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मामला आदिवासी महिलाओं के लकड़ी का गट्ठर ढोने का

[ मध्य प्रदेश के रीवा जनपद का पठारी इलाका (पाठा क्षेत्र) में लकड़ी ढोने वाली आदिवासी महिलाओं की स्थिति पर साथी माता दयाल की रिपोर्ट।]




रीवा जिले का जनपद पंचायत जवा का क्षेत्र जंगल तथा पहाडों से ढका हुआ है। यहां विंध्याचल पर्वतमाला की श्रेणियां है यह क्षेत्र दलित, आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र है। गरीबी और बेरोजगारी के कारण शोषण उत्पीड़न बहुत ज्यादा है। यहां जीवन जीने की सुविधायें बहुत कम है। सरकारी की विकास योजनायें यहां नाकारा सिद्व हुई हैं । सबसे ज्यादा शोषण यहां महिलाओं तथा बच्चों का हुआ है। कोई टिकाउ रोजगार न होने के कारण यहां की महिलायें जंगल से सूखी लकड़ियां काट-बीन कर गट्ठर बनाती हैं । फिर उस गट्ठर को ट्रेन द्वारा ५० से १०० कि.मी. दूर कस्बा / शहर में ले जाकर बेचती हैं । जो पैसा मिलता है उससे मोटा अनाज (चावल की कन्की आदि) खरीद कर जब वापस घर आती है तब उनका चूल्हा जलता है। उत्तरप्रदेश व मध्यप्रदेश से अधिकतर आदिवासी महिलायें इस तरह से लकड़ी का काम करती हैं। इनको जलालत भरी जिदंगी जीना पड़ता है। ट्रेन के सफर में महिलाओं की जान भी जोखिम में रहती है।


महिलाओं का गट्ठर ढोने बेचने का यह धंधा करीब ३० साल से चल रहा है। जब से जंगल में लकड़ी के कटान में रोक लगी तभी से इस धंधे की शुरूआत हुई, इसके पहले जंगल का ठेका स्थानीय ठेकेदार लेते थे और वह कटान की एक-एक इंच लकड़ी को बाजार ले जाते थे। तब यह आदिवासी एवं दलित जंगल से लकड़ी नहीं ला पाते थे। मार्केट की सप्लाई ठेकेदार ही करते थे। ठेका बंद होने के बाद लकड़ी गट्ठर का धंधा धीरे-धीरे अन्य इलाकों में भी फैल गया तथा गरीबों की आजीविका का आधार बन गया।



लकड़ी के गट्ठर कैसे बनते हैं - यह धंधा उन जंगली गांवों में ज्यादा है जो रेल्वे स्टेशन के आसपास है, घर के पुरूष सदस्य और महिलायें कुल्हाड़ी लेकर आसपास के जंगल में भोर तड़के समूह में निकलकर जाते हैं और वहां चार-छ: घंटे में एक गट्ठर लकड़ी एकत्र कर के फिर उसे सिर पर रख कर घर लाते हैं । घर में महिलाओं के स्वास्थ्य व उम्र को देखते हुए २० किलो से लेकर ५० किलोग्राम वजन तक के गट्ठर बनाये जाते हैं। घर के पुरूष गठ्ठर को रेल्वे स्टेशन तक रेल में चढ़ाने जाते हैं। रेल में चढ़ाने के बाद आगे का सफर की जिम्मेदारी महिलाओं की होता है। पुरूष रेल में गट्ठर चढ़ाकर घर वापस आ जाते हैं।



गट्ठर का सफरनामा- रेल मे गट्ठर चढ़ाने में बड़ी मुश्किल होती है, काफी मात्रा में लकड़ी के गट्ठर चढ़ाए जाते हैं। इन्हें यात्री व अन्य लोग भी चढ़ने से रोकते हैं। रेल के दरवाजे खिड़की भी लोग बंद कर लेते हैं। ऐसी अवस्था में तमाम महिलायें गट्ठर सहित स्टेशन पर ही रह जाती है और फिर वो पूरे दिन दूसरी रेलगाड़ी का इंतजार करती है। अपने पास में जो नमक रोटी लिये होती हैं, उसी को स्वयं खाकर व गोदी के बच्चे को खिलाकर भूख को शांत करती हैं। यह लगभग हर मौसम में होता है।



