? अंजलि सिन्हा
किशोरावस्था की
उम्र को लेकर आज कल चर्चा जोरों पर है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार के 6 आरोपियों में से एक की उम्र 18 साल से कम है।
जुवेनाइल एक्ट के तहत वह अधिकतम तीन साल बालसुधारगृह में रहने के बाद छूट जाएगा और
उसके साथ केस की सुनवाई जुवेनाइल अदालत में होगी। इस बीच सुझाव आ रहे हैं कि
किशोरों में बढ़ते अपराध दर को देखते हुए यह उम्रसीमा घटा कर 16कर दी जाए। निश्चितही ऐसा निर्णय किसी खास केस से उभरी उत्तेजना के तहत
नहीं किया जा सकता। कानूनी दृष्टि से किशोरावस्था की क्या उम्र होनी चाहिए इस पर
आम सहमति बना कर तथा दुनिया भर में किशोरावस्था किसे माना जाता है इन सब आधारों पर
छानबीन करके ही यह तय होना चाहिए।
वैसे
ज्यादा महत्वपूर्ण मसला यह है कि युवा होते बच्चे अपराध की तरफ क्यों बढ़ रहे हैं? यह चिन्ता का विषय इसलिए है क्योंकि गृहमंत्रालय ने 2011 के आंकड़े पेश किए हैं जिसके अनुसार 33,387 किशोर
अपराधी इस साल पकड़े गए। अन्य अपराधों की तुलना में बलात्कार के मामले में इनकी
सहभागिता अधिक बढ़ी है। 2001से 2011 यानि
एक दशक में किशोर बलात्कारियों की संख्या में चौगुना वृध्दि पायी गयी है। 2001
में किशोरों के खिलाफ बलात्कार के 399 मामले
दर्ज हुए वहीं 2011 में 1,419 मामले
दर्ज हुए। यहभी गौर करनेलायक है कि जो 33,387 किशोर गिरतार हुए
उनमें दो तिहाई यानि 21,657 की उम्र 16 से 18 साल के बीच की थी। 12 से
16 वर्ष के बीच की उम्र वाले 11,019 पकड़े
गए और 7 से 12 वर्ष के बीच के भी 1,211
पकड़े गए। इन किशोरों की आर्थिक सामाजिक पृष्ठभूमि पर भी विचार हुआ
है,जिनमें अनपढ़ के साथ प्राइमरी तथा हाइस्कूल तक के
शिक्षाप्राप्त भी शामिल हैं। कमजोर शैक्षिक पृष्ठभूमि वाले इनमें शामिल हैं।
सवाल
यह है कि 12 साल के उम्र के ये बच्चे कानून के खौफ से कितना
डरेंगे? क्या वे अपराध करते समय सज़ा पर विचार करते होंगे?
यूं तो कोई अपराधी चाहे बड़ी उम्र का भी हो तो वह अपराध करते समय यह
नहीं सोचता कि कितनी सज़ा उसे भुगतनी होगी बल्कि इस बात का भय जरूर होता होगा कि वह
पकड़ा जरूर जाएगा। नहीं पकड़े जाने या बच निकलने की सम्भावना ही अपराध कर लेने की
छूट देती है। दूसरी अहम बात है कि कौनसी परिस्थितियां हैं जो अच्छी पढ़ाई लिखाई कर
मेहनत की कमाई कर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर रही हैं। इन सभी मसलों पर
सर्वांगीण तरीके से बात करने की जरूरत है।
अगर
हम अपना समूचा ध्यान किशोरों में अपराधों की बढ़ती संख्या की तरफ रखेंगे और अपराधों
के नियंत्रण के लिए समाज द्वारा वयस्कों के सन्दर्भ में अपनाये जानेवाले तरीकों पर
जोर देंगे, तो हम किशोरों की बड़ी आबादी को जेल या हिरासत में
ढकेलेंगे और फिर यह सोचने की जरूरत भी महसूस नहीं करेंगे कि किसी के अपराधी बनने/
न बनने में समाज या राज्य की कोई भूमिका होती है या नहीं।
उदाहरण
के तौर पर, बाल या किशोर अपराध में बढ़ोत्तरी का एक कारण समाज या
राज्य द्वारा प्रस्तावित ऐसी प्रणालियों की असफलता में भी क्या देखा नहीं जाना
चाहिए जो नाजुक परिस्थितियों में रहनेवाले बच्चों को नशीली दवाओं के प्रभाव में या
वयस्कों की गलत संगत में पड़ने से बचाए। बाल अधिकारों की हिफाजत के लिए सक्रिय एक
