सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सरकार को गरीबों की मदद करनी है तो सीधे बच्चों के मां-बाप को करे । उन्हें राशन दे पर स्कूलों में पढ़ाई और अन्य रचनात्मक कार्य ही होने चाहिये । शिक्षामित्रों के सहारे या अयोग्य मृतक आश्रितों को अध्यापक बना कर शिक्षण कार्य नहीं किया जा सकता । अगर यह व्यवस्था उचित है तो इसे नीजि स्कूलों में क्यों नहीं लागू किया जाता ? शहरी मांयें पैरेंट्स डे पर अपने बच्चें की प्रोग्रेस जानने जाती हैं जबकि गांव की मांओं को कहा जाता है कि -'बारी, बारी मांयें आयें, जाचें, परखें तभी खिलायें ।'
16 जुलाई को छपरा जिले के एक प्राथमिक विद्यालय में मिड-डे-मील
खाने से बाइस बच्चों की मौत हो गई और 60 से अधिक
अस्पतालों में जीवन और मृत्यु के बीच उलझे हुए हैं । मिड-डे-मील खाने से बच्चों के
बीमार पड़ने या मरने की यह कोई पहली घटना नहीं है । छपरा जिले की घटना के अगले दिन
मधुबनी जिले में मिड-डे-मील खाने से 17 बच्चे
अस्पताल पहुंच गए ।
जब से
मिड-डे-मील नामक सरकारी लंगर शुरू हुआ है, ऐसे
समाचार आम हैं । गरीबों का दुर्भाग्य उनका पीछा नहीं छोड़ता । आज प्राथमिक
विद्यालयों में पढ़ाई के नाम पर मिड-डे-मील है । शिक्षा विभाग का करोड़ों का बजट, प्राथमिक शिक्षा और मिड-डे-मील के नाम पर, डकारने का काम हो रहा है । प्राथमिक विद्यालयों में हाजिरी
वृध्दि क़े बावजूद पढ़ाई के निम्न स्तर पर प्रधानमंत्री भी चिंता जता चुके हैं ।
वहां गरीबो के बच्चे वजीफा और 'मिड-डे-मील' के लालच में नाम लिखाते हैं, पढ़ने के
लिये नहीं । कई बच्चे तो दो-दो सरकारी विद्यालयों में नाम लिखाते हैं जिससे दो-दो
जगहों से वजीफा मिल सके । प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाने योग्य अध्यापक नहीं है ।
एकाध हैं भी तो पूरा दिन लंगर की तैयारी में निकल जाता है । ऐसे में जिन्हें अपने
बच्चों के पढ़ाने की चिंता हो, गांव-कस्बे
में खुले नीजि स्कूलों में जाएं, इस नीति
का मूल मकसद यही है ।
देश में लगभग सात लाख प्राथमिक अध्यापकों की कमी है । नियमित अध्यापकों की जगह अनुपयुक्त शिक्षा मित्र, शिक्षा के दुश्मन साबित हो रहे हैं । उन्हें खुद पढ़ने की जरूरत है, पढ़ायेंगे क्या ? हाजिरी वृध्दि तो इसलिये की जा रही है कि प्रधान और अध्यापक, 'मिड-डे-मील' का राशन और अन्य लाभ, सरकार से प्राप्त करते रहें ।
प्राथमिक शिक्षा को बर्बाद करने के पीछे चालाक मानसिकता है । निजी स्कूलों की लहलहाती फसल, जिनमें पैसों वालों के लड़के पढ लिख कर अपना भविष्य संवार रहे हैं, उनके विरूध्द विद्रोह न हो, इसके लिए जरूरी है वजीफा और खिचड़ी खिलाना। आखिर गरीब जनता को लगना चाहिए कि सरकार उनकी चिंता में गले जा रही है । चालाक लोग जानते हैं कि गरीबों को राष्ट्र की मुख्यधारा से बाहर करने के लिए जरूरी है, उन्हें शिक्षा से काट देना । एक तथाकथित लोकतांत्रिक देश में सीधे-सीघे ऐसा करना संभव नहीं, इसलिए यह सब मिड-डे-मील के बहाने किया जा रहा है । गरीब हितैषी दिखने के लिए बच्चों को टाई, बेल्ट, पोशाक और किताब मुफ्त में दिया जा रहा है । स्कूल चलो अभियान के नाम पर तमाम एन.जी.ओ. लाखों कमा रहे हैं । कहा जा रहा है कि शिक्षा पर कुल बजट का 4 प्रतिशत खर्च किया जा रहा है पर यादातर प्राथमिक स्कूलों में मात्र एक अध्यापक हैं वे भी स्कूल भवन बनवाने, 'मिड-डे-मील' का हिसाब-किताब लगाने में व्यस्त हैं । इनके अलावा जनगणना, पल्स पोलियो, चुनाव जैसे काम भी हैं । कई स्कूल तो बिना अध्यापक के चल रहे हैं । सच्चाई यह है कि अपने देश में गरीबों को शिक्षा नहीं दी जा रही, उन्हें कटोरा लेकर आने और 'मिड-डे-मील' खाने का झुनझुना पकड़ाया गया है । उन्हें ककहरा से आगे पढ़ने की जरूरत नहीं । वजीफा लें, खाना खायें, बिना अध्यापक के पढ़ें । उत्तीर्ण हों और नरेगा मजदूर बनें । अब अनुत्तीर्ण होने का संकट भी नहीं ।
