मध्यप्रदेश लोक सहभागी साझा मंच

गरीबी नहीं गरीबों को खत्म करने की सरकारी साजिश ,

(योजना आयोग द्वारा गरीबी आंकलन 2011-12 के संदर्भ में)


Hindustan Times Bhopal 31 July 2013 


लगता है हमारे देश  की सरकार का  देश की जमीनी वास्तविकताओं से कोई सरोकार नहीं है। आयोग का कहना है कि चमत्कारिक रुप से 2004-05 में 37.2 प्रतिशत के मुकाबले 2011-12 में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वालों की संख्या कम हो कर 21.9 प्रतिशत हो गई है।

कमरतोड़ महंगाई के इस दौर में बड़े पैमाने पर कुपोषण और मातृत्व और बाल स्वास्थ्य में निचले पायदान पर काबिज मध्यप्रदेष जैसे प्रांत में 771 रुपये ग्रामीण क्षेत्रों में तथा शहरी क्षेत्र में 897 रुपये से अधिक खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीबी रेखा से बाहर मान लिया गया है।  

दरअसल योजना आयोग द्वारा जारी किए गए गरीबी से जुड़े आंकड़ों का विरोधाभास यह है कि ये आंकड़े सुरेश तेंडुलकर समिति के उन आंकड़ों पर आधारित हैं, जिन्हें खुद योजना आयोग ही पिछले साल खारिज कर चुका है और इसकी फिर से पड़ताल करने का जिम्मा सी. रंगराजन समिति को सौंपा गया है, जिसे जून 2014 में अपनी रिपोर्ट देना है।

दरअसल यह पूरी कवायत महज आंकड़ों की बाजीगरी है इन घटते आंकड़ों से गरीबों को सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों से वंचित करने की तैयारी के रुप में देखा जाना चाहिए। ताकि सैंसेक्स के रथ पर सवार तथाकथित विकास को स्थापित किया जा सके। जमीनी असलियत को नकारने के दो कारण दिखते हैं। एक यह कि बीपीएल का दायरा कम दिखा कर सबसिडी और सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं में कटौती की जा सके। दूसरे, यह साबित किया जाता रहे कि मौजूदा आर्थिक नीतियों के काफी अच्छे नतीजे आ रहे हैं। 

गरीबी आंकलन करने के सूचक और तरीके भी सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करते हैं। किस तरह से सरकार द्वारा किए जा रहे गरीबी आंकलन में बड़े पैमाने पर वंचित समुदाय के लोग तय पैमाने के आधार पर गरीबी रेखा से वहिष्कृत हो जाते हैं। इसकी बानगी अगस्त 2011 में मध्य प्रदेष लोक संघर्ष एवं साथी संगठनों द्वारा प्रदेष में ‘‘सामाजिक आर्थिक एवं जाति जनगणना 2011’’ (गरीबी रेखा सर्वे) और उससे जुड़े प्रभावों को जानने के लिए किए गए अध्ययन से साफ तौर पर निकलकर आती है। यह अध्ययन 13 जिलों के 24 गांवों के 2621 परिवारों में सरकार द्वारा तय मापदण्डों एवं निर्धारित प्रपत्र के आधार पर किया गया था।

अध्ययन के दौरान स्वतः बहिष्करण के पहले चरण में हमने पाया कि, सर्वेक्षित 2621 परिवारों में से 561 परिवार यानी लगभग 21.5 प्रतिशत परिवार पहले चरण में ही बाहर हो गए। इनमे से ज्यादातर पिछड़ी आदिम जनजाति से जुड़े परिवार हैं। इनमें 145 परिवार (24 फीसदी) ऐसे हैं जो एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं। 

दूसरे चरण (स्वतः समावेश ) में हमने पाया कि, बहिष्करण के बाद शेष बचे 2060 परिवारों में से केवल 352 परिवार (13.4 प्रतिषत) ही इस श्रेणी में आ रहे हैं। 

तीसरे चरण (अभाव सूचकों के आधार पर स्कोरिंग) में हमारे अध्ययन के तहत 1708 परिवार पंहुचे. इनमे से लगभग 1052 परिवार स्कोरिंग के आधार पर चयन होना था। इसमें हमने पाया कि सरकार द्वारा तय 7 सूचकों में से 3 या उससे अधिक सूचक पर खरे उतरने वाले लोगों की संख्या 1052 होगी। 