कार्यकर्ता के मुताबिक जुवेनाइल जस्टिस एक्ट के तहत एक ऐसी प्रणाली की कल्पना की
गयी है जिसमें विशेष जुवेनाइल पुलिस युनिट का निर्माण हर जिले में होगा। इन
इकाइयों का काम यह भी होगा कि वे ऐसे बच्चों को चिन्हित करें जो आपराधिक व्यवहार
में जुड़ सकते हैं और उन्हें सहायता प्रदान करें। जब हम ऐसे बच्चे जो सड़कों पर रह
रहे हैं या अन्य कठिन परिस्थितियों में रह रहे होते हैं,उनका
ध्यान नहीं रखते हैं तब हम उन्हें अपराध में लिप्त वयस्कों के प्रभाव में आने से
कैसे बचा सकते हैं।
बाल
अधिकारों के लिए लम्बे समय से कार्यरत एक वकील (अनन्त अस्थाना) ने पत्रकार से बात
करते हुए इसी बात को रेखांकित किया कि समर्थन प्रणालियों के अभाव में बच्चे अपराध
की दिशा में मुड़ते हैं। उनके मुताबिक कानून कहता है कि हमारे पास बेहद सक्षम प्रोबेशन
सेवा होनी चाहिए जो जुवेनाइल जस्टिस एडमिनिस्टे्रशन प्रणाली की रीढ़ होगी। मगर
हकीकत यही है कि खुद राजधानी दिल्ली में भी यह प्रणाली जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड की
भाषा में 'मर चुकी है।' बच्चों की आवासीय
देखरेख करनेवाली संस्थाओं मे उपेक्षा, हिंसा, दुराचार, मारपीट का आलम व्याप्त है और यह समूचे देश
की स्थिति है। अकेली दिल्ली में 80 हजार बच्चे सड़कों पर रह
रहे हैं। क्या यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि ये बच्चे सड़कों पर क्यों हैं ? इनके बड़े होकर क्या बनने की हम अपेक्षा करते हैं ?
इस मसले के कई अन्य पहलू भी हैं। अपराध करते पाए जानेवाले किशोरों की
सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि। बाल अपराधों पर रोकथाम के लिए
बालसुधार गृहों के अलावा बने अन्य प्रावधानों पर अमल की स्थिति।
उदाहरण
के लिए बलात्कार की संख्या में बढ़ोत्तरी के आरोपों को देखें। इण्डियन एक्स्प्रेस
की रिपोर्ट (8 जनवरी 2013) के मुताबिक
जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड, दिल्ली के साथ कार्यरत लोगों के
मुताबिक ऐसे दर्ज मामलों के 70 फीसदी केसेस दो अल्पवयस्कों
के ''आपसी सहमतिपूर्ण यौनसम्बन्ध'' के
होते है, जो कानून की निगाह में 'अपराध'
माना जाता है। एक दूसरी महत्वपूर्ण बात यह नोट की गयी कि जुवेनाइल
जस्टिस बोर्ड के सामने आनेवाले मामलों में,कम से कम 75फीसदी बच्चे अपने आपराधिक व्यवहार को दोहराते नहीं है और कौन्सलिंग से ठीक
होते हैं। बाकियों के लिए कौन्सलिंग या शिक्षा या किसी पेशे में संलिप्तता की
जरूरत होती है।
अगर हम गरीब
बस्तियों या सड़केों पर रहनेवाले बच्चों में अपराध की प्रवृत्ति का विश्लेषण करें
तो कई बातें दिखती हैं। परिवार के बिखराव पैदा बदहाली;बहुत कम उम्र में शराबखोरी एवं नशीली दवाओं का आदी होना और इसके चलते
आपराधिक चंगुल में फंसना ;प्राकृतिक एवं मनुष्यनिर्मित
आपदाओं के चलते लोगों का बढ़ता विस्थापन और फिर उनकी सन्तानों का गिरोहों में जुड़ना
; बालश्रम के खिलाफ कानून की मौजूदगी मगर हर उपेक्षित बच्चे
के लिए सामाजिक देखभाल का अभाव, नतीजा विपन्न बच्चे बहुत
पहले से शोषण एवं अत्याचार के शिकार जो अपराध की तरफ उन्हें ले जाता है ; यौन व्यापार में छोटे बच्चों का ढकेला जाना, जिसमें
लड़के एवं लड़कियां दोनों शामिल रहते हैं।
बाल अथवा