रेल में गट्ठर चढ़ने के बाद डियूटी में लगे जी.आर.पी. एवं आर.पी.एफ. के सिपाही हर डिब्बे में आते है और प्रत्येक गट्ठर का दो रूपये वसूलते हैं । यह उनका बंधा -बधाया रेट है जिसे हर आदिवासी महिला जानती है। इसलिये पहले से अपनी धोती के आंचल वाले छोर में अपने गट्ठर के हिसाब से फुटकर रूपया बांधे रहती है। रूपया न देने पर ये पुलिसवाले उनके गट्ठर नीचे उतारने की धमकी देते हैं , कई बार गट्ठर फेंक भी देते हैं। रेल के, कस्बा स्टेशन पर पहुंचने पर वे अपना गट्ठर लेकर नियत दुकान पर जाती है और वहां तौल में ४ या ५ रूपये किलो की दर से बेचकर जो भी रकम मिलती है उससे जरूरत की चीजें और राशन खरीदती हैं।



शोषण का दायरा बड़ा होता है। रेल में चढ़ाने पर टी.टी.ई. भी इनसे एक रूपये गट्ठर लेता है, वापस आने पर स्टेशन उतरते ही वन विभाग का वाचर व फारेस्ट गार्ड इनसे एक रूपया प्रति गठठर की दर से अपनी रकम वसूलता है। जो महिला पैसे नहीं देती हैं दूसरे दिन उनका गट्ठर नहीं चढ़ने दिया जाता है या फिर जंगल का रास्ता बंद कर देते हैं । इस प्रकार प्रति महिला को चार रूपये प्रति गठ्ठर की दर से पुलिस, रेल्वे फारेस्टगार्ड के कर्मचारियों को देना पड़ता है।



जब रेल के डिब्बे मे गट्ठर नहीं चढ़ पाते तब कभी कभार ये महिलाएं डिब्बों के ज्वाइंट में गट्ठर लादने का खतरा भी उठाती हैं। ऐसे सफर करते हुए कई महिलायें ट्रेन में अपनी जान गंवा चुकी है। कई के अंग-भंग भी हो गये हैं , रेल में हर उम्र की महिलायें लकड़ी का गट्ठर ढोती हैं, इनमें बूढ़ी, जवान व लड़कियां भी है। कई बार तो रेल में या स्टेशन आने के रास्ते में ही गर्भवती महिलाओं के बच्चे पैदा हुए हैं । जवान लड़कियों व महिलाओं के साथ छेड़छाड़ भी होती है। सम्पूर्ण पठारी इलाके में 6 स्टेशन हैं जहां से दिन रात में जाने वाली गाड़ियों में लकड़ियों के गट्ठर चढ़ते है पैसेंजर गाड़ियों में यह धंधा ज्यादा होता है फिर जो ट्रेन मिल जाय उसी में गट्ठर चढ़ा दिए जाते हैं।



रेलगाड़ी मे अपनी डयूटी लगवाने के लिये जी.आर.पी. के सिपाही अपने थाने में डयूटी मुंशी को रिशवत देते हैं और अपनी डयूटी लगवाते हैं, क्योंकि वे लगभग एक हजार रूपये एक ट्रेन डिलीबरी में कमा लेते हैं।
इस इलाके के दूर-दराज के कुछ गांव ऐसे हैं जहां से महिलायें १०-१२ कि.मी. का सफर सिर पर गट्ठर लेकर तय करती हैं वे सीधे डभौरा, जवा, त्योंथर रामबाग में पैदल पहुंच कर सस्ते में लकड़ियां बेचकर वापस घर जाती है।



