आज की शिक्षा एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक या प्रशासक तो तैयार कर रही है, पर उसे एक संवेदनशील इंसान नहीं बना रही. इस शिक्षा में ऐसी क्षमताभी नहीं है कि यह किसी को साहित्यकार, कलाकार, संगीतकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक या चिंतक बना सके. हालां कि यह न उसकी मंशा है, न जरूरत...
महेश पुनेठा
आजादी के पैंसठ साल गुजर गए हैं. अभी तक हम समान, समावेशी, मूल्यपरक और सबको शिक्षा नहीं दे पाए हैं. ये लक्ष्य सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत करके ही प्राप्त करने संभव थे, लेकिन लगातार शिक्षा का व्यवसायीकरण और निजीकरण बढ़ने से ये लक्ष्य शिक्षा संबंधी दस्तावेजों की शोभा मात्र बनकर रह गए हैं. सरकार की नीतियाँ प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रवृत्ति को बढ़ावा दे रही हैं. एक ओर सबको शिक्षा की बात और दूसरी ओर शिक्षा के व्यवसायीकरण और निजीकरण को खुली छूट, यह कैसा अंतर्विरोध है?
आज शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य अच्छा इंसान बनना नहीं, बल्कि अच्छा वेतन पाना मात्र रह गया है. ज्ञान और उत्पादक कार्य के बीच गहरी खाई बनी हुई है. शिक्षा पूँजी के हित में हो गयी है और एक ऐसे वर्ग को जन्म दे रही है, जो विचार और कार्य में पूँजी का मददगार हो. बाजार ने शिक्षा को मुनाफे का माध्यम बना लिया है. शिक्षा जन सरोकारों की अपेक्षा ‘धन सरोकारों’ से जुड़ गई.
स्कूल शिक्षा की दुकान और विद्यार्थी उपभोक्ता में बदल गए हैं. जिसके पास जैसे आर्थिक संसाधन हैं वह वैसी शिक्षा खरीद रहा है. विभिन्न उपभोक्ता वस्तुओं की तरह बाजार अलग-अलग गुणवत्ता वाली शिक्षा को लेकर उपस्थित हो रहा है. कम पैसे वालों के लिए एक तरह की शिक्षा है और अधिक पैसों वालों के लिए दूसरे तरह की.
‘जिसकी आर्थिक हैसियत जैसी है वैसी शिक्षा खरीद ले’, यह बाजार का अघोषित ऐलान है. ट्यूशन या कोचिंग नए धंधे के रूप में अस्तित्व में आया है. अखबारों में बड़े-बड़े विज्ञापन देकर इनसे जुड़े संस्थान विद्यार्थियों और अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं. ‘कुंजी’ और ‘गाइड’ छापने वालों का धंधा खूब फल-फूल रहा है. सभी का जोर एक ही बिंदु पर है कि कैसे परीक्षा में अधिकाधिक अंक प्राप्त किए जा सकते हैं? सभी यही तरकीब बताने में लगे हुए हैं.
बच्चों को सांस लेने की फुरसत नहीं है. एक अंधी दौड़ में सभी दौड़ रहे हैं. जो सफल हो गए वे अपने आप को सिकंदर समझ रहे हैं और जो पीछे रह जा रहे हैं वे कुंठा, तनाव तथा अवसादग्रस्त हो आत्महत्या कर रहे हैं या मानसिक संतुलन खो रहे हैं.
कॉरपोरेट जगत की गिद्ध दृष्टि शिक्षा के व्यवसाय पर लगी हुई है. हो भी क्यों न! इससे उसे दोहरा लाभ है. पहला, शिक्षा में बार-बार निवेश किए बिना दीर्घकाल तक धन की प्राप्ति. दूसरा, शिक्षा में नियंत्रण के द्वारा नई पीढ़ी की मानसिकता को बाजार के अनुकूल कर अपने बाजार का निर्बाध रूप से विस्तार करना. शिक्षा में बाजार का एजेंडा संस्थानों के निजीकरण और व्यावसायीकरण से कहीं बड़ा है.
