एल . एस. हरदेनिया
शिक्षा
के अधिकार कानून के क्रियान्वयन के मामले में मध्यप्रदेश सहित देश के कई राज्यों
में स्थिति संतोषपूर्ण नहीं है। 2010 में
यू.पी.ए. सरकार ने देश के हर बच्चे को शिक्षा के अधिकार का वायदा किया था। सरकार
द्वारा कहा गया था कि अगले तीन वर्षों यानी 31 मार्च 2013 तक ये वायदे हकीकत का रूप ले लेंगे। पर एक मोटे अनुमान के
अनुसार देश भर में महज सात फीसदी स्कूल ही ऐसे हैं, जिन्होंने
पूरी तरह से शिक्षा के अधिकार कानून लागू किया है। मध्यप्रदेश में 2010 से 2013 के बीच
कानून को लागू करने के लिए क्या कदम उठाए गए इसकी पड़ताल शिक्षा के क्षेत्र में काम
करने वाले कुछ संगठनों की है। पड़ताल के नतीजों को अभी हाल में आयोजित एक कार्यशाला
में पेश किए गए। कार्यशाला का आयोजन भारत ज्ञान विज्ञान समिति, लोक संघर्ष सांझा मंच आदि संस्थाओं ने मिलकर किया था। इस
कार्यशाला में प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से शिक्षा के क्षेत्र में काम करने
वाले अनेक लोगों ने भी भाग लिया था।
शिक्षा के अधिकार कानून के क्रियान्वयन के लिए एक आधार
संरचना (इनफ्रास्ट्रक्चर) तैयार करना आवश्यक है। यह अधोसंरचना क्या होगी, उनमें क्या तत्व शामिल हैं यह भी कानून में ही तय किया गया
है। अनेक संस्थाओं ने वास्तविकता जानने के लिए प्रदेश के सभी जिलों की चुनिंदा
शालाओं में पाई जाने वाली परिस्थितियों का सर्वेक्षण किया। इन तत्वों में शामिल
हैं, बिना प्रमाण पत्र, स्थानांतरण
प्रमाण पत्र (टी.सी.), निवास
प्रमाण पत्र आदि न होने की दशा में प्रवेश देने से न तो बिलंब किया जायगा और न ही
इंकार किया जाएगा। इस संबंध में पाया गया कि 2012 तक 68 प्रतिशत शालाओं में टी.सी. यानी स्थानान्तरण प्रमाण पत्र के
बगैर बच्चों को प्रवेश नहीं दिया गया। वहीं 53 प्रतिशत
शालाओं में प्रवेश के समय जन्म प्रमाण पत्र को अनिवार्य माना गया।
कानून के दूसरे प्रावधान के अनुसार यदि कोई परिवार किसी गांव
से पलायन करता है और बच्चे को साथ ले जाता है तो उस परिवार को नए स्थान में शाला
में प्रवेश अनिवार्य रूप से दिया जायगा। सर्वेक्षण में पाया गया कि पलायन करने
वाले 68 प्रतिशत बच्चों को नए स्थानों की शालाओं में प्रवेश मिला है।
बाकी 32 प्रतिशत बच्चे प्रवेश नहीं पा सके जबकि इसका प्रतिशत सौ होना
था। कानून की धारा 17 के
अनुसार बच्चों को शाला में शारीरिक दंड नहीं दिया जाना चाहिए।
सर्वेक्षित
क्षेत्र की 17 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं और 25 प्रतिशत माध्यमिक शालाओं में बच्चों को सजा दी जाती है। इस
प्रकार कुल मिलाकर 21 प्रतिशत
शालाओं में बच्चों को दंड देने की बात सामने आई है। इन शालाआें में पिटाई करना, मुर्गा बनाना, कान
पकड़कर खड़ा करना, कंकड़ पर घुटने टिकाकर बैठाने
जैसी सजाएं अभी भी प्रचलित हैं।
कानून के क्रियान्वयन में सबसे बड़ी बाधा है शिक्षकों का
