जाने-माने शिक्षाविद् और ज्ञान-विज्ञान आंदोलन के सक्रिय साथी श्री श्याम बहादुर नम्र जी का विगत 3 जनवरी 2012 को उनके अपने गाव जमूड़ी अनूपपुर में असामयिक निधन हो गया। नम्र जी ने बुनियादी व प्राथमिक षिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षे़त्रों के साथ-साथ विकास के तमाम मुद्दों पर जनअंादोलनो के साथ जो कार्य किये है वे अविस्मरणीय रहेंगे। षिक्षा के मुद्दां पर नम्र जी की कविताए व लेख जनपक्षधरता के आंदोलनो को मजबूती देते हैं । यहाँ प्रस्तुत है नम्र जी की बच्चों पर एक कविता
होमवर्क
एक बच्ची स्कूल नहीं जाती, बकरी चराती है।
वह लकडि़यां बटोरकर घर लाती है,
फिर माँ के साथ भात पकाती है।
एक बच्ची किताब का बोझ लादे स्कूल जाती है,
शाम को थकी मांदी घर आती है।
वह स्कूल से मिला होमवर्क, माँ-बाप से करवाती है।
बोझ किताब का हो या लकड़ी का दोनों बच्चियाँ ढोती हैं,
लेकिन लकड़ी से चूल्हा जलेगा, तब पेट भरेगा,
लकड़ी लाने वाली बच्ची, यह जानती है।
वह लकड़ी की उपयोगिता पहचानती है।
किताब की बातें, कब, किस काम आती हैं?
स्कूल जाने वाली बच्ची बिना समझे रट जाती है।
लकड़ी बटोरना, बकरी चराना और माँ के साथ भात पकाना,
जो सचमुच गृह कार्य हैं, होमवर्क नहीं कहे जाते हैं।
लेकिन स्कूल से मिले पाठों के अभ्यास,
भले ही घरेलू काम न हों, होमवर्क कहलाते हैं।
ऐसा कब होगा,
जब किताबें सचमुच के ‘होमवर्क’ (गृहकार्य) से जुड़ेंगी,
और लकड़ी बटोरने वाली बच्चियाँ भी ऐसी किताबें पढ़ेंगी?
श्यामबहादुर ‘नम्र’
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