प्रमोद भार्गव
विकास और सुशासन के दावों के बीच मध्यप्रदेश भूख और कुपोषण में अव्व्ल है। ऐसा तब
है, जब मध्यप्रदेश ने अनाज की ज्यादा
पैदावार के चलते लगातार दूसरी बार कृषि कर्मण पुरूस्कार जीता है। ‘‘भारतीय राज्य भूख सूचकांक’’ के मुताबिक
भूखमरी के मामले में मध्यप्रदेश देश में पहले स्थान पर है। यहां भुखमरी का प्रतिशत
30.9 प्रतिशत है। देश में भुखमरी की दर 23.3 फीसदी है। मध्यप्रदेश के बाद झारखण्ड में 28.7, विहार 27.3, छत्तीसगढ़ 26.6, गुजरात 24.7, उत्तरप्रदेश 22.1 और पश्चिम बंगाल में 21.10 फीसदी लोग
भुखमरी की चपेट में हैं। इस सर्वे
के निष्कर्ष तीन बिंदुओं के आधार पर निकाले गए हैं। इनमें कुपोषित लोगों की संख्या, कम वजन वाले बालकों की संख्या और पांच वर्ष तक के बच्चों की
बाल मृत्युदर के आंकड़ों को आधार बनाया गया है।
प्रदेश भर के बालक-बालिकाओं के मुंहबोले मामा बने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान
सार्वजनिक मंचों पर बच्चों को गोद में लेकर दावा करते हैं, कि इनकी सेहत, शिक्षा, विवाह और रोजगार की गांरटी इस मामा पर है। ये दावे थोथे
साबित हुए हैं। हालांकि इस सर्वे के पहले सरकार के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण
मंत्री नरोत्तम मिश्रा ने कुपोषण से एक साल के भीतर मरने वाले बच्चों की जो
जानकारी विधानसभा में दी थी, उतने
बच्चे किसी और प्रदेश में कुपोषण के कहर से अकाल मौत की गोद में नहीं सोए हैं। जनवरी 2012 से 31
दिसंबर 2012 तक मरने वाले बच्चों की यह संख्या 21,418 है। इन मौतों में 6 साल से कम के
20,086 और 6 से 12 आयु वर्ग के 1332 बच्चे शामिल
हैं। यह उस प्रदेश की हालत है, जहां कुपोषित बच्चों के संरक्षण के लिए केंद्रीय योजनाओं के
अलावा, मध्यप्रदेश में भी बच्चों के बेहतर
स्वास्थ्य की दृष्टि से 30 योजनाएं
चल रही हैं। जिनका मकसद मां और बच्चे की जीवन-रक्षा के लिए उत्तम सेवाएं देना है।
लेकिन ये दावे कितने कागजी हैं, इसकी
तसदीक खुद स्वास्थ्य मंत्री और भारतीय राज्य भूख सूचकांक ने कर दी है। यह विरोधाभास
इसलिए हैरत में डालने वाला है क्योंकि प्रदेश के किसान और मजदूरों की बदौलत ही
प्रदेश सरकार कृषि कर्मण पुरूस्कार हासिल कर पाई है।
गरीब के लाचार व मासूम नौनिहाल उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तकनीकी तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों से प्रदेश में औसतन 58 बच्चे रोजाना प्राण गंवा रहे हैं। कुपोषण की सहायक बीमारियों में निमोनिया, हैजा, बुखार, खसरा, तपेदिक, डायरिया, रक्तअल्पता और चेचक शामिल हैं। ये हालात पिछले पांच साल से बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। प्रदेश में सबसे बद्तर स्थिति सतना जिले में है। जबकि यहां यूनिसेफ द्वारा चलाए जा रहे सीक न्यूबोर्न केयर यूनिट में ही 2010 में केवल चार माह के भीतर 117 नवजात शिशु मौत की गोद में समा गए थे। 2011 में इस जिले में कुपोषण से 2001 बच्चों के मरने का सरकारी आंकड़ा आया था। सतना के बाद दूसरे नंबर पर बैतूल जिला है, जहां इसी अवधि में 1071 बच्चे मरे। इसके बाद तीसरे नंबर पर छतरपुर जिला आता है, जहां 1012 बच्चों की मौतें हुईं।
