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जुवेनाइल एक्ट में बदलाव की मांग सही नहीं लगती


विवेकानंद

राजधानी दिल्ली में 16 दिसंबर को 23 साल की पैरामेडिकल छात्र के साथ बलात्कार और उसकी हत्या के मामले में छठे आरोपी को किशोर न्याय बोर्ड ने नाबालिग करार दिया। यानी, इस कांड का सबसे बड़ा आरोपी इस वर्ष चार जून को 18 साल की आयु पूरी होने पर रिहा हो जाएगा।


पुलिस के मुताबिक इस नाबालिग आरोपी ने ही उस रात पीड़ित लड़की और उसके दोस्त को बस में बैठने को बुलाया था। इसी लड़के ने उस लड़की के साथ दो बार बलात्कार किया। फिर, इसी ने उन दोनों को बस से फेंकने को कहा था। इसने अपराध को जिस दरिंदगी से अंजाम दिया, उसे सुनने के बाद इसके बालिग और नाबालिग होने की चर्चा किए बिना ही इसे फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए।

मगर, जुवेनाइल जस्टिस (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रन) एक्ट के सेक्शन 15(जी) के मुताबिक अगर नाबालिग की उम्र 16 से 18 वर्ष के बीच है और उसे किसी मामले में दोषी करार दिया जाता है, तो उसे सुधारगृह में अधिक से अधिक तीन साल तक रखा जा सकता है। इसके बाद उसे प्रोबेशन पर रिहा कर दिया जाता है। इसी एक्ट के सेक्शन 16 के मुताबिक किसी भी नाबालिग को उसकी उम्र 18 साल से अधिक हो जाने पर सुधारगृह में भी नहीं रखा जा सकता। यानी, छठा आरोपी नाबालिग माना जाता है, तो उसे कुछ महीनों की ही सजा होगी।

इसीलिए जब जुवेनाइल कोर्ट ने इसे नाबालिग करार देकर इसके लिए मामूली सजा का रास्ता खोला, तो देश में तीव्र प्रतिक्रिया देखने को मिली। इस फैसले के बाद जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की मांग जोर पकड़ने लगी। मांग की जा रही है कि जघन्य एवं दुर्लभतम मामलों में नाबालिग आरोपी को कड़ी सजा के दायरे में लाना जरूरी है, पर यह बदलाव आसान नहीं है। कानून लोगों के लिए होते हैं, लोग कानूनों के लिए नहीं। किसी एक अपराधी के लिए यदि कानूनी प्रक्रिया में संशोधन किया गया, तो इसके परिणाम शेष लोगों के लिए प्रतिकूल भी हो सकते हैं।

निस्संदेह यह बेहद चौंकाने वाले आंकड़े हैं कि देश में होने वाली आपराधिक घटनाओं में सालाना करीब 34 हजार बच्चे पकड़े जाते हैं। इनमें 32 हजार लड़के और दो हजार के करीब लड़कियां होती हैं। इन बच्चों में अधिकांश 16 से 18 वर्ष की उम्र के होते हैं। इस आयु वर्ग की संख्या 63.5 फीसदी है। वहीं, सात से 12 वर्ष के महज 3.3 और 12 से 16 वर्ष के बच्चों की तादाद 33.2 फीसदी होती है।

नेशनल क्राइम ब्यूरो के आंकड़ों के प्रकाश में देखें, तो वे सारे मिथक धराशाई हो जाते हैं, जो बच्चों को जेलों में दुर्दात अपराधियों से दूर रखने के लिए ईजाद किए गए हैं। आंकड़े बताते हैं कि जेल में बंद अपराधियों और हमारे आसपास के माहौल में कोई खास अंतर नहीं है। जो भी हो, पर वर्ष-1986 तक जेजे एक्ट में उम्र की सीमा 16 वर्ष थी। बच्चों के अधिकार को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में 1992 में अधिवेशन हुआ और अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार नाबालिग की उम्र 18 वर्ष की गई। एक केस की वजह से जेजे एक्ट में संशोधन करना देश के 42 फीसद बच्चों के साथ अन्याय होगा। बाल आयोग के अनुसार 18 वर्ष की आयु वाले 44 करोड़ बच्चे देश में हैं, जो इस फैसले से प्रभावित होंगे। लिहाजा, इसमें बदलाव जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए।