अभाव। कानून के अनुसार प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थी-शिक्षक अनुपात 30:1 होना चाहिए। परन्तु 2012 तक 43 प्रतिशत प्राथमिक शालाओं में ही विद्यार्थी शिक्षक अनुपात
प्रावधान के अनुरूप पाया गया। सर्वेक्षण के अनुसार 6 प्रतिशत
शालाएं एक शिक्षक के हवाले हैं। जहां तक माध्यमिक शालाओं का सवाल है कानून के
अनुसार इनमें 35 विद्यार्थियों पर एक शिक्षक
होना चाहिए। परन्तु मात्र 37 प्रतिशत
शालाओं में विद्यार्थी शिक्षक अनुपात कानून के अनुरूप हैं जबकि 11 प्रतिशत माध्यमिक शालाएं सिर्फ एक ही शिक्षक के भरोसे चल रही
हैं। इस संबंध में टिप्पणी करते हुए बताया गया कि 2012 के बाद
स्थिति ज्यादा गंभीर हुई है। शिक्षकों की कमी से अभी भी शालाएं जूझ रही हैं और इस
वर्ष उसमें 5 प्रतिशत की और बढ़ोत्तरी हुई है।
वहीं एक शिक्षकीय शालाएं भी 7 से बढ़कर 11 प्रतिशत हो गई हैं।
कानून के अनुसार प्राथमिक विद्यालयों में पूरे सत्र में कम
से कम 200 दिन और माध्यमिक शालाओं में 220 दिन पढ़ाई
होनी चाहिए और एक शिक्षक को सप्ताह में कम से कम 45 घंटे
शिक्षण कार्य करना चाहिए। सर्वेक्षित शालाओं में मात्र 8 प्रतिशत शालाएं ही ऐसी पायी गई जहां 45 घंटे पढ़ाई होती है। वर्ष 2011 के अंत
तक यह प्रतिशत बढ़कर 11 हो गया
है। अधिनियम के अनुसार शाला में एक शिक्षक के लिए कम से कम एक कक्ष होना चाहिए, इसी तरह प्रधान अध्यापक के लिए भी एक पृथक कक्ष होना चाहिए।
इस संबंध में भी स्थिति भारी असंतोषपूर्ण है। 10 प्रतिशत
स्कूलों में स्थिति कानून के प्रावधान के अनुसार पाई गर्इं। सर्वेक्षण के अनुसार 41 प्रतिशत प्राथमिक शालाएं सिर्फ 2 कमरों में लगती हैं, वहीं 19 प्रतिशत शालाओं में तो पहली से पांचवी कक्षा तक के बच्चे एक
ही कमरे में बैठकर पढ़ते हैं। वहीं 27 प्रतिशत
माध्यमिक शालाएं सिर्फ 2 कमरों
में लगती हैं।
तीन
कमरों वाली माध्यमिक शालाओं का प्रतिशत तीन है। 4 प्रतिशत
माध्यमिक शालाएं तो सिर्फ 1 कमरे में
ही लगती हैं। कानून के अनुसार लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शौचालयों की व्यवस्था
होना चाहिए। सर्वेक्षित शालाओं में 76 प्रतिशत
शालाओं में शौचालय उपलब्ध हैं। पिछले वर्ष की तुलना में इन 76 प्रतिशत शालाओं में से आधी शालाओं में एक ही शौचालय है। यानी
इन शालाओं में लड़के-लड़कियों के लिए पृथक शौचालय नहीं हैं। पृथक शौचालय नहीं होने
से बड़ी होने पर अभिभावक अपनी बच्चियों को शाला भेजना बंद कर देते हैं।
शाला में
बच्चों के लिए शुद्ध पानी की व्यवस्था होना चाहिए। सर्वेक्षण के अनुसार 33 प्रतिशत शालाओं में अभी भी पीने के पानी की सुविधा नहीं है।
शालाओं की सुरक्षा के लिए स्कूल में चारदीवारी होनी चाहिए। सर्वेक्षण में पाया गया
कि 76 प्रतिशत शालाओं में चार दीवारी नहीं है। इससे रात में इन शालाओं का दुरूपयोग असामाजिक तत्व करते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र के अतिरिक्त शारीरिक विकास के लिए स्कूल के साथ खेल का मैदान