अस्सी-नब्बे के दशक तक गंवई स्कूलों से पढ़े तमाम लड़के शासन-प्रशासन की धुरी बन जाते थे । इसी से बौखला कर शिक्षा देने की ऐसी नीति अपनाई गई कि मामला पलट जाये । आज गांव के पढ़े बच्चे उच्च या व्यावसायिक शिक्षा की ओर नहीं जा रहे । पहले पेड़ तले, बिना मिड-डे-मील खाये पढ़ाई हो जाती थी । अब तो बच्चों की टुकटुकी पक रही खिचड़ी की ओर रहती है । श्यामपट् पर गणित, विज्ञान या भाषा नहीं, पकवानों के नाम होते हैं । मुफ्त में खाना, किताबें, वजीफा, साइकिल, बस्ता, भूकम्परोधी भवन, सब कुछ देने का मकसद पढ़ाई देना नहीं है । वहां योग्य अध्यापक देने की कोई नीति नहीं बनाई जा रही है । सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के अलावा वह सब कुछ होता है, जिससे गरीबों को भरमाये रखा जाये । कक्षा आठ तक पढ़े लड़के तेरह का पहाड़ा नहीं सुना सकते । गरीबों को षिक्षा उपलब्ध कराने वाली सरकारी संस्थाएं जानबूझकर बीमार बना दी गई हैं और दूसरी ओर निजी पंचसितारा स्कूलों में दाखिले के लिये लाखों खर्च किये जा रहे हैं । वहां कम्प्यूटर, प्रोजेक्टर से शिक्षा दी जा रही है । एक को ककहरा दूसरे को आधुनिक शिक्षा, यही है सर्वशिक्षा नीति का मकसद । बेशक जनगणना रिपोर्ट में 74 फीसदी आबादी साक्षर हो गई हो पर यह साक्षरता मात्र नाम लिखने भर को है । ऐसी साक्षरता सामाजिक हस्तक्षेप के लिए कतई नहीं है ।
गरीबों की हिमायती सरकारें दोहरी षिक्षा नीति पर प्रहार क्यों नहीं करतीं ? समान नागरिकों को समान शिक्षा पाने का हक क्यों नहीं दिया जाता ? गुणात्मक षिक्षा से गरीबों को वंचित कर प्रतियोगिता परीक्षाओं से अलग करने की चाल है । प्रतियोगी परीक्षाओं का सारा ढ़ांचा पैसे वालों के लिए तैयार किया जा रहा है । देष में खुल रहे महंगे कोचिंग संस्थान और महंगी पुस्तकें गरीबों को दौड़ से बाहर कर रही है । गरीबों के बच्चे जिन प्राथमिक स्कूलों में खिचड़ी खाने के लालच में जाते हैं वहां पढ़ाई किसके सहारे होगी, एक बानगी देखिये । देष के 6,51,064 प्राथमिक स्कूलों में से 15.67 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में एक या एक भी षिक्षक नहीं हैं । जहां हैं वहां पढ़ाने के बजाए, खाना पकाने की तैयारी में लगे रहते हैं । छठे सम्पूर्ण भारतीय सर्वेक्षण में बीस फीसदी स्कूलों में सिर्फ दो अध्यापक पाए गए । सातवें सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राथमिक स्कूलों के कुल 25,33,205 पूर्णकालिक षिक्षकों में से लगभग 21 प्रतिषत अप्रषिक्षित हैं । यह विचार करने का विषय है कि जब स्कूलों में अध्यापक ही नहीं होंगे तब क्या खिचड़ी खिलाने से बच्चे पढ़ पायेंगे ? 2011 में लोकसभा में बताया गया कि देश में कुल 6.89 लाख प्राथमिक अध्यापकों की कमी है । इनमें से उत्तर प्रदेश में 1.4 लाख , बिहार में 2.11 लाख, म0प्र0 में 72,980, पं0बंगाल में 86,116, असम में 40,800, झारखंड में 20,745, पंजाब में 16,766 और महाराष्ट्र में 26,123 प्राथमिक अध्यापकों की कमी है । उत्तर प्रदेश में प्राथमिक शिक्षा से अंग्रेजी अनिवार्य कर दिया गया है । नौकरियों के लिए अंग्रेजी की अनिवार्यता की संस्कृति पैदा कर देने से सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी पढ़ाने का झुनझुना लोगों को लुभायेगा ही । ऐसे में अंग्रेजी पढ़ाने वाले अध्यापक भी तो चाहिए । अगर इस तथ्य को दृष्टि में रखें तो केवल उत्तर प्रदेश में तीन लाख प्राथमिक अध्यापकों की जरूरत होगी ।
वर्तमान केन्द्रीय बजट में स्कूल भवन बनवाने पर तो जोर दिया जा रहा है, पर इन स्कूलों में बेहतर शिक्षा कैसे दी जाये, इस पर कोई कार्य योजना बनाने की जरूरत नहीं समझी गई है। 'मिड-डे-मील' ने प्राथमिक स्कूलों से शिक्षा को बेदखल किया है ।
सरकार को गरीबों की मदद करनी है तो सीधे बच्चों
के मां-बाप को करे । उन्हें राशन दे पर स्कूलों में पढ़ाई और अन्य रचनात्मक कार्य
ही होने चाहिये । शिक्षामित्रों के सहारे या अयोग्य मृतक आश्रितों को अध्यापक बना
कर शिक्षण कार्य नहीं किया जा सकता । अगर यह व्यवस्था उचित है तो इसे नीजि स्कूलों
में क्यों नहीं लागू किया जाता ? शहरी
मांयें पैरेंट्स डे पर अपने बच्चें की प्रोग्रेस जानने जाती हैं जबकि गांव की
मांओं को कहा जाता है कि -'बारी, बारी मांयें आयें, जाचें, परखें तभी खिलायें ।' तो क्या
यह नीति गंवई बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की है या सर्व शिक्षा अभियान के बहाने
उन्हें शैक्षिक अपाहिज बनाकर ऊपर बढ़ने से रोकने का एक कुचक्र है ?
http://www.deshbandhu.co.in से साभार
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