मध्यप्रदेश लोक सहभागी साझा मंच

विनोद रैना - जनआंदोलनों के एक सहयात्री का जाना

- राहुल शर्मा 

(1950-2013)
अस्तित्ववादी विचारकों का कहना है कि हमारे प्रियजनों की मृत्यु हमें इसलिए भी सालती है कि उस जाने वाले व्यक्ति के साथ उसमें रखा हमारा हिस्सा भी हमसे हमेशा के लिए जुदा हो जाता है। यानि उनके साथ हम भी टुकड़ा-टुकड़ा मौत से गले मिलते जाते हैं। जाने-माने शिक्षाविद और विज्ञानकर्मी विनोद रैना का जाना निश्चित ही कई लोगों उनके अपने अस्तित्व के एक हिस्से का टूट कर बिखर जाने जैसा एहसास देता होगा। कैंसर जैसी घातक बीमारी के चलते गत 12 सितम्बर को दिल्ली राज्य कैंसर संस्थान में जब विनोद जी के आखिरी सांस लेने की प्रत्याशित ख़बर आई तो दिमाग में यह निदा फ़ाज़ली शेर ख़ुद -ब -ख़ुद यहाँ वहां टकराने लगा कि "मैदां की हार-जीत तो क़िस्मत की बात है, टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना" कैंसर पूरी क्रूरता से जीत ज़रुर गया लेकिन उसके ख़िलाफ़ जिस जीवट से विनोद जी पिछले तकरीबन 4 सालों से लड़े उसकी कहानी निश्चित ही प्रेरणास्पद है।

विनोद रैना वैसे तो भौतिकी पढ़े और पढ़ाये भी लेकिन उनका मन उस दौरान बड़ा विचलित रहा कि कुछ ऐसा जतन हो जिसमें विज्ञान को उसकी अपनी प्रयोगशालईन छवि व दुरूह पारिभाषिकताओं की साज़िशन क़ैद से मुक्त किया जा सके और वो जन-जन की सोच व समझ का हिस्सा बन उनके काम आए। इसकी परिणिति यह हुई कि उन्होंने ख़ुद को मध्यप्रदेश के होशंगाबाद ज़िले के स्कूलों में विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम को क्रियान्वित करने के प्रयासों से 1985 में सम्बद्ध कर लिया और यहीं आ बसे। यह निर्णय इस मायने में अनूठापन लिए हुए था कि हम तब भी और आज भी परोपकार की भावना या तार्किकता से प्रेरित कई ऐसे चिकित्सकों को तो देखते हैं कि वह लोगों की सेवा हेतु शहर की चमक-दमक छोड़ गांवों या कस्बों में बस कर लोगों का उपचार करने लगते हैं लेकिन एक विज्ञान पढ़ाने वाला विश्वविद्यालयीन शिक्षक गाँव व क़स्बों में वैज्ञानिक सोच-समझ के निर्माण के लिए जाये यह आज भी कम ही देखने को मिलता है। खैर विनोद जी ने इस कार्य को पूरे मनोयोग से एकलव्य जैसी संस्था के निर्माण में सहभागी बन वर्षों तक किया। इसके साथ-साथ जन-जन के लिए विज्ञान और तार्किक सोच के अभियान को एक राष्ट्रीय आन्दोलन का स्वरुप भी प्रदान करना ज़रूरी था सो देश के तमाम वैज्ञानिकों, शिक्षा, स्वास्थ्य व विकास के अन्यान्य क्षेत्रों में काम करने वाले लोगों के साथ सहभागी बन वर्ष 1988 में अखिल भारतीय जन विज्ञान नेटवर्क की स्थापना की। आज देशभर के 40 से ज़्यादा विज्ञान व विकास पर सक्रिय संगठन एवं आन्दोलन इस नेटवर्क से संबद्ध हैं।

अब यह कि लोगों में वैज्ञानिक सोच-समझ निर्मित करने के लिए उन्हें निरक्षरता के अंधकार से भी बाहर लाना अनिवार्य महसूस हो रहा था ताकि वे अपने बदहाली व शोषण के कारणों को समझने की दिशा में अग्रसर हो सकें। इसको ध्यान में रख भारत सरकार ने राष्ट्रीय साक्षरता मिशन बनाया जिसके फलस्वरूप वर्ष 1990 में भारत ज्ञान विज्ञान समिति की स्थापना हुई। विनोद जी इन सभी प्रक्रियाओं के साथ एक उत्प्रेरक के बतौर रहे। बाद में वे भारत ज्ञान विज्ञान समिति के राष्ट्रीय महासचिव भी बने व अंतिम समय तक इससे सम्बद्ध रहे।

