भारत शर्मा
देश में बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। चिंता सभी को है। सरकार ने इसे रोकने के कई प्रावधान किए हैं। चिंतित समाज भी है, पर खुद को निर्दोष साबित करने के लिए उसे तर्क भी गढऩा आता है। फिलहाल जो आंकड़े सामने आ रहे हैं, वे स्थिति की भयावहता को दिखा रहे हैं। 2011 में जनगणना के जब आंकड़े आए थे, तब इन आंकड़ों पर लंबी बहस हुई। स्त्री-पुरुष अनुपात भले ही जनगणना में कुछ सुधरा नजर आया हो, जो 933 से बढ़कर 940 हो गया, पर बाल लिंगानुपात का समीकरण गड़बड़ा गया, यह आंकड़ा वर्ष 2001 में 927 था, जो घटकर 2011 में 914 रह गया। इससे भी दयनीय स्थिति जन्म लेने वाली बच्चियों की है, सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2005-07 में यह संख्या 901 थी, जो 2006-08 में 904 व 2007-09 में 906 हो गई।
इस संख्या में बहुत ही हल्का सा सुधार नजर आता है। पर इससे यह भी पता चलता है, कि बड़ी मात्रा में कन्या भ्रूण हत्या हो रही है। जन्म लेने वाली कितनी बच्चियां लंबे समय तक जिंदा रह पाती हैं, इस पर भी शोध किया जाना चाहिए। भारत जैसे देश में बाल मृत्यु दर काफी अधिक है, जो बच्चे पांच साल तक की उम्र में मारे जाते हैं, उनमें कितनी बच्चियां हैं, इसका अलग से कोई आंकड़ा नहीं है। लड़कों की तुलना में लड़कियां के कुपोषित होने का प्रतिशत क्या हैं, इसका आंकड़ा भी प्रकाशित नहीं हुआ है। लड़कियों के साथ भेदभाव किया जाता है, यह समाज का प्रचलित सच है।
साल 2005 से 2009 के बीच जन्म लेने वाली बच्चियों की संख्या को अगर कुछ सुधार मानें, तो इसका कारण सरकार द्वारा उठाए गए कुछ सख्त कदम भी हैं। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2008, 2009 व 2010 में कन्या भ्रूण हत्या के क्रमश: 73, 123 व 111 मामले दर्ज किए गए। इसी के साथ पीसी एवं पीएनडीटी एक्ट को प्रभावी रुप से लागू करने की कोशिश की जा रही है। केन्द्र सरकार ने इसके लिए राज्यों को भी निर्देश दिए हैं। राज्यों की तिमाही प्रगति रिपोर्ट के अनुसार पीएनटीडी अधिनियम के उल्लंघन के 1073 मामले दर्ज किए गए, 878 अल्ट्रासाउन्ड मशीनें जब्त की गईं। 15 चिकित्सकों के लायसेंस रद्द किए गए।
सरकार की तरफ से किए जाने वाले प्रयास नाकाफी हैं, पर इसमें समाज की भी महत्वपूर्ण भागीदारी होना चाहिए। पैदा होने वाली बच्चियों की संख्या राज्यवार देखें, तो पता चलता है, कि जिन इलाकों में रुढि़वादिता अधिक है, वहां बच्चियों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। दिल्ली और उसके आसपास के राज्यों में स्थिति सबसे चिंताजनक है। दिल्ली में यह संख्या 1000 बच्चों पर 882, हरियाणा में 849, जम्मू-कश्मीर में 870, पंजाब में 836, राजस्थान में 875 व उत्तर प्रदेश में 874 है। पंजाब जैसे प्रांत में यह आंकड़ा लगातार कम हो रहा है। निश्चित तौर पर इन प्रदेशों में बड़ी संख्या में भ्रूण हत्या हो रही है, हालांकि ये वे इलाके हैं, जहां बेटों की शादियों के लिए आदिवासियों लड़कियों की खरीद फरोख्त की जाती है। लड़कियों की जरुरत है, पर पैदा नहीं करेंगे, खरीद लाएंगे।
महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में यह संख्या 896 होना चिंता का कारण है, क्योंकि वहां रुढिय़ां इतनी अधिक नहीं हैं। झारखंड जैसे आदिवासी प्रदेश व तमिलनाडु में लड़कियों की संख्या क्रमश: कम होना भी चिंता जनक है। अंदाजा लगाया जा सकता है, कि जिन समाजों में पहले महिलाओं को उचित सम्मान दिया जाता था, वहां भी उनकी स्थिति खराब हो रही है। छत्तीसगढ़, केरल, पश्चिम बंगाल जैसे प्रांतों में यह संख्या संतोष जनक है। यहां क्रमश: यह आंकड़ा 980, 968 व 944 है। कर्नाटक व हिमाचल प्रदेश में भी संख्या 944 ही है।
ये आंकड़े सभ्य समाज को चिंता में डालने के लिए पर्याप्त हैं। कई समाजिक संगठनों ने इसके लिए काम शुरु किया है। धार्मिक संगठनों ने विशेष अभियान भी चलाया है, इसका कितना असर हुआ है, फिलहाल तो नजर नहीं आ रहा। कम होती लड़कियों के लिए जिन दो बड़े कारणों को जिम्मेदार माना जा सकता है, वे दहेज जैसी कुरीति व लड़कियों की सुरक्षा को लेकर होने वाली चिंता हैं। लड़कियों को लेकर पुरुष वादी समाज की सोच भी इसका एक कारण है, जिसका शिक्षा से कुछ खास लेना देना नहीं है। अलग-अलग धर्मों में महिलाओं को लेकर मान्यताएं व स्वास्थ्य सुविधाएं भी लड़कियों की कम होती संख्या के लिए जिम्मेदार है।
आदिवासी इलाकों खास तौर पर जहां मिशनरी स्वास्थ्य की क्षेत्र में काम कर रही हैं, वहां लड़कियों की स्थिति काफी अच्छी है। अल्पसंख्यकों की बात करें, तो मुस्लिमों में यह संख्या ठीक है, पर जैन व सिक्ख समाज में लड़कियों की संख्या काफी कम है। कमोवेश हिंदू धर्म की हालत भी खराब है। सामूहिक चिंता नहीं की गई, तो समाजिक संतुलन बिगडऩा तय है।
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