तो यह साफ़ नज़र आता है कि इस तरह के विवाद सोच समझ कर खडे किये जा रहे हैं; ताकि जमीन, जंगल, पानी और सरकारी-सामुदायिक संसाधनों की लूट पर से सबका ध्यान हट जाए. आप यह स्थापित करना चाहते हैं कि पूँजी पतियों की गुलामी और बंधुआपन ही वृद्धि के मूल सिद्धांत हैं.

आपको इसलिए भी सम्मानित किया जाना चाहिए क्यूंकि आपने कुछ लोगों के विकास और ज्यादातर लोगों की गरीबी को एक साथ बरकरार रखने का कारनामा किया है.




सचिन कुमार जैन
एक जिम्मेदार नागरिक

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