गरीब के लाचार व मासूम नौनिहाल उपचार की आधुनिक सुविधाओं व बेहतर तकनीकी तरीकों के बावजूद स्वास्थ्य केंद्रों की देहरी पर दम तोड़ रहे हैं। कुपोषण और उसके प्रभाव से शरीर में अनायास पैदा हो जाने वाली बीमारियों से प्रदेश में औसतन 58 बच्चे रोजाना प्राण गंवा रहे हैं। कुपोषण की सहायक बीमारियों में निमोनिया, हैजा, बुखार, खसरा, तपेदिक, डायरिया, रक्तअल्पता और चेचक शामिल हैं। ये हालात पिछले पांच साल से बद् से बद्तर होते जा रहे हैं। प्रदेश में सबसे बद्तर स्थिति सतना जिले में है। जबकि यहां यूनिसेफ द्वारा चलाए जा रहे सीक न्यूबोर्न केयर यूनिट में ही 2010 में केवल चार माह के भीतर 117 नवजात शिशु मौत की गोद में समा गए थे। 2011 में इस जिले में कुपोषण से 2001 बच्चों के मरने का सरकारी आंकड़ा आया था। सतना के बाद दूसरे नंबर पर बैतूल जिला है, जहां इसी अवधि में 1071 बच्चे मरे। इसके बाद तीसरे नंबर पर छतरपुर जिला आता है, जहां 1012 बच्चों की मौतें हुईं।
मध्यप्रदेश, कुपोषण से मरने वाले बच्चों की संख्या में
ही अव्वल नहीं है, औसत से कम वजन के बच्चे भी यहां सबसे ज्यादा हैं।
यहां पांच साल से कम उम्र के 60 फीसदी बच्चे
सामान्य से कम वजन के हैं। जबकि ऐसे बच्चों का राष्ट्रीय औसत 42.5 फीसदी है। प्रदेश के अनुसूचित जाति के बच्चों का तो और भी बुरा
हाल है। ऐसे 71 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वजन के हैं, जबकि ऐसे बच्चों का राष्ट्रीय औसत 54.5 प्रतिशत है। प्रदेश के शहरी इलाकों में ऐसे बच्चों की संख्या 51.3 प्रतिशत है, जबकि ग्रामीण
क्षेत्रों में 62.7
प्रतिशत है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ की ओर से
लोकसभा में पेश किए गए ये आंकड़े प्रदेश के नौनिहालों का हाल बयान करने के लिए काफी
हैं। यह जमीनी हकीकत, राष्ट्रीय
परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-तृतीय की रिपोर्ट में दर्ज आंकड़ों से सामने आई है।
ये हालात तब हैं, जब
प्रदेश में ब्रिटेन के अंतरराष्ट्रीय विकास विभाग के सहयोग से, उसी की मर्जी के मुताबिक करीब ढाई सौ पोषण पुनर्वास केंद्र
चल रहे हैं। इसके अलावा नवजात शिशुओं को कुपोषण मुक्ति के लिहाज से प्रदेश के छह
जिला चिकित्सालयों में यूनिसेफ की मदद से एसएनसीयू चलाए जा रहे हैं। जल्दी ही यह
सुविधा प्रदेश के आधे जिलों में विस्तार पाने जा रही है। गैर सरकारी संगठन भोजन का
अधिकार अभियान और स्पंदन के सर्वे भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि मध्यप्रदेश में
भूख और कुपोषण के हालात दिन-प्रतिदिन खराब होते जा रहे हैं।
कुपोषित बच्चों की ज्यादा संख्या उन जिलों में है, जो आदिवासी बहुल हैं और जो आसानी से कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव, बड़े बांध और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंष झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख की गिरफ्त में हैं। इस कारण इनकी आबादी घटने के भी आंकड़े 2011 की जनगणना में सामने आए हैं। सरकार अकसर हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से बहाना बनाती है कि ये मौतें कुपोषण से नहीं बल्कि खसरा, डायरिया अथवा तपेदिक से हुई हैं। लेकिन ये बेतुकी दलीलें हैं। कुपोषण और कुपोषणजन्य बीमारियां अल्पपोषण से ही शिशु-शरीर में उपजती हैं। यहां गौरतलब है कि राज्य में आज भी करीब 4225 आदिवासी बस्तियों में लोग समेकित बाल विकास योजना के लाभ से वंचित हैं। इस पर भी हैरानी है कि ज्यादातर आदिवासी बस्तियों में मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य व आंगनबाड़ी पोषण-आहार केंद्र महीनों खुलते ही नहीं हैं। यही हाल प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में बांटे जाने वाले मध्यान्ह भोजन का है। इस पर भी विसंगति है कि स्वास्थ्य के मद में सरकार एक व्यक्ति पर साल भर के लिए महज 125 रुपए खर्च करती है। तय है ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र बदहाल रहेंगे ही ?