इस तरह से हमारे अध्ययन का निष्कर्ष बताता है कि, बीपीएल सूचकों के कारण जो 561 परिवार बाहर हो गए, उनमें 145 (24 फीसदी) ऐसे हैं जो एक कमरे के कच्चे मकान में रहते हैं। वहीं 126 परिवारों में 16 से 59 साल का कोई सदस्य नहीं है, जबकि 115 परिवार महिला मुखिया वाले हैं। बहिष्कृत हुए 70 परिवारों में  विकलांग सदस्य है। गरीबी रेखा से बाहर हो रहे परिवारों में 35 अनुसूचित जनजाति के हैं। उपरोक्त निष्कर्षों से साफ है कि हमारे नीति निर्माताओं द्वारा सामाजिक आर्थिक और जाति जनगणना 2011 के लिए  तय किए गए बहिष्करण के सूचकों का सबसे ज्यादा कुप्रभाव समाज के सबसे कमजोर और वंचित तबके पर पड़ता नजर आ रहा है।

प्रदेश के विभिन्न जिलों में वंचित समुदाय के साथ कार्यर्त म.प्र. लोक सघर्ष साझा मंच के घटक संगठनों  की प्रतिक्रिया - 

श्योपुर जिले में सहरिया समुदाय के बीच काम कर रही सहयोग संस्था की उमा चतुर्वेदी ने बताया कि, योजना आयोग और सरकार द्वारा तय की गई गरीबी रेखा की नई परिभाषा गरीबों के हित में नहीं है। मध्य प्रदेष में सहरिया आदिवासी समुदाय गंभीर रूप से भूख और कुपोषण की गिरफ्त में है इनमें अधिकांष परिवार मजदूरी से गुजारा करते हैं। इन परिवारों के लिए सबसे बड़ा सहारा गरीबी रेखा या अन्त्योदय कार्ड होना है। सरकार की इस नई परिभाषा से इस समुदाय में बच्चों में कुपोषण, भुखमरी और बढ़ेगी। मंहगाई दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। जबकि, गरीबों की थाली/सब्सिडी कम होती जा रही है। मंहगाई दर के साथ साथ गरीबी आंकलन के लिए तय की गई राषि भी बढ़नी चाहिए।
  
दमोह जिले में दलित और आदिवासी समुदाय के बीच काम कर रही संस्था ग्रामीण विकास समिति, के गोविंद यादव का कहना है कि, बुंदेलखण्ड क्षेत्र की स्थिति से सभी परिचित हैं, गरीबी के कारण हमारे जिले से बड़ी संख्या में लोग पलायन पर जाते हैं। जिले में किसान आत्महत्या आम हो गईं हैं। ऐसे में योजना आयोग द्वारा कहा जाना कि जो व्यक्ति 27.20 रू. से ज्यादा खर्च करता है वह गरीब नहीं है। यह लगता है कि सरकार के नुमाइंदे गरीबों का मजाक उड़ा रहे हैं। इस राषि से तो पशुओं को एक दिन का चारा भी नहीं मिल सकता है। ऐसा लगता है कि सरकार इंसान को पशुओं जितना महत्व भी नही दे रही है। इस निर्णय से गरीब परिवारों में असुरक्षा बढ़ेगी, उन्हें सरकार की योजनाओं का फायदा नहीं मिल सकेगा परिणाम स्वरूप प्रदेष के बच्चों का कुपोषण और मृत्युदर बढ़ेगी।

शहरी गरीबों के साथ काम कर रही दीनबंधु संस्था, इंदौर के राजेन्द्र बाजोड़े का मानना है कि, शहरी क्षेत्र में 33 रूपए में जिंदा रहना असंभव है। इससे तो शहरी क्षेत्रों की अधिकांष आबादी गरीबी रेखा से बाहर हो जाएगी। इंदौर शहर में 65 प्रतिषत आबादी झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर है। वर्तमान में बड़े पैमाने पर झुग्गी बासियों को विस्थापित करके शहर के बाहर बसाया जा रहा है। अंदाजा लगाया जा सकता है कि सरकार द्वारा गरीबी रेखा के लिए तय राषि से ज्यादा पैसा तो गरीबों को मजदूरी के लिए शहर आने-जाने में ही खर्च हो जाता है। 

