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"फर्स्ट रैंक" का कहर


फैज़ 
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मैं फर्स्टरैंक नहीं ला सकती,सेकंड या थर्ड रैंक ला सकती हूँ। दसवीं कक्षा की छात्रा ने अपने अंतिम नोट में लिखा। इसी तरह कुल 6 छात्रों ने जनवरी-फरवरी 16 में आत्महत्या की है। इनकी आत्महत्या पर परिवार और विद्यालयों का कहना था कि ये सभी होनहार छात्र-छात्राएं हैं। यदि ये होनहार छा़त्र-छात्राएं हैं तो फिर सीधा सा सवाल बनता है कि इन्होंने आत्महत्या क्यों की ?सामान्य जवाब है कि रैंक”के दबाव ने इन्हें बाध्य किया। और रैंक का दबाव आया कहां से ?थोड़ा विष्लेषण करें तो हम पाएंगे कि “रैंक”के दबाव के पीछे कई कारण होते हैं जैसे माता-पिता, परिवार,दोस्त,अपेक्षाएं,प्रतिस्पर्धा और बाज़ार। इन कारणों को हम पालक,शिक्षक,विद्यालय के मालीक,व्यवस्थापक होने के नाते देख नहीं पाते।

दसवीं-बारहवीं में पढ़ रहे बच्चों के सामने सिर्फ बोर्ड की परीक्षा का ही दबाव नहीं होता वरन् आईआईटी,मेडिकल,इंजिनियरिंग के लिए उच्चतम शिक्षण संस्थानों में प्रवेशलेने हेतू प्रतिस्पर्धा का भी दबाव होता है। बच्चों से इतर पालकों पर खुद के सपनों को बच्चों पर थोपना और फीस चुकाने का दबाव भी होता है,जो कि अल्टीमेटली बच्चों पर ही ट्रांसफर होता है। भोपाल जैसे शहर में आईआईटी या मेडिकल की ट्यूषन फीस का रेंज 65000 से 200000 रूपये प्रतिवर्ष तक है। स्कूल फीस के साथ या एक्सट्रा ट्यूशन फीस किसी भी वर्किंग या लोवर मीडिल क्लास के लिए बहुत मायने रखती है। सामान्य सी बात है यदि कोई व्यक्ति इतना इन्वेस्टमेंट करेगा तो रिर्टन भी इससे दोगुना ही मांगेगा याने स्कूली परीक्षा में रैंकलाना और एंट्रेंस को क्लीयर करना।

कई बच्चे तो इतने इनडाक्टरनेट हो चुके होते हैं कि उनको रैंकऔर एडमिशन ही अपने जीवन का अंतिम लक्ष्य दिखता है। किन्तुसच तो यही है –किशोरावस्थामें तो बच्चे खुद को एक्सप्लोर कर रहे होते हैं।कई गिटार बजाना चाहते हैं,कई घुमना-फिरना,कई मेकअप करना,कई रैंप पर चलना,आदि ... और हम समाज के रूप में लगे रहते हैं उनसे “रैंकबनवाने में।

एक व्यवस्था के रूप में हमारे पास कई विकल्प हैं और नए विकल्प खड़े किए जा सकते हैं। पहला विकल्प “सतत एवं व्यापक मूल्यांकनकी प्रक्रिया का प्रभावी रूप से लागु किया जाना ही है और इसी का एक्सटेंशन दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओं को ऐच्छिक किया जाना है। दूसरा विकल्प कई सारे शासकीय आईआईटी,मेडिकल आदि के विश्वस्तरीयशिक्षण संस्थाना खोलने और संचालित करने का है। तीसरा विकल्प समाज में रोज़गार के सृजनात्मक अवसर सृजित करने का है। ये नौकरियों के रूप में भी हों और स्वरोजगार के रूप में भी। इसी तरह विकल्पों की श्रृंख्ला खड़ी की जा सकती है।

समस्या यह है कि यदि हम समाज और व्यवस्था के रूप में इन विकल्पों पर आगे बढ़ते हैं तो बाज़ार,मुनाफे और नीजिकरण के पैरोकार लोगों का क्या होगा,क्योंकि हम नीजिकरण के दौर में हैं फिर चाहे वे स्कूल,कोचिंग क्लासेस,कालेज,या विश्वविद्यालय ही क्यों ना हों !


और अंत में - ये आत्महत्याएं हमारे लिए सामाजशास्त्रीय विवेचन के प्रश्न हैं।इन आत्महत्याओं को क्यों ना संगठित हत्या की श्रेणी में रखा जाए,क्यों ना इन्हें किसी आतंकवादी या देशद्रोही घटना की तरह माना जाए ?माता-पिता,परिवार,समाज और व्यवस्था को क्यों ना 129  ए, 307  या 302  में पंजिबद्ध करके केस चलाया जाए ? हम राजनैतिक रूप से इस दिशा में सोंच भी नहीं पाएंगे क्योंकि बच्चे वोट बैंक नहीं होते !

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