सुभाष गाताड़े
गृह मंत्रालय द्वारा संसद में प्रस्तुत आंकड़ों की मानें तो 2011 से 2014 (जून तक) तीन लाख 25 हजार बच्चे गायब हो चुके
हैं। यानी औसतन साल में एक लाख बच्चे भारत में गायब हो रहे हैं। नेशनल क्राइम
रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक हर आठवें मिनट में हमारे यहां एक बच्चा गायब हो रहा है
जिनमें 55 फीसदी लड़कियां होती हैं। लापता बच्चों में से 45
फीसदी कभी नहीं मिलते। उधर, पड़ोसी
मुल्क पाकिस्तान में गायब होने वाले बच्चों की संख्या तीन हजार है, जबकि हमसे अधिक आबादी वाले चीन में साल में गायब होने वाले बच्चों की
तादाद दस हजार है।
हैरत इस बात पर भी है कि प्रगतिशील महाराष्ट्र नंबर एक पर है, जहां तीन साल के अंतराल में 50
हजार बच्चे गायब हुए। दूसरे नंबर पर मध्य प्रदेश है जहां से 24,836
बच्चे गायब हुए। उसके बाद दिल्ली (19,948) और आंध्र प्रदेश (18,540) आते हैं। डेढ़ साल पहले मुल्क की आला अदालत ने गायब 1.7 लाख बच्चों की संख्या और
उसके प्रति सरकारी बेरुखी के मद्देनजर प्रतिक्रिया दी थी कि विडम्बना यही है कि
किसी को गायब बच्चों की फिक्र नहीं है। स्थिति आज भी ज्यों की त्यों है। स्पष्ट है
कि राज्यों की कानून एवं सुव्यवस्था की मशीनरी में बच्चों को ढूंढ़ने पर कोई फोकस
नहीं है, और जिन राज्यों ने अपने यहां गायब व्यक्तियों के
ब्यूरो बनाए हैं, उन्होंने भी अपने काबिल अफसर को वहां
नियुक्त नहीं किया।
जाहिर है कि दो करोड़ से अधिक आबादी की राष्ट्रीय राजधानी, जहां माननीयों की निजी सुरक्षा पर ही हर साल अरबों रुपये खर्च होते होंगे, वहां ऐसे तमाम तबकों के जीवन की असुरक्षा अधिकाधिक बढ़ रही है, जो खुद अपनी सुरक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं। विभिन्न सरकारी एजेंसियों में आपसी समन्वय की कमी भी उजागर हुई, जब पता चला कि सूचना के अधिकार के तहत जोनल इंटीग्रेटेड पुलिस नेटवर्क तथा नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो से मांगी गईसंख्या भी अलग-अलग थी।
सच्चाई यही है कि बच्चों के अवैध व्यापार में
लिप्त अपराधी गिरोहों ने
राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपना नेटवर्क कायम किया है, जो उन्हें यौन पर्यटन में ढकेलने से लेकर बंधुआ मजदूरी आदि करवाने के
लिए मजबूर करते हैं। ऐसे अपहृत बच्चों की इंद्रियों को भी जबरन प्रत्यारोपण के लिए
निकालने के बाद उन्हें मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। भले ही बच्चों की सुरक्षा
के लिए कुछ न किया जा सके, मगर पुलिस की पूरी कोशिश यही
दिखती है कि वह अपना रिकार्ड साफ रखे। पता चला हैकि दिल्ली पुलिस ने गायब बच्चों
के अनसुलझे मामलों की संख्या को अपने रिकार्ड के हिसाब से कम करने के लिए एक नायाब
सुझाव पेश किया था। दिल्ली पुलिस के उच्चपदस्थ अधिकारी की तरफ से एक परिपत्र भेजा
गया था कि गायब/अपहृृत मामलों में अंतिम रिपोर्ट लगाने की कालावधि को तीन साल से
एक साल किया जाए।
स्पष्ट है कि पहले अगर किसी बच्चे के गायब/अपहृत होने के बाद कम
से कम तीन साल तक उसका मामला पुलिस रिकार्ड में दर्ज रहता था और अब एक ही झटके से
उसे एक साल कर देने से निश्चित ही पुलिस रिकार्ड बेहतर दिख सकेगा। इस अनियमित आदेश
पर दिल्ली कमीशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ चाइल्ड राइटस ने आपत्ति दर्ज की। अब जहां तक
अदालत का प्रश्न है तो उसका फैसला ऐसे तमाम मामलों में एक नईजमीन तोड़ता दिखता है।
बचपन बचाओ आंदोलन द्वारा गायब बच्चों के लिए डाली गईयाचिका के बारे में तत्कालीन
मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर की अगुआई में त्रिसदस्यीय पीठ ने निर्देश दिया था कि
आइंदा गायब होने वाले बच्चों के हर मामले को गंभीर अपराध के तौर पर दर्ज करना होगा और उसकी जांच
करनी होगी। ऐसे तमाम लंबित मामले जिसमें बच्चा अभी भी गायब है, मगर प्रथम सूचना रिपोर्ट दायर
नहीं की गई है, उनमें एक माह के अंदर रिपोर्ट दायर करनी
होगी। गायब होने वाले बच्चों के हर मामले में यह माना जाएगा कि बच्चा अपहृत हुआ है
या बच्चों के अवैध व्यापार का शिकार हुआ है। अब हर थाने में यह अनिवार्य होगा कि
वहां कम से कम एक पुलिस अधिकारी हो जिसे बच्चों के खिलाफ अपराधों की जांच के लिए
विशेष प्रशिक्षण दिया गया हो। इंतजार है कि इस प्रावधान से स्थितियां कब सुधरेंगीं।
Courtesy- kalptaru Express
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