भोपाल में मुस्लिम समुदाय के साथ काम कर रही ऊर्जा संस्था की उपासना बेहार ने तहरीके पसमंदा मुस्लिम समाज की एक रिर्पोट ‘‘सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य और मुस्लिम समुदाय 2008’’ का हवाला देते हुए बताया कि, मध्यप्रदेष में मुस्लिम समुदाय में शहरी गरीबी का अनुपात दूसरे समुदायों की तुलना में ज्यादा है। म.प्र. शहरी गरीबी का औसत 41 प्रतिषत है जबकि प्रदेष में मुस्लिम समुदाय के बीच शहरी गरीबी का अनुपात 58 प्रतिषत है। इसका मतलब यह है कि म.प्र. के 58 प्रतिषत शहरी मुस्लिम जनसंख्या गरीब है। ऐसे में सरकार के इस आंकलन से पहले से ही हाषिए पर चल रहे इस समुदाय के लोग बड़ी संख्या में गरीबी रेखा से बाहर हो गए हैं।

सतना जिले में कोल और मवासी समुदाय के बीच कर रहे संगठन आदिवासी अधिकार मंच के आनंद श्रीवास का कहना है कि, अगर हम सरकार के इस आंकलन को सही मान लें तो ऐसे में देष में कोई भी गरीब नहीं रहेगा। क्योंकि धरातल पर देखा जाए तो 27 रूपए में गुजारा करने वाला कोई व्यक्ति है ही नहीं। योजना आयोग के इस निर्णय से बड़ी संख्या में गरीब और जरूरतमंद सरकारी योजनाओं से वंचित हो जाएंगे। हमारे जिले में कोल और मवासी समुदाय है इनके बच्चों में सबसे ज्यादा कुपोषण है। इनकी खाद्य सुरक्षा भी नहीं है। ऐसे में इस निर्णय से कोल और मवासी समुदाय में कुपोषण और भुखमरी बढ़ेगी। 
   
आजादी के 65 साल गुजर जाने के बाद भी यह विडम्बना ही है कि हमारी सरकारें आज भी देश  की बड़ी आबादी को सम्मानजनक न्यूनतम जीवन स्तर नहीं दे सकी हैं। और न ही गरीबी आंकलन के लिए मानक और स्वीकार्य तरीका ही विकसित कर पाई हैं। हमारे देष में गरीबी निर्धारण का इकलौता आधार कैलोरी उपभोग को ही माना जाता रहा है। लेकिन गरीबी रेखा तो केवल जिन्दा रहने के लिये जरूरी भोजन से आगे बढ़ती ही नहीं है। हमारी वर्तमान व्यवस्था यह मानकर चलती है कि आबादी के इस हिस्से का स्वास्थ्य, शिक्षा, मनोरंजन, आवास, साफ पानी, सैनिटेशन जैसी तमाम मूलभूत सुविधाओं पर तो कोई हक है ही नहीं । वैसे जिस ‘आवश्यक कैलोरी उपभोग‘ की बात की जाती है ( शहरों में 2100 तथा गांवों में 2400 कैलोरी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन) वह भी दिन भर शारीरिक श्रम करने वालों के लिहाज से अपर्याप्त है।

मध्यप्रदेश  लोक संघर्ष साझा मंच एवं सहयोगी संस्थाएं योजना आयोग द्वारा गरीबी रेखा हेतु तय की गई राषि ग्रामीण क्षेत्र के लिए 27..20 एवं नगरीय क्षेत्र के लिए 33.33 रूपए, का पुरजोर विरोध करते हुए सरकार से मांग करते हैं कि वह योजना आयोग के इस अमानवीय आंकलन को तत्काल वापस ले।

साथ ही साथ हम मध्य परदेश सरकार से येः मांग करते हैं की वह योजना आयोग के इस आंकलन पर अपनी स्थिति स्पष्ट करे एवं मध्य प्रदेश के वस्तुस्थिति और जमीनी हकीकत को ध्यान में रखते हुए इसका विरोध करे, ताकि प्रदेश की गरीब आबादी जो थोड़ी बहुत योजनाओं का लाभ पा रही हैं वह भी योजना आयोग की इस आंकड़ों की बाजीगरी के चलते उससे वंचित न हो जाये। 

मध्य प्रदेष लोक संघर्ष साझा मंच
ई-7/6 एस.बी.आई. कालोनी, अरेरा कालोनी, भोपाल
म.प्र. पिन-462016 फोन-0755-4277228


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