अनिवार्य किया गया है। परन्तु आज भी 17 प्रतिशत
शालाओं में खेल के मैदान नहीं हैं।
कानून के अनुसार प्रत्येक शाला में शाला प्रबंधन समिति का
होना अनिवार्य है। इस मामले में पाया गया कि समिति का गठन तो कर लिया जाता है
परन्तु 25 प्रतिशत शालाओं में प्रबंधन समिति की बैठक नियमित नहीं होती
है। सर्वेक्षण में यह भी पाया गया कि आदिवासी क्षेत्रों में तो स्थिति और भी गंभीर
है। एक और संगठन द्वारा सर्वेक्षित 81 गांवों
में 6-14 वर्ष की उम्र के कुल 6760 बच्चे
हैं जबकि 99 स्कूलों में कुल 4267 बच्चे दर्ज हैं यानी नामांकन केवल 63 प्रतिशत ही हुआ है। जो बच्चे स्कूल की परिधि से दूर हैं उनकी
संख्या लगभग 2493 है। इनमें से भी 1698 बच्चे अनुसूचित जनजाति से हैं, अनुसूचित
जाति से 122 बच्चे, अति
पिछड़ा वर्ग के 470 बच्चे तथा सामान्य वर्ग के 203 बच्चे हैं। सर्वेक्षित क्षेत्रों में पाया गया कि 99 स्कूलों में से 7 स्कूल
ऐसे हैं जो कि कानून के प्रावधानों के अनुरूप निर्धारित दूरी पर नहीं हैं। इनमें
से डिंडौरी के तीन स्कूलों तक पहुंचने के लिए बच्चों को नदी/नाले पार करने होते
हैं। 92 स्कूलों के अपने भवन हैं और उनमें से अच्छी स्थिति में 77 स्कूल हैं, 13 स्कूल कम
खराब हालत में हैं और 2 स्कूल
बहुत ही खराब हालत में हैं। 7 स्कूलों
के पास कोई भवन ही नहीं हैं इनमें से सबसे ज्यादा 3 स्कूल
आदिवासी जिले डिंडौरी में है। 9 प्रतिशत
स्कूल ऐसे भी हैं जिनमें ब्लेक बोर्ड की व्यवस्था नहीं है। ये स्कूल भी सबसे
ज्यादा डिंडौरी में अर्थात् 3 हैं जबकि
मंडला, जबलपुर और सतना में 2-2 स्कूल
ऐसे हैं। मात्र 16 प्रतिशत
स्कूल में अभी तक फेंसिंग की गई है जो अपने आप में बहुत ही कम है।
सर्वेक्षित
स्कूलों में से केवल 79 स्कूलों
में ही शौचालय हैं जबकि उनमें से केवल लगभग 50 प्रतिशत
स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से शौचालय नहीं बना है। जबकि हम सभी जानते हैं कि
लड़कियों के बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने का एक मुख्य कारण शौचालय का नहीं होना भी है।
डिंडोरी के लहरादादर प्राथमिक स्कूल में शौचालय की व्यवस्था नहीं होने के कारण
बच्चे किचन शेड में ही पेशाब करते हैं।
सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि 99 स्कूलों में से लगभग अनेक स्कूलों में आज के समय में भी जाति
आधारित भेदभाव हो रहा है। सतना के पुराना खेर प्राथमिक स्कूल में पढ़ने वाले छात्र
एवं छात्राओं ने बताया कि रसोई बनाने वाली चंपाबाई सेन हमें दूर से ही खाना परोसती
है तथा खिला देने के बाद वो अपने घर बिना स्नान किए नहीं जाती है। इस कार्यशाला के
दौरान जो वास्तविकताएं उभर कर आर्इं हैं, वे
चौंकाने वाली हैं। कुल मिलाकर शिक्षा के अधिकार कानून का शतप्रतिशत अमल होने में
अभी भी बहुत बाधाएं हैं।
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