एनके सिंह
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विश्व बैंक ने ‘दक्षिण एशियाई छात्रों में ज्ञान’ शीर्षक ताजा रिपोर्ट में कहा है कि भारत
सहित दक्षिण एशियाई देश शिक्षा पर खर्च तो कर रहे हैं पर शिक्षण की गुणवत्ता खराब
होने की वजह से इन देशों का आर्थिक विकास ही नहीं अवरुद्ध हो रहा है बल्कि इससे
युवाओं में बेरोजगारी-जनित गरीबी भी बढ़ रही है।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि
भारत सहित दक्षिण एशियाई देशों के कक्षा पांच के विद्यार्थी सामान्य माप-तौल, दो-अंकों का जोड़-घटाना,
अपनी बात को वाक्य में लिख कर समझाना या शुद्ध
वाक्य लिखना तक नहीं जानते। न ही वे सौ तक के अंकों या पूरी ककहरा (संपूर्ण
वर्णमाला) का ज्ञान रखते हैं।
उधर बिहार सरकार ने पिछले सप्ताह पाया कि
प्राइमरी स्तर पर जिन 1.50
लाख शिक्षकों की संविदा (कॉन्ट्रैक्ट) के आधार
पर नियुक्ति कुछ साल पहले की गई थी उनमें से जब पचास हजार की जांच की गई तो उनमें
से बीस हजार की डिग्रियां या सर्टिफिकेट फर्जी थे। जो सबसे ज्यादा चौंकाने वाली
बात है वह यह कि शिक्षक की नियुक्तियों में अधिकारियों, मुखियाओं ने जमकर पैसे कमाए हैं और अधिकतर नियुक्तियां डेढ़ लाख से दो लाख
रुपए घूस लेकर की गई हैं। उस पर तुर्रा यह कि इस मामले के संज्ञान में आने के बाद
भी केवल कुछ मुखियाओं को हटाया गया लेकिन किसी भी स्तर के एक भी अधिकारी के खिलाफ
कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में इस युवा शक्ति का जिक्र किया और विश्वास जाहिर किया कि विश्व पटल पर यही
शक्ति भारत को आगे ले जाएगी। लेकिन शायद इस शक्ति को वास्तव में उपादेय बनाने के
लिए एक नई क्रांति का आगाज करना होगा देश की शिक्षा नीति में। अन्यथा विश्व बैंक
की रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है कि यह शक्ति एक बोझ बन जाएगी देश की छाती
पर।
हाल ही में एक बड़े मीडिया शिक्षा संस्थान में भर्ती के लिए आयोजित एक इंटरव्यू में पाया गया कि जो छात्र-छात्राएं
पत्रकारिता में परास्नातक (पोस्ट ग्रेजुएशन) में दाखिले के लिए आए उनमें नब्बे
प्रतिशत को यह नहीं मालूम था कि प्रधानमंत्री का चुनाव कैसे होता है। कई छात्रों
को नेहरू और इंदिरा गांधी में क्या संबंध थे नहीं मालूम था और लगभग पंचानबे
प्रतिशत भारत के पांच पूर्व राष्ट्रपतियों के नाम नहीं बता पाए। लगभग इतने ही
तुलसीदास को नहीं जानते थे और अगर इक्के-दुक्के ने बताया भी तो यह कह कर कि इनका
एक ‘रामायण’ नामक सीरियल से संबंध है।
भारत प्रतिवर्ष अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.2 प्रतिशत (दो लाख सत्तर हजार
करोड़ रुपए, जिसमें से पैंसठ हजार करोड़ रुपए केवल केंद्र सरकार
का बजट है) शिक्षा पर खर्च करता है। दबाव यह है कि इसे कम-से-कम ढाई गुना किया
जाए। हालांकि कुछ राज्य जैसे बिहार और उत्तर प्रदेश यह दावा तो करते हैं कि इनके
यहां पंजीकरण (एनरोलमेंट) का प्रतिशत नब्बे से सत्तानबे हो गया है, पर इसका कारण शिक्षा के प्रति समाज में रुझान न होकर छात्रों को मिलने वाली
मदद (वस्तु या नकद के रूप में) और मध्याह्न भोजन है।
गैर-सरकारी संस्था ‘प्रथम’
की पिछले पांच वर्षों की रिपोर्ट (असर) लगातार इस बात को पुरजोर तरीके से उठा रही है कि ‘बीमारू’ राज्य खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्यप्रदेश में कक्षा पांच के बासठ प्रतिशत विद्यार्थी कक्षा दो
