शशांक द्विवेदी
किसी भी देश ,समाज
तथा परिवार के लिए बच्चे सबसे अमूल्य धरोहर
होते है । बच्चों का बेहतर भविष्य बेहतर देश के निर्माण में सहायक होता है ।लेकिन
अगर बच्चें ही परिवार ,सरकार और प्रसाशन की
तरफ से उपेक्षित हो तो उस व्यवस्था को क्या कहा जाए आज भारत गुमशुदा ,लापता ,अपहृत बच्चों का देश बनता जा रहा है । 2013-14
में पूरे देश में लगभग 70000 बच्चे लापता हुए
है जिनकों ढूँढने का कोई बड़ा सम्मिलित प्रयास अब तक नहीं किया गया है ।
अब गुमशुदा बच्चों के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सख्तो टिपण्णी की
है । कोर्ट ने कहा को कोई भी राज्य सरकार या मुख्य
सचिव गुमशुदा बच्चों को लेकर चिंतित नहीं है। कोर्ट ने कहा गरीब लोगो के बच्चें
गुम हुए है इस लिए राज्य सरकारें और मुख्य सचिव परेशान नही है। कोर्ट ने ये भी कहा
की कागजी करवाई से उदेश्य पूरा नहीं होगा। गुमशुदा बच्चों के मामले में सुप्रीम
कोर्ट ने बिहार और छत्तीसगढ़ सरकार को जमकर फटकार लगाई थी। बच्चों की गुमशुदगी के
सभी मामलों में तुरंत एफआईआर न दर्ज करने पर बिहार को आड़े हाथों लिया था तो
छत्तीसगढ़ की ओर से संसद और सुप्रीम कोर्ट में पेश आंकड़ों में अंतर पर नाराजगी
जताई थी।
गृह मंत्रालय के अनुसार भारत में हर साल एक लाख बच्चे गायब होते हैं। इनमें से 45 प्रतिशत बच्चे ऐसे
हैं जिनके बारे में अब तक कोई जानकारी नहीं मिली। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के
आंकड़ों की बात की जाए तो देश में हर आठ मिनट में एक बच्चा गायब होता है। पिछले
दिनों सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने एक याचिका की सुनवाई करते हुए लापता बच्चों के
मामले में सरकार द्वारा ध्यान न देने पर आक्रोश जताते हुए कहा था कि यह सबसे बड़ी
विडंबना है। गृह मंत्रालय के अनुसार 2011 से 2014 के बीच में देश में 3.27 लाख बच्चे गायब हुए। इसका
सीधा मतलब है कि औसतन एक लाख बच्चे हर वर्ष गायब हो जाते हैं।
अगर भारत के आधिकारिक आंकड़ों की अन्य देशों से तुलना की जाए तो हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान में हर साल केवल 3000 बच्चे लापता हुए। वहीं, जनसंख्या
की समस्या से जूझ रहे चीन में यह संख्या मात्र 10 हजार है।
इन सभी के बीच सबसे बड़ा यह सवाल उठता है कि आखिर गायब हुए बच्चे जाते कहां हैं?मंत्रालय की रिपोर्ट में लगभग डेढ़ लाख बच्चों के बारे में कोई जानकारी
नहीं दी गई। हालांकि ऐसे बच्चों के बारे में यह माना जा रहा है कि उन्हें मार दिया
गया है या फिर भीख मांगने और वेश्यावृत्ति जैसे कार्यों में धकेल दिया गया है।
विशेषज्ञों की राय में ग्रामीण और शहरी इलाकों के कई बच्चे शारीरिक शोषण या फिर
गरीबी के कारण घर से भाग जाते हैं। घर छोड़ने के बाद इन्हें कोई सुरक्षा नहीं
मिलती जिससे कई गिरोह या फिर दलाल प्रलोभन देकर इन्हें फंसा लेते हैं ।
सबसे ज्यादा खराब स्थिति महाराष्ट्र में है जहां पिछले साढ़े तीन साल में 50 हजार
से ज्यादा बच्चे गायब हुए। वहीं मध्य प्रदेश में 15 हजार से
ज्यादा लड़कियां और 9 हजार से ज्यादा लड़के गायब हुए।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 2011 से 2014 के बीच कुल 327658 बच्चे गायब हुए जिसमें 181011
लड़कियां और 146647 लड़के गायब हुए है । इनमें
148115 बच्चों के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है ।
पिछले तीन सालों में महाराष्ट्र से 50947 मध्य प्रदेश से 24836
दिल्ली से 19948 आंध्र प्रदेश से 18540
बच्चे गायब हुए है देश के कई राज्यों ने गायब बच्चों की सूची अभी तक
केंद्र सरकार और कोर्ट को उपलब्ध नहीं कराई है । गुमशुदा बच्चों के संदर्भ में
हालात ये है कि इतने जघन्य अपराध की रोक-थाम के लिये देश में न ही कोई कारगर कानून
बना है और न ही देश की संसद में इस अति संवेदनशील मुद्दे पर कभी गंभीर चर्चा ही
हुई है । दरअसल बच्चों के मामले में हम अभी तक अपनी बचकानी सोच के दायरे से निकल
ही नहीं पायें है । शायद हमें यही लगता है कि इतनी विशाल आबादी में से मुट्ठी भर
बच्चों के खो जाने से क्या फर्क पड़ता है ?