भूमंडलीकरण का लोगों के ज्ञान को विकृत करने और औपनिवेशिक रूपाकारों के अनुकूल बनाने के रूप में इस्तेमाल किया गया है. विश्व बैंक जैसी आर्थिक संस्थाएं शिक्षा की नीतियाँ तय कर रही हैं. यह समझा जा सकता है जब एक आर्थिक संस्था शिक्षा की नीतियों का निर्धारण करने लगेगी, तो उसकी प्राथमिकता में कौन सी बातें होंगी.
आज शिक्षा में मूल्यों की बात केवल कहने भर के लिए रह गई है. मानवीय मूल्य हाथी के दाँत हो चुके हैं. सामाजिक न्याय जैसे शब्द सजावट के शब्द बन गए हैं. बाजार में बिक रही शिक्षा का मूल्यों से कुछ लेना देना नहीं है. यह विशुद्ध रूप से बाजार के अनुकूल शिक्षा है. इसका उद्देश्य ‘अर्थ मानव’ तथा व्यवस्था की मशीन में फिट होने वाले पुर्जे तैयार करना है.
शिक्षा की दुकानों में वही शिक्षा बेची जा रही है जिसकी कॉरपोरेट जगत को जरूरत है. बाजार को ऐसा मानव संसाधन चाहिए जो उसकी कंपनियों में लगी अत्याधुनिक तकनीक की मशीनों को सही ढंग से परिचालित कर सके. उसके उत्पादों को खरीदने वाले उपभोक्ताओं को मानसिक रूप से तैयार कर सके. ऐसे उत्पादों को भी बेच सके जो उपभोक्ता की जरूरी आवश्यकता न हो.
बाजार सोचने-समझने वाला संवेदनशील मानव नहीं चाहता. इसलिए आज की शिक्षा एक कुशल डॉक्टर, इंजीनियर, प्रबंधक या प्रशासक तो तैयार कर रही है, पर उसे एक संवेदनशील इंसान नहीं बना रही है. न ही यह शिक्षा सृजनशीलता को बढ़ाने में सफल हो पा रही है. सृजनशीलता के अवसर इस बाजारवादी शिक्षा ने निगल दिए हैं. इस शिक्षा में ऐसी क्षमता नहीं है कि यह किसी को साहित्यकार, कलाकार, संगीतकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक या चिंतक बना सके. यह उसकी न मंशा है और न ही जरूरत.
यदि शिक्षाक्रम बाजार की जरूरतों से निर्धारित होगा, तो वह बाजार की जरूरतों के अनुरूप क्षमताओं और कौशलों को विकसित करने वाला ही होगा. इसका परिणाम शिक्षा के व्यापक सामाजिक आधारों, शिक्षा में चिंतन की भूमिका और संवेदनात्मक पहलुओं से दूर ले जाएगा. शिक्षा में निहित मानवीय और सामाजिक तत्वों जैसे कि सामाजिक न्याय, समता और जेंडर जैसे मुद्दों, जिनकी शिक्षा में वैसे भी कम ही सराहना होती है, शिक्षा प्रक्रियाओं में पीछे चले जाएंगे. इंसान की बुनियादी आवश्यकताओं से जुड़े मुद्दों, शिक्षा, स्वास्थ्य, भोजन या मानवीय समता या स्वतंत्रता को किसी भी देश में निजीकरण की प्रक्रियाएं बराबरी की तरफ नहीं ले गईं हैं.