किशोर अपराधियों की संख्या के मामले में हम पश्चिमी देशों में भी नस्लीय अन्तर
देखते हैं। उदाहरण के लिए नेशनल सेन्टर फार जुवेनाइल जस्टिस की 2008 की रिपोर्ट के मुताबिक 10 से 17 साल की उम्र के अश्वेत बच्चे के गिरफ्तार होने की सम्भावना श्वेत बच्चे की
तुलना में दोगुनी रहती है। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि अश्वेत बच्चों में
अपराधीपन अधिक होता है। कत्तई नहीं! यह धयान में रखने की जरूरत है कि गरीबी या
निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति के चलते माता पिता की तरफ से कम देखभाल, आवारा दोस्तों के साथ अधिक जुड़ाव जैसी चीजें दिखती हैं, जो रास्ता किशोर अपराध की तरफ ले जा सकता है। दूसरा अहम पहलू यह भी होता
है कि पुलिस प्रशासन में भी जो नस्लीय भेद मौजूद होता है, उसके
चलते भी वह जहां श्वेत बच्चे के साथ अधिक नरमी से पेश आ सकते हैं, उसी अपराध के लिए अश्वेत बच्चे को गिरतार कर सकते हैं।
अपनी एक
चर्चित किताब में लैरी ग्रोसबर्ग (2005) लिखते हैं कि
दरअसल युवा लोग आधुनिकता के बहुविधा संकटों के साथ एक अलग किस्म के रिश्ते में
रहते हैं, इसे समझने की जरूरत है। उनके मुताबिक अमेरिका ने
अपने युवाओं के खिलाफ एक तरह से युध्द छेड़ा है - यह युध्द इस बात से जुड़ा है कि
समाज युवाओं के बारे में कैसे सोचता है और बोलता है ; कैसे
वह इलाज, अनुशासन और नियमन के मुद्दे को देखता है और अन्तत:
आर्थिक बदहाली के मसले को। उनके मुताबिक ''विगत पचीस सालों
में हम बच्चों के बारे में क्या बोलते हैं और सोचते हैं इसमें जबरदस्त रूपान्तरण
हुआ है और अन्तत: उनके साथ हम कैसा व्यवहार करते हैं इसमें। हम लोग, वक्त के एक हिस्से में, एक ऐसी गढ़ी दुनिया में रहते
हैं जहां बच्चे नियंत्रण के बाहर हैं गोया वह हमारे आत्मीय दायरों में छिपे दुश्मन
हों। इसकी प्रतिक्रिया भी दिखती है - आपराधीकरण और कारावास, मनोवैज्ञानिक
बन्दिशें और दवाएं आदि - जो इसी बात को उजागर करता है कि न केवल हमने बच्चों की
वर्तमान पीढ़ी का परित्याग किया है बल्कि हम उन्हें एक ऐसे खतरे के तौर पर देखते
हैं जिस पर काबू किया जाना है, दण्डित किया जाना है और कुछ
मामलों में अपनी तरफ करना है। चिल्डे्रन्स डिफेन्स फण्ड के मुताबिक, हर सेकन्द में हाईस्कूल के एक बच्चे को निलम्बित किया जाता है ; हर दस सेकन्ड पर उसे शारीरिक तौर पर दण्डित किया जाता है; हर बीस सेकन्द पर एक बच्चे को गिरतार किया जाता है। हमारे डरों एवं
निराशाओं से निपटने के लिए दरअसल आपराधीकरण एवं मेडिकलीकरण अधिक सस्ते एवं आसान
उपाय दिखते है।
जान क्लार्क, इस सम्बन्ध में एक अलग नज़रिया पेश करते हैं। (वाटस द प्राब्लेम ?, द ओपन युनिवर्सिटी, यूके) उनके मुताबिक लम्बे समय से
यह स्पष्ट है कि 'प्राइवेट दायरों' तक
अधिकतर युवाओं की पहुंच बहुत सीमित है - यह एक ऐसी स्थिति है जो सार्वजनिक दायरों
पर उनकी निर्भरता को बढ़ाती है। वर्तमान समय में, वह उन्हें
निगरानी, नियमन एवं पुलिसिंग के अधिक रूपों का शिकार बनाती
है.. हमारे सभी समकालीन संकटों का एक पहलू ऐसा होता है जो भौतिक रूपों में युवाओं
को अधिक नाजुक स्थिति में डालता है और साथ ही साथ उन्हें संकट के प्रतिरूप के तौर
पर पेश करता है।
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