इस मुद्दे पर शान्ति के नोबेल
पुरस्कार से सम्मानित बचपन बचाओ अभियान के शिल्पकार कैलाश सत्यार्थी कहते है कि
बच्चों की गुमशुदगी, बच्चों और उनके
माता-पिता व परिजनों के साथ ऐसा घिनौना और यातनामय अपराध है जिसे किसी भी सभ्य
समाज में बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिये। गुमशुदा बच्चों में ज्यादातर
झुग्गी-बस्तियों, विस्थापितों, रोजगार
की तलाश में दूर-दराज के गाँवों से शहरों में आ बसे परिवारों, छोटे कस्बों और गरीब व कमजोर तबकों के बच्चे होते हैं। चूँकि ऐसे लोगों की
कोई ऊँची पहुँच, जान-पहचान या आवाज नहीं होती इसलिये पुलिस,
मीडिया और यहाँ तक कि पड़ोसी भी उनको कोई तवज्जो नहीं देते हैं।
माता-पिता भी ज्यादातर अशिक्षित तथा डरे-सहमे होते हैं। जानकारी के अभाव में पुलिस
में रिपोर्ट दर्ज कराने के बजाय वे लोग अपने बच्चे के गुमशुदा होने के कई घण्टों
अथवा एक-दो दिन बाद तक स्वयं ही खोज-बीन में लगे रहते हैं। अगर समाज और पुलिस की
मुश्तैदी से बच्चों का चुराया जाना रोका जा सके तो ऐसे अनेक अपराधों पर अंकुश
लगाया जा सकता है।
अगर पुलिस या स्थानीय प्रशासन गुमशुदा बच्चों को ढूढनें पर गंभीरता से ध्यान दे तो इसके परिणाम बेहद सकारात्मक हो
सकते है जैसा कि पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद जिले में उत्तर प्रदेश
पुलिस द्वारा गुमशुदा और माता-पिता से बिछुड़े बच्चों का पता लगाने के लिए चलाए
गये ऑपरेशन स्माइल के तहत 166 बच्चे बरामद किये
गये हैं। जिनमें से 98 उनके परिवार वालों को सौंप दिये गये
हैं। और जिन बच्चों के परिजनों के बारे में जानकारी नहीं मिल पायी है उन्हें बाल
संरक्षण गृहों में रखा गया है।
बिछड़े और गुमशुदा बच्चों को तलाश कर उनके परिवार तक वापस पहुंचाने के लिए गाजियाबाद जिले में चले ऑपरेशन
स्माइल की कामयाबी के बाद अब यह अभियान पूरे उत्तर प्रदेश में चलाया जा रहा है।
जिन बच्चों के माता-पिता की जानकारी नहीं हो पायी है उनकी तस्वीरें कई राज्यों के
पुलिस मुख्यालयों को भी भेज दी गयी हैं, ताकि
यदि उनके बारे में कहीं कोई रिपोर्ट अथवा जानकारी हो तो उन्हें उनकी फैमिली तक पहुंचाया
जा सके। पुलिस के अनुसार बरामद बच्चों में अधिकांश रेलवे स्टेशनों,बस अड्डों, छोटे-छोटे ढ़ाबों और खाने पीने की
दुकानों पर काम करते पाये गये है। आज पूरे देश में एक साथ सभी राज्यों में ऑपरेशन
स्माइल जैसे कार्यक्रम चलाने की जरुरत है जिससे बच्चों को सुरक्षित वापस उनके घर
पहुँचाया जा सके । क्योंकि विडम्बना इतनी ही नहीं है के बच्चे गुम हो रहे हैं,त्रासदी यह भी है कि अनगिन ऐसे बच्चे भी हैं जिनका बचपन ही गुम हो गया है।
ये काम पर जाने वाले बच्चे हैं। इसलिए बच्चों की गुमशुदगी के साथ-साथ बचपन की
नामौजूदगी जैसी दोहरी चुनौती हमारी पूरी व्यवस्था के सामने है। इस चुनौती से मुंह
मोड़ने पर आने वाली पीढियाँ हमें माफ नहीं करेंगी क्योंकि बच्चे बचेंगे तो देश
बचेगा और बचपन बचेगा तो देश संवरेगा।
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