फिर, किसी एक कानून में संशोधन कर देने भर से समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके बजाए बेहतर होगा कि हम उन कारणों को नष्ट करने के उपाय खोजें, जो किशोर मन को अपराध की ओर धकेलते हैं। उम्र और अपराध के रिश्तों को परिभाषित करने से पहले एक आंकड़े पर विचार करने की भी जरूरत है।

वर्ष-2001 से लेकर 2011 तक बच्चों द्वारा किए गए अपराधों में सात से 12 वर्ष की आयु के बच्चों की भागीदारी 11 से घटकर 3.6 प्रतिशत रह गई, जबकि 12 से 16 साल की आयु वाले बच्चों के अपराधों में पांच प्रतिशत की कमी आई है। मगर, 16 से 18 वर्ष के किशोरों में अपराध की दर बढ़कर 65 प्रतिशत हो गई। इन आंकड़ों को समझने की जरूरत है। 14 वर्ष तक के बच्चों की शिक्षा मुफ्त कर देने और मध्यान्ह भोजन योजना के चलते अधिकतर बच्चे स्कूल जाने लगे हैं। शायद इसीलिए बाल अपराध की दर कम हो रही है। माध्यमिक शिक्षा के बाद अधिकतर बच्चे स्कूल जाना बंद कर देते हैं और शायद 16 से 18 वर्ष के आयुवर्ग में बढ़ती आपराधिकता का यही प्रमुख कारण है।

वर्ष-2011 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष गिरफ्तार किए गए कुल 33,887 किशोरों में से 28,500 यानी लगभग 85 प्रतिशत ऐसे थे, जिनके माता-पिता की मासिक आय चार हजार रुपए से कम थी। करीब 70 प्रतिशत बच्चे ऐसे थे, जिनकी शिक्षा केवल प्राइमरी स्तर तक हुई थी। यानी, गरीबी व कम शिक्षा बाल अपराध का मुख्य कारण है।

इन आंकड़ों के प्रकाश में यह तर्क कहां ठहरता है कि बच्चों में बढ़ रही जानकारी के कारण उनमें अपराध ज्यादा पनप रहा है। यानी, बच्चों में आपराधिक प्रवृत्ति पनपने का एक कारण तो यही है कि गरीबी और अशिक्षा के चलते वे पहले बुरी संगत में पड़ते हैं और फिर उस राह पर चल देते हैं, जो अंतत: उन्हें अपराध की मंजिल तक ले जाती है। वहीं, दूसरी ओर बड़े और संभ्रांत घरानों के बच्चों का अपराध है, जिसे कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह न तो गरीबी से पीड़ित हैं, न अशिक्षा से, फिर इनके इर्द-गिर्द ऐसा क्या है, जो इन्हें अपराध के लिए विवश करता है?

गहराई से देखें, तो बच्चों के इस तरह अपराधी होने के पीछे केवल कानून व्यवस्था नहीं, सामाजिक व्यवस्था भी जिम्मेदार है। यदि केवल कानून व्यवस्था जिम्मेदार होती, तो बड़े घरों के बच्चे अपराध करते ही नहीं। अत: कानून के साथ समाज भी अब जिम्मेदारी उठाए। कानून बदलने की मांग को लेकर दिल्ली को घेरना और सरकार को डराकर कानून बदलवा लेने भर से न तो बच्चों के अपराध घटेंगे, न ही बड़ों के।

http://www.rajexpress.in से साभार 



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