का ज्ञान नहीं रखते और सामान्य जोड़-घटाव भी नहीं कर पाते। पर शायद राज्य सरकारों
के भ्रष्ट और निकम्मे तंत्र को केंद्र से मिलने वाले अनुदान या वोट की राजनीति से
ज्यादा लगाव है।
बिहार की नीतीश सरकार ने स्कूली छात्रों को
मुफ्त साइकिल देना चुनाव का मुद्दा बनाया बगैर यह सोचे हुए कि राज्य में जो पौध
लगाई जा रही है वह राष्ट्रीय स्तर पर जब नौकरी के बाजार में जाएगी तो कोई उन्हें
नहीं पूछेगा। और तब आरोप लगेगा कि कि देश में अस्सी प्रतिशत ग्रेजुएट बेरोजगार
हैं। इन राज्यों में शिक्षण की गुणवत्ता बेहद खराब रही है। और ऐसा नहीं है कि इन
राज्यों के मुखिया यह सब नहीं जानते।
‘असर’ ने शिक्षा को लेकर अधिकारियों और शिक्षकों की आपराधिक उदासीनता और चालाकी पर दो वर्ष पहले
उत्तर प्रदेश के जिले का एक किस्सा बयान किया। हेडमास्टरों की एक बैठक में एक
सरकारी अधिकारी ने कहा ‘सभी बच्चों का दाखिला लें; उनके साथ मारपीट न करें;
उन्हें पास करके अगली कक्षा में भेजें और
सुनिश्चित करें कि वे अगले साल भी दाखिला लें और अगर आप ऐसा कर लेते हैं तो यह तय
मानिए कि आपने शिक्षा के अधिकार के तहत मिले अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।’
अधिकारी के इस आदेश के पीछे छिपा
संदेश स्पष्ट था। संकेत यह था कि बच्चा पढ़ने आए न आए, रजिस्टर में नाम होना चाहिए;
पढ़ाने की कोई जरूरत नहीं है; और अगले साल भी यही काम करना है ताकि येन-केन-प्रकारेण ‘लक्ष्य’ हासिल हो सके।
व्यापक रूप से किए गए
इस सर्वेक्षण में सरकार के तमाम दावों के खोखलेपन को उजागर किया गया है। अध्ययन में इस बात
को भी दर्शाया गया है कि किस तरह से बीमारू राज्य (बिहार, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और साथ ही
साथ उत्तराखंड और छत्तीसगढ़) शिक्षा के क्षेत्र में लगातार पिछड़ रहे हैं। भारत
सरकार ने प्राथमिक शिक्षा के बजट को बढ़ाते हुए 68,710 करोड़ (2007-08) से बढ़ा कर 97,255 करोड़ (2009-10) कर दिया, लेकिन ऐसा लग रहा है कि इन सारे
प्रयासों पर संबंधित राज्य सरकारों के भ्रष्ट-तंत्र ने पानी फेर दिया है। दरअसल, शिक्षा देने की जिम्मेदारी
संवैधानिक रूप से ही नहीं, व्यावहारिक रूप
से भी राज्य सरकारों की ही है।
‘असर’
की रिपोर्ट देखने के बाद यहां
प्रश्न उठता है कि क्या इसी किस्म के प्रयासों से
हम चीन जैसे राष्ट्रों से मुकाबला कर सकेंगे। आज भारत में जहां उच्च-शिक्षा के लिए
केवल साढ़े तेरह प्रतिशत छात्र दाखिला (जीइआर) ले रहे हैं, वहीं चीन और मलेशिया- जो हमसे काफी पीछे रहा करते
थे- के 22.1 और 24
प्रतिशत छात्र आज उच्च शिक्षा में दाखिला लेते हैं।
जबकि अमेरिका में उच्च-शिक्षा में 81.6
प्रतिशत छात्र प्रवेश लेते हैं। एक और उदाहरण देखिए।
आज से अठारह साल पहले जहां चीन में केवल उन्नीस सौ पीएचडी हुआ करते थे (जबकि भारत
में करीब तीन हजार पीएचडी होते थे) आज बाईस हजार पीएचडी हर साल निकलते हैं। भारत
में केवल छह हजार पीएचडी निकल रहे हैं जबकि अमेरिका में चालीस हजार। अगर यही
स्थिति रही तो भारत ‘पॉवर इज नॉलेज’
(ज्ञान ही शक्ति है) की दौड़ में कितना पीछे रहेगा
इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
‘असर’
की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश,
बिहार,
मध्यप्रदेश में कक्षा पांच में आधे से ज्यादा
छात्रों को कक्षा दो का ज्ञान नहीं रहता,
वे गणित से घबराए हुए हैं। दाखिले के जो आंकड़े राज्य
