राष्ट्रीय स्वयंसेवी संगठन प्रथम ने हाल ही में शिक्षा पर जो सालाना स्टेटस रिपोर्ट (एएसईआर) जारी की है उसमें कुछ भी हैरान करने वाला नहीं है। इसमें उसी बात को दोहराया गया है जो वह पिछले आठ सालों से कहता आ रहा है कि ग्रामीण विद्यालयों में कक्षा 5 के बच्चे भी पढ़ और लिख नहीं सकते हैं। और तो और हर साल स्थिति उससे पिछले साल के मुकाबले बदतर ही होती जा रही है। रिपोर्ट प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षा के निम्र स्तर के सबूत पेश करती है, साथ ही इस समस्या का एक हिस्सा होने के लिए शिक्षा का अधिकार (आरटीई) कानून की ओर उंगली भी उठाती है। इन्हीं में से एक समस्या प्राथमिक विद्यालयों में परीक्षाएं न होना है। कानून का जोर हमेशा से अधिक से अधिक बच्चों को शिक्षा प्रदान करने पर रहा है, चाहे शिक्षा का स्तर जैसा भी हो। अगर कभी कानून की वजह से मूल और महत्त्वपूर्ण सोच को बढ़ावा देने या फिर जानकार या वैज्ञानिकों को तैयार करने के लिए शिक्षा प्रदान किए जाने की संभावना जगी भी तो वह सरकार की उस कवायद के तले दबकर रह गई जिसमें वह ज्यादा से ज्यादा छात्रों को शिक्षा के लिए भर्ती करना चाहती है।
सबसे दुखद बात यह है कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय हर साल सर्व शिक्षा अभियान या प्राथमिक शिक्षा पर खर्च की जाने वाली रकम बढ़ाता आया है। मगर उसने कभी यह सुनिश्चित करने की कोशिश नहीं की कि इस तरह जो शिक्षा बच्चों को दी जा रही है क्या उसे आगे जारी रखने की जरूरत है। साल 2004 में सरकार प्राथमिक शिक्षा पर 5,700 करोड़ रुपये से अधिक की रकम खर्च कर रही थी और इस साल उसने प्राथमिक शिक्षा पर 49,000 करोड़ रुपये खर्च किए हैं। यह अवधि उतनी ही है जितनी एएसईआर ने अब तक पूरी की है। तो फिर जब शिक्षा पर आवंटन बढ़ा है तो आखिर क्यों शिक्षा का स्तर गिर गया है? क्या टूटी फूटी बेंचों और शौचालय के बिना, राज्य सरकार के पाठ्यक्रमों और स्थानीय इकाइयों के साथ ही बच्चे ठीक थे? क्या राज्य के इस मसले में केंद्र ने दखल देकर हालात और बिगाड़ दिए हैं? क्या अगर राज्यों को केंद्र के दिशानिर्देशों के बिना ही फंड सौंप दिया जाता तो बच्चों को बेहतर शिक्षा हासिल हो सकती थी?
नैशनल यूनिवर्सिटी ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग ऐंड एडमिनिसट्रेशन की राष्ट्रीय फेलो विमला रामाचंद्रन इन सबके लिए शिक्षा का अधिकार कानून को दोष नहीं देती हैं। शिक्षक वास्तव में बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं या नहीं इस पर नजर रखे जाने की कोई व्यवस्था नहीं है और उनका मानना है कि असल दोष इसी का है। उनका मानना है कि विद्यालयों को दी जा रही मदद प्रदर्शन के आधार पर होनी चाहिए।
शोधकर्ता और ब्लॉगर जयंत प्रभु ने पिछले साल आरटीई कानून और उसकी खामियों पर कठोर प्रहार किया था। उन्होंने कहा थ कि आरटीआई कानून ने अगर 'शिक्षकों का वेतनमान बढ़ाने, शिक्षकों का स्तर सुधारने, बेहतर सुविधाएं मुहैया कराने और एक क्रियाशील पाठ्यक्रम तैयार करने' के लिए 1.78 करोड़ रुपये आवंटित किए होते तो उसे विरोध का सामना नहीं करना पड़ता। इधर शिक्षा पर केंद्रीय सलाहकार बोर्ड के सदस्य विनोद रैना आरटीई कानून का बचाव करते हैं। वह कहते हैं कि अध्याय 5 की धारा 29 में शिक्षा के स्तर को सुधारने का प्रावधान है, मगर इन्हें कभी लागू नहीं किया गया। वह कहते हैं, 'जो संस्थान गुणवत्ता सुनिश्चित करते हैं जैसे कि नैशनल काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एनसीईआरटी), स्टेट काउंसिल फॉर एजुकेशनल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग (एससीईआरटी) और डिस्ट्रिक्ट इंस्टीट्यूट्स फॉर एजुकेशन ऐंड ट्रेनिंग (डीआईईटी) उन्होंने अपना काम नहीं किया है।'
जहां वे काम नहीं कर रहे हैं वहां उन्हें क्रियाशील बनाने की जरूरत है। आरटीई में सतत समग्र आकलन (सीसीई) का प्रावधान है और ऐसे संस्थानों को चाहिए कि वे इसके लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करें। उन्होंने बताया कि एक भी राज्य ने सीसीई की शुरुआत नहीं की है। यह अलग बात है कि सर्व शिक्षा अभियान के तहत आने वाला फंड 2010 तक कभी इन स्तरीय संस्थानों के पास नहीं पहुंचा। 2012-13 में एनसीईआरटी को 1.5 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे। रैना ने बताया कि 2005 से ही राष्टï्रीय पाठ्यक्रम ढांचा होने के बावजूद एक भी राज्य इसके दायरे में काम नहीं करता है। उनका मानना है कि पिछले 40 सालों से शिक्षा की गुणवत्ता खराब रही है और इसमें कोई नई बात नहीं है। उनके मुताबिक इसके लिए आरटीई को दोष देने के बजाय लोगों को विद्यालयों और राज्यों के खिलाफ अदालतों का दरवाजा खटखटाना चाहिए और यह विरोध जताना चाहिए कि आखिर क्यों शिक्षा की गुणवत्ता को लेकर कानून को लागू नहीं किया गया। ऐसे में उन सभी राज्यों में कई ऐसे मामले सामने आएंगे जिनमें डीआईईटी और एससीईआरटी काम नहीं कर रहे हैं। शायद ही दिल्ली को लेकर भी सवाल खड़े होंगे जहां ग्रामीण कक्षाओं में अंधकार के लिए मंत्रालय और एनसीईआरटी की जवाबदेही बनती है।
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