शिक्षा आर्थिक उदारीकरण के एजेंडे को लागू करने का माध्यम बन चुकी है. उसके माध्यम से आर्थिक उदारीकरण के पक्ष में माहौल तैयार करने का काम किया जा रहा है. ऐसा ही करने पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित हैं. आज उच्च शिक्षा में विदेशी विश्वविद्यालय को आने की अनुमति दे दी गई है, वह दिन दूर नहीं जब कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी पूरे देश में शिक्षा देने का काम अपने हाथ में ले लेगी. तब देश की संप्रभुता और संस्कृति का क्या हाल होगा, समझा जा सकता है.
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी ‘लोककल्याणकारी, समाजवादी तथा लोकतांत्रिक सरकारें’ इसी शिक्षा की पैरोकार हैं. आजादी के बाद से लेकर आज तक चल रही दोहरी शिक्षा जो आज बहुपरती शिक्षा में बदल गयी है, इसी परिणाम है. योजना आयोग की जनता के पैंसों से विद्यालयों का आधारभूत ढाँचा विकसित कर प्रबंधन के नाम पर उन्हें निजी हाथों को देने की योजना बन चुकी है.
प्रथम चरण में देशभर में स्थापित होने वाले छह हजार मॉडल स्कूलों में से दो हजार पाँच सौ स्कूलों को ’सार्वजनिक-निजी साझेदारी‘ के अंतर्गत किसी कॉरपोरेट, स्वयंसेवी संगठन, स्वयं सहायता समूह, व्यक्ति और समुदाय आधारित संगठनों को सौंपा जाएगा. भविष्य में इस भागीदारी का बढ़ना निश्चित है. कई राज्यों में तो यह प्रक्रिया प्रारम्भ भी हो चुकी है.
शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 ने तो रही सही कसर भी पूरी कर दी है. इस अधिनियम में ऐसे कुछ प्रावधान हैं, जो शिक्षा के निजीकरण को खुला प्रोत्साहन देते हैं. निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत गरीब-वंचित तबके के बच्चों को वाउचर प्रदान कर भेजने की योजना इसका एक उदाहरण है. इस प्रावधान से आने वाले समय में सरकारें नये विद्यालय खोलने के अपने दायित्व से बच जाएंगी. साथ ही इस मान्यता को भी अधिक बल मिलेगा कि निजी स्कूल सरकारी स्कूलों से बेहतर होते हैं.
कैसी विडंबना है कि सरकार को अपने ही विद्यालयों पर विश्वास नहीं रह गया है. सरकार सरकारी स्कूलों की शैक्षिक गुणवत्ता को बढ़ाने की अपेक्षा जनता को निजी विद्यालयों की ओर जाने को प्रोत्साहित कर रही है. होना तो यह चाहिए था कि सरकार को अपने बीमार विद्यालयों का इलाज कर निजी विद्यालयों में अध्ययनरत बच्चों को उस ओर आकर्षित करे. उनकी गुणवत्ता को इस स्तर तक उठाए कि सम्पन्न वर्ग के बच्चे भी उन विद्यालयों में प्रवेश लेने को उत्सुक हों. भले ही सरकार उस वर्ग के बच्चों से शुल्क वसूल करे.
ऐसा करने से दोहरा लाभ हो सकता था-पहला, हर वर्ग के बच्चे एक समान स्कूल में पढ़ते जो समाज में वर्गभेद को समाप्त करता. दूसरा, सरकारी विद्यालयों को चलाने के लिए आर्थिक संसाधन जुटाए जा सकते. यह जरूरी नहीं है कि अमीर या उच्च मध्यवर्ग के बच्चों को भी निःशुल्क शिक्षा प्रदान की जाए. एक तरह से वाउचर योजना निजी क्षेत्र को लाभ पहुंचाने की योजना है.
ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार धीरे-धीरे शिक्षा को निजी क्षेत्र के भरोसे छोड़कर अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहती है. आज सरकारी विद्यालयों में सिर्फ गरीब बच्चे आ रहे हैं. जिस दिन ये बच्चे भी वाउचर लेकर निजी स्कूलों में चले जायेंगे, तो सरकारी स्कूलों को बंद करने के सिवाय कोई अन्य उपाय नहीं रहेगा. यह सिलसिला शुरू भी हो गया है. इस तरह एक दिन शिक्षा पूरी तरह निजी हाथों में चली जाएगी और देशी-विदेशी व्यापारी शुद्ध लाभ के लिए शिक्षण संस्थाएं संचालित करने लगेंगे.
सोचा जा सकता है तब शिक्षा का उद्देश्य क्या रह जाएगा? शिक्षा में कितनी मूल्यों की बात रह जाएगी और कितनी जीवन की? तब शिक्षा का संबंध चेतना से नहीं रह जाएगा. शिक्षा जकड़न को तोड़े, इसकी कोई जरूरत महसूस नहीं की जाएगी. बच्चों में विवेकशीलता का विकास शिक्षा का कोई सरोकार नहीं रह जाएगा, क्योंकि बाजार की दृष्टि से इनकी कोई उपयोगिता नहीं है.
जैसा कि देखा भी जा रहा है निजी स्वामित्व वाले शिक्षण संस्थानों में शिक्षा के नाम पर पाठ्चर्या में उन्हीं विषयों को शामिल किया जा रहा है, जो उद्योगों के विस्तार और संचालन के लिए जरूरी है. वहां भाषा व मानविकी जैसे चेतना विकसित करने व समग्र व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले विषयों की लगातार उपेक्षा की जा रही है. उनके स्थान पर प्रबंधन व तकनीकी विषयों को बढ़ावा दिया जा रहा है.
बच्चा जो पढ़ना चाह रहा है उसे वह नहीं पढ़ने दिया जा रहा है, बल्कि बाजार उसे जो पढ़ाना चाह रहा है उसे वह पढ़ता है. बच्चे की सृजनात्कमता और रुचि का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा है. बड़े-बड़े विज्ञापनों से छात्र-अभिभावकों का मन तैयार किया जा रहा है. उन्हें हसीन सपने दिखाए जा रहे हैं. इतने बड़े-बड़े दावे किए जा रहे हैं कि उन्हें लगता है कि अमुक पाठ्यक्रम पढ़ने से उनकी किस्मत ही बदल जाएगी.
कुछ लोग तर्क देते हैं कि निजी विद्यालयों में 25 प्रतिशत स्थान निर्धन और वंचित बच्चों के लिए आरक्षित हो जाने के प्रावधान से अमीर और गरीब वर्ग के बीच खाई पाटने में सहायता मिलेगी. अब रिक्शा चालकों, सफाई कर्मियों, ठेले वालों, मजदूरों आदि के बच्चे साहबों और सेठ-साहूकारों के बच्चों के साथ बैठकर पढ़ेंगे, लेकिन पिछले तीन वर्ष के अनुभव बताते हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है. ऐसा होने के स्थान पर बच्चों की एक कैटेगरी (बाउचर वाले बच्चे) बनने की अधिक संभावना है.
निजी विद्यालयों ने वाउचर वाले बच्चों के लिए एक तोड़ निकाल लिया है, ऐसे बच्चों के लिए एक अलग कक्षा बना दी गयी है. यहाँ ये बच्चे केवल हीनता ग्रंथि के शिकार होंगे, उससे अधिक उनको कुछ मिलने वाला नहीं है. किसी को यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि सबको शिक्षा और बराबरी का लक्ष्य निजी स्कूलों के भरोसे प्राप्त किया जा सकता है, बल्कि इनसे एक खतरा और बढ़ा है संविधान में उल्लिखित लोकतांत्रिक व धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की निजी क्षेत्र की अनेक शिक्षण संस्थाओं ने खूब धज्जियां उड़ायी हैं.