विनोद रैना अपनी तमाम संलग्नताओं में से सर्वाधिक तौर पर देश के एक महत्वपूर्ण शिक्षाविद के रूप में ज्यादा स्वीकारे गए।शिक्षा के दर्शन से लेकर उसकी राजनीति व अर्थनीति जैसे गूढ़ व गंभीर विषयों पर विनोद जी का ज्ञान व उस ज्ञान को हर स्तर के लोगों के साथ हिंदी व अंग्रेज़ी संप्रेषित कर पाने की उनकी शैली अतुलनीय थी। जिसको देख यह लगता था कि वे शिक्षा को सिर्फ़ समझते, कहते या सुनाते नहीं बल्कि उसे अपनी सांस के साथ आबद्ध रखते हैं। अशिक्षित बनाये रखने की साज़िशों और शिक्षा, समाज और राज्य तंत्र के आपसी संबंधों पर उनकी समझ एकदम साफ़ थी। जिसके सन्दर्भ में उन्होंने ख़ूब लिखा और बोला भी। शिक्षा के प्रति उनके इस समर्पण में गुज़िश्ता एक दशक में और भी तावनी आई जब हर बच्चे को शिक्षा का मौलिक अधिकार दिलाये जाने का मसला सड़क और संसद में चहलकदमी करने लगा। इस मसले के विभिन्न आयामों को समझने-समझाने के लिए विनोद जी गाँवों से लेकर CABE (केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड) कमेटी की व अन्य उच्च स्तरीय अनगिनत बैठकों में पूरी सक्रियता से शामिल रहे। तमाम लोगों से इस विषय में मंत्रणाएं व नोंक-झोंक सब कुछ हुआ लेकिन विनोद जी पर तो जैसे जूनून सवार था कि शिक्षा का अधिकार विधेयक जितना हो सके लोगों के पक्ष में तब्दील करते हुए क़ानून में परिणित करवाना है। इसके कारण ही उन्हें अप्रैल 2010 से लागू हुए 6 से 14 वर्ष के बच्चों हेतु मुफ़्त व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार क़ानून का क्राफ्ट-मैन कहा जाता है। शिक्षा के अधिकार में उनके प्रयास थे कि कॉमन स्कूल सिस्टम से सभी के लिए शिक्षा मुहैया हो और तथा सभी सरकारी स्कूलों का केन्द्रीय विद्यालयों के स्तर तक उन्नयन किया जाए। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद सरकार ने इसको नहीं स्वीकारा। हालांकि कानून के मौजूदा स्वरुप से विनोद जी संतुष्ट रहे हों ऐसा नहीं था पर उनका कहना था कि शिक्षा का अधिकार एक बार कानूनी वैधता तो पा जाये उसके बाद भी इसको मुकम्मल करने की लड़ाई जारी रखी जानी होगी।

उनका यह भी मानना था कि क़ानून बनना जितना चुनौतीपूर्ण होता है उससे ज़्यादा चुनौतियां उसको सही ढंग से लागू करा पाने की होती हैं। यही वज़ह रही कि इस क़ानून के बनकर लागू होने के वर्ष में ही विनोद जी को अपने शरीर में गंभीर स्थिति के कैंसर के होने का पता चला और जैसा कि उनके क़रीब के सभी लोग जानते हैं कि 2010 से अपनी मृत्यु के कुछ ही दिन पहले तक वे बिना अपनी बीमारी को ज़्यादा लोगों में ज़ाहिर किये चुपचाप और कई गुना तीव्रता से शिक्षा का अधिकार कानून के ज़मीनी क्रियान्वयन की तमाम गतिविधियों में सर से पाँव तक मुब्तिला रहे। जैसे कि कैंसर और उनके जूनून में एक होड़ सी ठन गयी हो। शिक्षा का अधिकार क़ानून को सही ढंग से क्रियान्वित करने के लिए सरकार की राजनैतिक व प्रशासनिक इच्छाशक्ति में भारी कमी पर वे लगातार चिंता ज़ाहिर कर रहे थे।