गॉंव घरों में सम्पन्न तबके के यहां स्थानीय आदिवासी महिलायें यदि लकड़ी का गट्ठर लेकर जाती है तो उन्हें बदले में घर की औंरते २-३ किलो अनाज या फिर दाल, बासी खाना फटा पुराना कपड़ा दे देती हैं ।



जंगल से लकड़िया लाने में कई बार उनका जंगली हिंसक जानवरों जीवों से सामना हो जाता है इनमें जंगली भालू के हमले की कई घटनायें हो चुकी है। सांप बिच्छू भी काट लेते हैं ।



कभी-कभी वन विभाग व रेलवे स्टेशन के कर्मचारी -अधिकारी अपनी खानापूर्ति के लिये ट्रेन के समय स्टेशनों पर छापा डालकर गट्ठर खेंचने का काम करते हैं , उस समय यह महिलायें सिर में गट्ठर लिये बगल में बच्चा दबाए इधर से उधर दौड़ती हैं, वनकर्मी इन्हें डंडों से मारते हैं। सिर पर गट्ठर लिये इनको ढकेल देते है जिससे बच्चे व गट्ठर सहित महिला औंधे मुंह गिर जाती है। लकड़ी ढोने में महिलायें इसलिये लगी हैं क्योंकि रोजगार के विकल्प न होने के कारण यह काम करना उनकी मजबूरी है।

दूसरी ओर कुछ अधिकारी -कर्मचारी कृपा भाव दिखाते हुए इन्हें औरत व गरीब समझकर छोड़ देते हैं। इनके परिवार के मर्दो का कहना है कि अगर हम गट्ठर लेकर जायें तो रेल वाले बिना टिकट पकड़ लेगें। आम तौर पर सफर में औंरतों के साथ ऐसा नहीं करते ।



चित्रकूट जनपद से लेकर रीवा जनपद के 150 गांवों की करीब 2000 महिलायें ट्रेन से गट्ठर ले जाने के कार्य में लगी हैं। वह एक दिन जब लकड़ी बेचकर लौटती है उसके दूसरे दिन जंगल जाती है फिर अगले दिन वह शहर जाती है। जिन परिवारों में पुरूष प्रतिदिन लकड़ी लाते हैं उनकी महिलायें रोजाना लकड़ी बेचने जाती हैं।



इधर चार-पॉंच वर्षो से झांसी, महोबा, सतना, कटनी आदि दूर के शहरों से कुछ महिलायें, 15 से 20 रूपये थोक में इन "कोल " औरतों से स्टेशन या ट्रेन में गट्ठर खरीद कर ले जाती है। और मंहगे भाव में बेचती है इन थोक खरीददार महिलाओं के गठठर स्टेशन से रेल में चढ़ाने की जिम्मेदारी विक्रेता कोल आदिवासी परिवार की ही होती है, जी.आर.पी. के सिपाही इनसे रेल में 3 रूपये गटठा बसूलते हैं।



ये दलित- आदिवासी महिलायें इस जलावन वाले लकड़ी के धंधे सेऊब तो चुकी है मगर इसका कोई विकल्प नहीं है, अगर इन महिलाओं को क्षेत्र में कुछ रोजगार मिल जाये तो इससे निजात पा सकती है। क्योंकि तेंदूपत्ता सीजन में या महुआ बीनने के सीजन में जब 10 -15 दिन के लिये हर घर परिवार को काम मिलता है तब लकड़ी के गट्ठर ढोने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम हो जाती है।
इस काम में लगी औरतों का कहना है कि जो हमारे साथ बीतता है उसे हम किसी से कह नहीं सकते । क्योंकि भूख, इंसान से सब कुछ करा सकती है, गरीबी पत्थर से भी ज्यादा जड़ होती है।










(माता दयाल जी बिरसा मुंडा भू अधिकार मंच, खारा जिला रीवा , [मध्य प्रदेश ]के साथ काम करते हैं)

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