कुपोषित बच्चों की ज्यादा संख्या उन जिलों में है, जो आदिवासी बहुल हैं और जो आसानी से कुपोषण का शिकार हो जाते हैं। आधुनिकता व शहरीकरण का दबाव, बड़े बांध और वन्य-प्राणी अभ्यारण्यों के संरक्षण की दृष्टि से बड़ी संख्या में विस्थापन का दंष झेल रही ये जनजातियां कुपोषण व भूख की गिरफ्त में हैं। इस कारण इनकी आबादी घटने के भी आंकड़े 2011 की जनगणना में सामने आए हैं। सरकार अकसर हकीकत पर पर्दा डालने की दृष्टि से बहाना बनाती है कि ये मौतें कुपोषण से नहीं बल्कि खसरा, डायरिया अथवा तपेदिक से हुई हैं। लेकिन ये बेतुकी दलीलें हैं। कुपोषण और कुपोषणजन्य बीमारियां अल्पपोषण से ही शिशु-शरीर में उपजती हैं। यहां गौरतलब है कि राज्य में आज भी करीब 4225 आदिवासी बस्तियों में लोग समेकित बाल विकास योजना के लाभ से वंचित हैं। इस पर भी हैरानी है कि ज्यादातर आदिवासी बस्तियों में मौजूद प्राथमिक स्वास्थ्य व आंगनबाड़ी पोषण-आहार केंद्र महीनों खुलते ही नहीं हैं। यही हाल प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में बांटे जाने वाले मध्यान्ह भोजन का है। इस पर भी विसंगति है कि स्वास्थ्य के मद में सरकार एक व्यक्ति पर साल भर के लिए महज 125 रुपए खर्च करती है। तय है ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र बदहाल रहेंगे ही ?
बच्चों में भूख से उपजे कुपोषण की जवाबदेही मध्यप्रदेश का प्रशासनिक नेतृत्व लेना
नहीं चाहता। इसलिए भूख और कुपोषण जैसे मुद्दे किसी भी राजनैतिक दल के घोषणा पत्र
में शामिल नहीं रहते हैं। लिहाजा सरकारें मौतों का कारण कुपोषण की बजाय कुपोषणजन्य
बीमारियों, अंधविष्वास और परिजनों की लापरवाही पर
डाल देते है। जबकि चिकित्सा विज्ञान अपने निष्कर्षों से यह सिद्ध कर चुका है कि
यदि कुपोषित बच्चों में कुपोषणजन्य बीमारियां घर कर जाती हैं, तो उनके मरने की संख्या आठ गुना बढ़ जाती है। देश महाशक्ति और
प्रदेशों में विकास की होड़ ने अमीरी और गरीबी के बीच इतना फासला बढ़ा दिया है कि
गरीब चिकित्सा,
साफ पानी, पौष्टिक आहार और आजीविका के जरुरी संसाधनों से लगातार वंचित
होता चला जा रहा है। लिहाजा स्वास्थ्य लाभ हासिल करने जैसे मामलों में आर्थिक रुप
से कमजोर लोगों की परेशानियां बढ़ रही हैं, उसी
अनुपात में भूख और कुपोषण का दायरा भी सुरसामुख की तरह फैलता जा रहा है।
Courtesy- http://www.kharinews.com/
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