सरकारों के हैं, खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार के, वे ‘असर’
के आंकड़ों के मुताबिक फर्जी हैं।
विश्व बैंक की तीन दिन पहले जारी
रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत और पाकिस्तान सहित दक्षिण एशिया के कई देश हैं
(श्रीलंका को छोड़ कर) जिनमें शिक्षक का ज्ञान उस प्राइमरी स्कूल के विद्यार्थी के
ही समकक्ष होता है।
रिपोर्ट के अनुसार सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत और पाकिस्तान के
प्राइमरी स्कूल के शिक्षक को जब उसके द्वारा पढ़ाए जाने वाले विषय के कुछ सवाल दिए
गए तो वे उन्हेंहल नहीं कर पाए,
यानी उन्हें सामान्य जोड़-घटाव के सवाल नहीं आते थे।
यही वजह है कि न तो शिक्षक को पढ़ने की सलाहियत है न ही विद्यार्थियों को पढ़ने में
दिलचस्पी। शिक्षक का भी काम मात्र मध्याह्न भोजन बांटना होता है और अगर जुगाड़ लगे
तो उसके मद में आए पैसे हजम करना। बाकी काम कागजों पर।
हाल में बिहार के एक गांव में जब एक युवा ग्राम प्रधान ने पांचवीं कक्षा के
विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति देने के लिए उन्हें स्वयं कतार में लगवाया तो
चौंकाने वाला तथ्य सामने आया और पता चला कि एक कक्षा के 95 में से 91
विद्यार्थी अपना नाम नहीं लिख पाते।
जाने-माने शिक्षाविद डॉ दौलत सिंह
कोठारी ने 1964-66
में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष के रूप में अपनी चर्चित रिपोर्ट ‘राष्ट्रीय प्रगति के लिए शिक्षा’ तैयार की और यह रिपोर्ट देश की शिक्षा नीति का
महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बनी। पच्चीस वर्षों बाद जब उनसे पूछा गया कि अगर वे फिर से
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग के अध्यक्ष बने तो क्या यही रिपोर्ट देंगे। उन्होंने बेबाकी
से कहा ‘मैं उसमें आमूलचूल परिवर्तन करूंगा और नई रिपोर्ट का
मूलमंत्र होगा- चरित्र निर्माण के लिए शिक्षा।
कोठारी की वेदना समझना मुश्किल नहीं है। जो छात्र-छात्राएं-
नेहरूराष्ट्रपति थे या प्रधानमंत्री या इंदिरा गांधी पहले हुर्इं या नेहरू-नहीं
जानते, वे अच्छे सॉफ्टवेयर इंजीनियर होंगे इसमें शक है। जो
युवा महाकवि तुलसी को ‘रामायण’
सीरियल से जानता होगा उसके लिए मंदिर बने तो ठीक न
बने तो ठीक, सीरियल चलते रहना चाहिए। कैसे इस युवा से सामाजिक
परिवर्तन की उम्मीद की जाएगी। दरअसल,
बलात्कार के खिलाफ इंडिया गेट पर मोमबत्ती जलाना कुछ
लोगों के उत्तम सोच की उपज तो हो सकता है पर इसे पूरे समाज की धारा नहीं मान सकते।
अण्णा के आंदोलन की असमय मृत्यु इसका ताजा उदाहरण है। यह अपेक्षा करना कि ऐसी उथली
शिक्षा देकर हम देश का चरित्र निर्माण करेंगे,
जिसमें भ्रष्टाचार और बलात्कार नहीं होगा, अपने को मृगमरीचिका का शिकार बनाना होगा। वे
अच्छे नागरिक तो नहीं ही होंगे,
खासकर ऐसे नागरिक जो देश में भ्रष्टाचार या बलात्कार
के खिलाफ लंबे समय तक आवाज उठाएं,
यानी न करें न करने दें।
चूंकि शिक्षा मूल रूप से राज्य का
विषय है इसलिए केंद्र सरकार राज्यों से
अनुनय-विनय ही कर सकती है या वित्तीय मदद पर कुछ अंकुश लगा सकती है। लेकिन राज्य
सरकारों की गैर-जिम्मेदाराना और कुछ हद तक आपराधिक उदासीनता देश के विकास के
प्रयासों को नीचे लाने के लिए काफी होगी।
जनसत्ता 12 जुलाई, 2014 से साभार
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