यह जिजीविषा और आत्मबल का भी मसला है जो हो सकता है विनोद जी ने संगीत से गहरे जुड़ कर पाई हो। उनका संगीत के प्रति जुड़ाव फैशनेबुल नहीं था वे बखूबी संगीत की बारीकियों को समझते हुए कहते थे कि संगीत एक प्रकार से फिजिक्स भी है जो फिजिक्स समझने वाले को और भी आनंदित करता है। वे ख़ुद भी बहुत सुन्दर गाते थे और वामपंथी व प्रगतिशील होने के कारण फ़ैज़ उनके पसंदीदा शायर थे। उनके साथ की एक यात्रा मुझे बार-बार याद आती है जिसमें उन्होंनें मुकुल शिवपुत्र की गायन शैली और उनके जीवन पर बड़ी देर चर्चा करते-करते कई अनूठी और विस्मयकारी बातें बताईं। संगीत के प्रति उनके अगाध प्रेम का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि उनकी मृत्यु का समाचार देख, देश के ख्यातिलब्ध ध्रुपद गायक रमाकांत गुंदेचा ने फेसबुक पर टिपण्णी दी कि "विनोद जी का जाना बहुत ही दुखदाई है। वे बहुत बड़े संगीत रसिक और हमारे महत्वपूर्ण सहयोगी थे। भोपाल में ध्रुपद संस्थान की स्थापना में उनका योगदान अविस्मर्णीय रहेगा।"

इन सब के परे विनोद जी की तमाम सामाजिक व विकास के आन्दोलनों के साथ निकट की संलग्न्तायें रहीं जिनमें भोपाल गैस त्रासदी पीड़ितों व नर्मदा बचाओ आन्दोलन प्रमुख हैं। इनसे जुडाव क़ायम कर इनको बहुत निकट से जानने समझने व दिशा देने का काम वे करते रहे। इस देश में विज्ञान का लोकव्यापीकरण इसलिए भी चुनौतीपूर्ण है कि इसकी सम्प्रेषनीयता को प्रभावी बनाने पर ज़्यादा काम नहीं हुआ।इस सन्दर्भ में मुझे याद है कि ग्लोबल वार्मिंग के विषय पर हमने भोपाल में एक सेमिनार आयोजित किया था। विनोद जी इसके विज्ञान और राजनीति पर बड़े अधिकार के साथ बोलते थे सो वे सेमिनार के वक्ता थे। कार्यक्रम में उन्होंने कहा कि पर्यावरण की समस्याओं पर आम लोग ग्लोबल वार्मिंग या वैश्विक गर्माहट जैसी शब्दावली को नहीं समझेंगे और इससे जुड़ भी नहीं पाएंगे तो इस विषय को आम लोगों को समझाने के लिए, इसके विभिन्न खतरों व कारणों को नुक्कड़ नाटक में संजोया जाये और जिसका नाम "धरती माँ को बुखार" रखा जाए इसको लोग जल्दी समझेंगे। यह एक उदाहरण है लेकिन ऐसे हजारों प्रयोग व तौर-तरीक़ों को उन्होंने अपनाया और निर्मित किया जिसमें शिक्षा और विज्ञान को मनोरंजक रूप से खेल-खेल में समझाना संभव होता है। इनमें ज्ञान विज्ञान विद्यालयों की स्थापना जैसा प्रयोग भी शामिल है जो उन्होंने देश के तमाम गाँवों में भारत ज्ञान विज्ञान समिति के माध्यम से किया।


हम सब की ज़िन्दगी में कुछ ही व्यक्तित्व ऐसे आते हैं कि जिनका होना और बने रहना हमें भीतरी संबल और उत्साह प्रदान करता है। ख़ुदा किसी को नहीं तराशता बल्कि इंसान ख़ुद ही ख़ुद को और अपने आस-पास को तराशता है जिसके पीछे उसका दुनिया को प्यार करते जाने उसे और ख़ूबसूरती देने का पाक जज़्बा काम करता है। विनोद जी इस जज़्बे से सर से पांव तक सराबोर थे। दुःख तो ये है कि इस तरहा के ज़्यादातर लोग बड़ी मुश्किल से दुनिया में आते हैं और बड़ी ही जल्दी दुनिया से चले जाते हैं। 

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