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आमिर जी, ’बात बनने‘ में अभी देर है


कुमदिनी पति


आमिर खान ने सत्यमेव जयते के पहले एपिसोड को भ्रूण हत्या पर केंद्रित कर भारत के तथाकथित सभ्य समाज की ‘हिपोक्रे सी’ का खुलासा किया है, इसलिए उनका प्रयास सराहनीय है हर परिवार दहेज ले जाने वालों की तुलना में पाने वालों की संख्या को बढ़ाना चाहता है। इसलिए शायद दहेज प्रथा को खत्म किए बिना और महिलाओं की उत्पादन में बराबर की हिस्से दार बनाए बगैर भ्रूण हत्या को रोकना कतई संभव नहीं



सत्यमेव जयते; पर क्या सचमुच सत्य की विजय होगी? अभिनेता आमिर खान ने भारत की एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में एक नया प्रयोग किया है। उन्होंने सत्यमेव जयते के पहले एपिसोड को भ्रूण हत्या पर केंद्रित कर भारत के तथाकथित सभ्य समाज की ‘हिपोक्रेसी’ का खुलासा किया है, इसलिए उनका प्रयास सराहनीय है। रियलिटी शोज और बॉलीवुड की ‘रील लाइफ’ में डुबते- उतराते लोगों को, खासकर शहरी मध्यम वर्ग को कुंभकर्णीय निद्रा से जगाने का काम छोटे परदे के माध्यम से ही हो सकता था, क्योंकि ये लोग आस-पड़ोस में रोज घटने वाली इन दरिंदगी की घटनाओं को आंख मूंदकर दिमाग से हटा देते हैं। हर ऐसी घटना कुछ देर के लिये जुगुप्सा पैदा करती है, कॉफी की चुस्कियों के साथ ‘टेबल टॉक’ बनती है और फिर मोबाइल पर ‘यस’ या ‘नो’ के एसएमएस या एक ऑनलाइन पेटिशन पर हस्ताक्षर कर आसानी से दफना दी जाती है। आमिर ने अपने इस कार्यक्रम के जरिए कम-से-कम एक सप्ताह के लिए किसी सामाजिक मुद्दे को चर्चा का विषय बनाया, इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं।

 हां, ‘दिल पर लगेगी’; उनके- जिनके दिल सुख-सुविधा बटोरने के लिए चल रही अंधी दौड़ के बावजूद सही सलामत बचे हैं, उनके- जिन्होंने समाज में एक नागरिक के फर्ज को भुलाया नहीं है, यानी मानते हैं कि हमें समाज को कुछ देना भी है। इसलिए ‘सत्यमेव जयते’ की कोशिश यह भी होनी चाहिए कि कुछ ऐसे लोगों की बातें टेलीविजन पर आएं जो नारी भ्रूण हत्या के जुर्म में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भागीदार रहे हैं- राजस्थान के मुख्यमंत्री, राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष, वह महिला डाक्टर जो स्टिंग ऑपरेशन में दिख रही है, या अन्य ऐसे डाक्टर, वह पति जो अपनी पत्नी के चेहरे को काटता है या उसके जैसे अन्य लड़के की चाहत रखने वाले पति और वह सास जो एक मासूम बच्ची को मारने की कोशिश करती है। क्योंकि यह जानना जरूरी है कि 21वीं सदी में पढ़े-लिखे लोग किस मानसिकता से और कितने गहरे तक प्रभावित हैं और इसकी जड़ कहां है? दरअसल, बच्चों की हत्या, खासकर बालिकाओं की हत्या का इतिहास काफी पुराना है।

 मानवविज्ञानियों के अनुसार पाषाण युग में लगभग 50 प्रतिशत बलिकाओं को उनके माता-पिता द्वारा मार डाला जाता था। नरभक्षण के जरिए, नदी में या जंगलों में फेंककर या फिर कुपोषित कर इन हत्याओं को अंजाम दिया जाता था। ओसियानिया के इंका साम्राज्य में 20वीं सदी तक शिशुओं की बलि का प्रचलन था। ग्रीस और रोम के इतिहास में बच्चे को रखने का निर्णय औरत का नहीं, पति का या पुरुष मुखिया का होता था। यह 374 ईस्वी तक जारी रहा। सबसे पहले विकलांग व नारी शिशुओं को खत्म किया जाता था क्योंकि उन्हें समाज पर बोझ और जनसंख्या बढ़ाने वालों के रूप में देखा जाता था। काथ्रेज में शिशुओं को देवों के अग्निकुण्ड के हवाले कर दिया जाता था। यूरोप में भी जिन शिशुओं को मारना होता उनको खुला छोड़ दिया जाता। जंगली जानवरों और प्रकृति के प्रकोप से बच सके तो वे जी जाते अन्यथा खत्म हो जाते। इसे ‘एक्सपोजर’ कहा जाता था। मध्य युग में भी यह प्रचलन रहा है। अरब देशों में बच्चियों को धरती में जिंदा गाड़ दिया जाता था। चीन में मार्को पोलो ने भी इस प्रचलन का जिक्र किया है और इस देश के कई भागों में बच्चियों को बाल्टी भर पानी में डुबोकर मार दिया जाता था। जापान में गीले कपड़े से मुंह दबाकर ‘माबिकी’