शिक्षा को कट्टतरता, धर्मान्धता, जातिवाद, भाषाई दुराग्रह एवं क्षेत्रवाद फैलाने का माध्यम बनाया गया है. विशेष रूप से सांप्रदायिक मानसिकता को बोया और विकसित किया गया है. जैसा कि प्रख्यात शिक्षाविद् अनिल सदगोपाल का मानना भी है, ‘शिक्षा के जरिए वर्ग-भेद, जाति-भेद, धार्मिक कट्टरता, नस्लवाद, पितृसत्ता, सामंती व गैरतार्किक सोच, पिछडेपन आदि विकृतियों के खिलाफ लड़ाई आगे बढ़ाने के सरोकार गौण हो रहे हैं. शिक्षा वैश्विक बाजार की ताकतों के हाथ में वर्चस्ववाद, शोषण, सांप्रादियकता व विषमता फैलाने का हथियार बनती जा रही है.’
एक ओर शिक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण अपना ऐसा रंग दिखा रहा है, दूसरी ओर अभी भी सरकार सबको शिक्षा देने के नाम पर संसाधनों के अभाव का रोना रोती रहती है. वह वही तर्क देती है जो 1835 में औपनिवेशिक सरकार देती थी. सरकारी स्कूल व्यवस्था को वैश्विक पूँजी के दबाव में ध्वस्त करने का उपक्रम किया जा रहा है. शिक्षा के क्षेत्र में चलाई जा रही तमाम परियोजनाएं इसी का हिस्सा हैं, जिनको 1990 के जोमतियन सम्मेलन से गति प्राप्त हुई है. इससे पूर्व भारत की शिक्षा नीतियों में किसी न किसी रूप में यह कोशिश होती थी कि वह देश के संविधान के अनुरूप काम करे.
संविधान में शिक्षा और सामाजिक विकास के जो मूल उद्देश्य हैं उनको पूरा करे, पर उत्तर-जोमितियन सम्मेलन के बाद संविधान के आधार की जगह वैश्वीकरण की बाजार-आधारित नीतियों ने ले ली तथा भारत सरकार का स्थान अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक ने. एक परिवर्तन और हुआ इससे पहले शिक्षा नीतियों या कार्यक्रम की रूपरेखा में संसद से पूछे बगैर कोई भी परिवर्तन नहीं किया जाता था, लेकिन इसके बाद उसे पूछे बिना और बिना चर्चा के अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होने लगे.
यह इसलिए हुआ क्योंकि हम पहले से खर्च किए जा रहे 100 पैसे में 4 पैसे और जोड़ने में समर्थ नहीं हो पाए. एक नई प्रवृत्ति और उभरी अब अंतरराष्ट्रीय वित्त एजेंसियाँ सीधे राज्य सरकारों के साथ समझौते करने लगी हैं जैसे केन्द्र का कोई महत्व ही न हो. विश्व बैंक की यह प्रक्रिया राज्य की भूमिका को समाप्त करने की उसकी स्थापित नीति के अनुरूप है-राज्य की भूमिका को कमजोर करके ही सीधे बाजार पर कब्जा किया जा सकता है.
उक्त सम्मेलन में तीसरी दुनिया के अनेक देशों के साथ-साथ भारत ने भी दस्तावेजों पर दस्तखत किए, जिनमें बच्चों को शिक्षा देने के लिए ‘सबके लिए शिक्षा’ कार्यक्रम के तहत अंतरराष्ट्रीय मदद लेने की स्वीकारोक्ति की गई थी. बतौर नीति यह पहली बार हुआ. यह सब शिक्षा के निजीकरण के उद्देश्य से किया गया. इस प्रकार राज्य एक तरफ अपने संवैधानिक दायित्वों से मुँह मोड़ता जा रहा है और साथ ही साथ एक छोटे उध्र्वगामी वर्ग के लाभ के लिए स्कूली शिक्षा के निजीकरण और व्यावसायीकरण को भी प्रश्रय दे रहा है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि न तो परियोजनाओं से और न ही पीपीपी मोड से शिक्षा का भला हो सकता है, इसके लिए तो एक स्थाई और मजबूत सार्वजनिक ढाँचा खड़ा करने की जरूरत है. अन्यथा सबको शिक्षा और समान शिक्षा केवल स्वप्न मात्र बनकर रह जाएंगे. कितने अफसोस की बात है कि समान शिक्षा के लिए आजादी से अब तक संसद से लेकर शिक्षा संबंधी विभिन्न दस्तावेजों में अनेकानेक बार संकल्प व्यक्त किया जा चुका है, लेकिन धरातल में कहीं समान शिक्षा नहीं दिखाई देती है.