को अंजाम दिया जाता था। अफ्रीका, इस्रयल, अमेरिका, कनाडा, ऑस्टेलिया आदि देशों में भी शिशु, खासकर कमजोर, विकलांग शिशुओं या बच्चियों को मार डाला जाता था। ब्रिटेन में घरों में काम करने वाली लड़कियों को अपने शिशुओं को मार डालने पर इसलिए मजबूर किया जाता ताकि वे अपने मालिक के स्टेटस के हिसाब से अपनी जिंदगी को ढालकर उनकी सेवा कर सकें। कुल मिलाकर, अलग-अलग कारणों से विभिन्न देशों के लोग शिशु हत्या करते थे, पर विचार किया जाए तो समझ में आएगा कि ये कारण मात्र बहाने थे और असली बात थी कि संम्पत्ति या संसाधनों का बंटवारा जितनी कम संतानों में हो उतना बेहतर माना जाता था और कमजोर बच्चों की देखभाल पर ऊर्जा खर्च करना व्यर्थ समझा जाता था। इस प्रचलन के चलते कई मदरें के लिए एक पत्नी की प्रथा भी चली। हत्या को वैधानिकता मिल गई तो अन्याय भी बढ़ा। 

शायद यही कारण है कि हर संस्थाबद्ध धर्म में इसे वर्जित किया गया। आज हम देख सकते हैं कि विज्ञान और तकनीकी के विकास ने अब एक मुश्किल काम को आसान कर दिया है और अब ऐसे तरीके बाजार में उपलब्ध हैं कि आपका ‘गिल्ट कोशियेंट’ भी काफी हद तक घटाया जा सकता है। ये तकनीक सस्ते और ग्रामीण क्षेत्रों में भी आसानी से उपलब्ध हैं। आप कह सकते हैं कि सामंती, पितृसत्तात्मक मानसिकता को आधुनिक तकनीक ने परास्त नहीं किया, उसके साथ गठजोड़ कायम कर मुनाफे को दिन-दूना-रात-चौगुना के हिसाब से बढ़ाने का काम किया है। पुराने दौर में जनसंख्या नियंत्रण, पारिस्थितिकीय संतुलन और भोजन की कमी की वजह से लोग यदि शिशु हत्या करते थे, तो आज अपने भविष्य को ज्यादा सुरक्षित करने के लिए और वंश चलाने के लिए या दहेज से बचने के लिए लोग नारी भ्रूण हत्या कर रहे हैं।

 नारी के बारे में पुरानी अवधारणा आज भी हावी है और शिक्षित, संपन्न लोगों व तथाकथित विकसित प्रांतों में यह अधिक व्याप्त है। हरित क्रांति के क्षेत्र हों या महानगर दिल्ली, यहां तक कि ‘चमकता’ गुजरात तक इसके सबसे भयावह उदाहरण हैं। महिलाओं को वस्तुत: प्रजनन के यंत्र के रूप में देखा जाता है और उनका स्टेटस तभी ऊंचा होता है जब वे वंश चलाने वाले, मुखाग्नि देने वाले और कमाने वाले को जन्म दे सकें। चूंकि भारत में दहेज का प्रचलन कानून के बावजूद समाप्त नहीं हो पाया है, इसलिए हर परिवार दहेज ले जाने वालों की तुलना में पाने वालों की संख्या को बढ़ाना चाहता है। इसलिए शायद दहेज प्रथा को खत्म किए बिना और महिलाओं की उत्पादन में बराबर की हिस्सेदार बनाए बिना भ्रूण हत्या को रोकना कतई संभव नहीं। लड़कियों को पढ़ाया जा रहा है पर उनकी संख्या उच्च शिक्षा में घटती जा रही है।

 अच्छी नौकरियों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व और भी कम है। इसलिए, आमिर जी, ‘बात बनने’ में अभी देर है! तय है कि इतना आसान नहीं होगा यह कॉरपोरेट-प्रायोजित सुधार। आखिर आज जहां 1000 बालक हैं वहां केवल 914 बच्चियां ही हैं और कई राज्यों में तो इनकी तादाद प्रति हजार लड़कों के मुकाबले 800-850 तक ही सिमट गई हैं। वर्तमान समय में देश में 40,000 पंजीकृत अल्ट्रासाउंड क्लिनिक हैं और एक रिपोर्ट के अनुसार 1974 में एम्स जैसे संस्थान तक में जनसंख्या नियंतण्रके नाम पर नारी भ्रूण हत्या का सिलसिला चला था। गर्भपात को कानूनी मान्यता मिली थी 1971 में, पर भ्रूण हत्या या बच्चे के लिंग का चयन करने संबंधित कानून आया 1994 में। 1996 में कानून लागू होने के बाद की स्थिति भी दयनीय रही; यद्यपि कुछ राज्यों में लिंग अनुपात सुधरा, लेकिन कई राज्यों में हालात अब भी बेहद चिंताजनक हैं।

 इनमे हरियाणा, पंजाब, दिल्ली व जम्मू- कश्मीर प्रमुख हैं। और कानून की जहां तक बात है, 800 दर्ज कोर्ट केसों में केवल 55 मामलों में ही दोषियों को सजा हुई है। यदि लिंग अनुपात को ठीक नहीं किया गया तो हर परिवार की बेटी असुरक्षित हो जाएगी। अनुमान है कि 2020 तक भारत में महिलाओं के मुकाबले 2.5 करोड़ अधिक पुरुष होंगे और चीन में यह तादाद 3.5 करोड़ होगी। ऐसी स्थिति औरतों की खरीद-फरोख्त, वेश्यावृत्ति, यौन उत्पीड़न और छेड़खानी को और बढ़ाएगी। अविवाहित पुरुषों में यौन विकृतियां पैदा होंगी और महिला बाजार में मोल-भाव की एक वस्तु बन जाएगी। इसे रोकने के लिए चौतरफा प्रयास जरूरी है, पर सबसे पहले तो सरकार को दोषी डाक्टरों के विरुद्ध सख्त कदम उठाने होंगे और इस संकट से मुकाबिल आंदोलनकारियों को महिला विरोधी संस्कृति व मानस से लोहा लेना होगा।

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