वर्ष 1966 में कोठारी शिक्षा आयोग ने पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की अनुशंसा करते हुए कहा था कि इसके बगैर एक समतामूलक व समरस समाज का निर्माण नहीं हो सकता है. यदि ऐसा न हो सका तो विषमता और आपसी दूरियाँ बढ़ती जाएंगी. इस रिपोर्ट में कहा गया कि स्कूलों और कालेजों के प्रतिमानों में भेद शैक्षिक असमानता के अत्यंत दुःसाध्य रूप उत्पन्न करते हैं.
उसका मानना था कि निजी उद्यम के कुछ रूपों ने शिक्षा पर सकारात्मक के बजाए नकारात्मक योगदान ही किया है. आयोग की स्पष्ट मान्यता थी आधुनिक समाज के लिए बढ़ती शिक्षा की जरूरतों को केवल राज्य ही पूरा कर सकता है और निजी उद्यम पर अतिरिक्त निर्भरता दिखाना बहुत बड़ी गड़बड़ी होगी. 1986 की शिक्षा नीति में कहा गया कि कोठारी शिक्षा आयोग द्वारा अनुशंसित पड़ोसी स्कूल की अवधारणा पर आधारित समान स्कूल प्रणाली की ओर बढ़ने के लिए कारगर कदम उठाए जाएंगे.
पर इसी अधिनियम में अनौपचारिक स्कूलों की व्यवस्था कर इस अवधारणा की धज्जी उड़ाई गयीं. इसी तरह शिक्षा अधिनियम 2009 में ‘साम्यपूर्ण शिक्षा’ शब्द को बड़ी कोशिशों के बाद स्वीकार तो किया गया, लेकिन इस दिशा में कोई कारगर कदम उठाने के बजाय अधिनियम में ही चार तरह के विद्यालयों को स्वीकृति प्रदान की गई-1-सरकारी विद्यालय 2-सरकार से सहायता प्राप्त निजी विद्यालय 3-गैर सहायता प्राप्त निजी स्कूल 4-विशेष श्रेणी के सरकारी विद्यालय जैसे-केंद्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय, सैनिक स्कूल.
इनके स्तर में काफी भिन्नता है. इनमें भी प्रत्येक स्तर के विद्यालयों में भी आंतरिक स्तर पर भी अंतर दिखाई देता है. नवोदय विद्यालय केंद्रीय विद्यालयों का मुकाबला नहीं कर पाते हैं, राज्यों द्वारा संचालित ग्रामीण विद्यालय गुणवत्ता में शहरी स्कूलों से काफी नीचे हैं. साथ ही शिक्षा गारंटी केन्द्रों जैसी व्यवस्था भी है जो गुणवत्ता में अन्य सरकारी स्कूलों से काफी नीचे है. यही हाल निजी स्कूलों का भी है.
पब्लिक स्कूलों की भी अनेक परतें हैं. एक ओर इंग्लैंड या अमेरिका के पब्लिक स्कूलों से होड़ लेते स्कूलों हैं, तो दूसरी ओर शिक्षा की दरिद्र दुकानें जिनके पास बच्चों के बैठने तक के लिए भी उचित हवादार कमरे भी नहीं हैं जहाँ हाईस्कूल-इंटर पास अध्यापक बिना प्रशिक्षण के शिक्षण कार्य कर रहे हैं. शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी इस असमानता को और अधिक बढ़ा रहा है. इससे एक और स्तर बन रहा है. साथ ही सूचना विस्फोट और कंप्यूटर-तकनीक ने भी शैक्षिक क्षेत्र के दोफाड़ कर दिए हैं.
यूँ कह सकते हैं कि एक ओर तो कंप्यूटर से काम ले सकने वाले यानी कम्प्यूटर साक्षर लोग हैं जो ज्ञान और सूचना की वैश्विक संचरण-प्रक्रिया से जुड़े हैं, दूसरी ओर इस संचरण से असंबद्ध अथवा इस संप्रेषण प्रक्रिया से बाहर रह गए लोग हैं, जो कि अपनी तादाद में बहुसंख्यक हैं. ऐसे में कैसे समानता स्थापित हो सकती है? कैसे संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक विकास और सभी को विकास के समान अवसर (अनुच्छेद-15) देने का दायित्व सरकारें पूरा कर सकती हैं?
इसके लिए जरूरी है कि सरकारी शिक्षा को मजबूत किया जाये. विश्व के विकसित देश जो निजीकरण के बड़े पैरोकार हैं, उवहाँ अभी भी शिक्षा सार्वजनिक क्षेत्र में है. फिनलैंड जैसे देशों से हमें सीखना चाहिए. फिनलैंड विश्व के उन देशों में से है जिसकी स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता विश्व में सबसे अव्वल है. इसका कारण शिक्षा में समानता, प्रतिस्पर्धा की जगह सहयोग पर जोर तथा शिक्षा में खर्च की पूरी जिम्मेदारी सरकार द्वारा लेना है. वहाँ पर कोई भी निजी स्कूल नहीं है. किसी भी स्कूल को फीस लेने की इजाजत नहीं है. हर स्कूल में निःशुल्क भोजन, इलाज तथा मनोवैज्ञानिक परामर्श और मार्गदर्शन दिया जाता है.
सबको शिक्षा और समानतामूलक शिक्षा का मसला गुणवत्ता से भी जुड़ा हुआ है. यदि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दी जाती है, तो ऐसी शिक्षा का दिया जाना किसी मतलब का नहीं है. शिक्षक-छात्र का जो मौजूदा अनुपात (1ः30) तय किया गया है उससे कितनी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है, यह समझा जा सकता है.
एक शिक्षक द्वारा एक समय में एक से अधिक कक्षाओं और स्तरों के बच्चों को पढ़ाने से बच्चों को शिक्षा नहीं, सरकारी प्रमाणपत्र ही दिया जा सकता है. सरकारी स्कूलों की इसी कमजोरी के चलते आज हर अभिवावक अपनी हैसियत के अनुकूल अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ाना चाह रहा है. इसके लिए कहीं न कहीं सरकार की नीतियाँ जिम्मेदार नहीं हैं? एक बड़ा वर्ग अभाव वाली शिक्षा प्राप्त करने के लिए विवश क्यों है. क्या सरकार को इस अभाव को दूर नहीं करना चाहिए.
शिक्षाविदों का मानना है कि शिक्षा मानव को बौद्धिक और भावनात्मक रूप से इतना मजबूत और दृष्टिवान बनाती है कि वह स्वयं ही आगे बढ़ने का रास्ता, ज्ञान के सृजन का रास्ता और उसके सहारे अपने और अपने समाज के विकास का रास्ता ढूँढने योग्य हो जाता है. क्या हमारी शिक्षा ऐसा कर पा रही है? इस दिशा में गम्भीरतापूर्वक विचार कर ईमानदारी से आगे बढ़ने की आवश्यकता है.
उत्तराखंड के माध्यमिक स्कूल में शिक्षक महेश चन्द्र पुनेठा कवि हैं.
Courtesy- http://www.janjwar.com/
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