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कैसे निर्मित हो बच्चियों की महफूज दुनिया


अंजलि सिन्हा
               

इलाहाबाद राजकीय अनाथालय में बच्चियों के साथ यौनहिंसा के मामले की चर्चा अभी जारी ही थी कि गुडगांव अनाथालय का मामला प्रकाश में आ गया है। और हम इस कड़वी हकीकत से रूबरू हैं कि समाज में छिपे ऐसे दरिन्दों को पहचानने और उनपर पहले ही काबू पा लेने में लगातार असफलता हाथ लग रही है।

 गुडगांव के वजीराबाद गांव में एक स्वयंसेवी संस्था 'सुपर्णा का आंगन' द्वारा संचालित एक अनाथाश्रम में 20 बे-सहारा बच्चियां रहती थीं। इनमें से 5लडकियों को यहीं के चौकीदार ने अपने हवस का शिकार बनाया। 8से 12साल के बीच की 5लडकियों का मेडिकल परीक्षण हुआ जिसमें बलात्कार की पुष्टि हो गयी है। ताजा समाचार के मुताबिक संस्था की संचालिका एवं अपराधी चौकीदार को पुलिस ने गिरफ्तार किया है। पुलिस की प्रारम्भिक जांच में यहभी पता चला है कि यह अनाथाश्रम बिना अनुमति के चलाया जा रहा था।

 गांव के सरकारी कन्या विद्यालय में सभी बच्चियां पढ़ती थीं। मालूम हो कि अनाथाश्रम में जारी इस अत्याचार से परेशान इन लडकियों ने अपनी आपबीती अपने टीचर को बतायी। अध्यापिका निशा की प्रशंसा जरूर की जानी चाहिए जो अपने साथ इन बच्चियों को लेकर थाने चली गयी। अपने इस टीचर को बच्चियों ने बताया कि रचित ( 22 वर्षीय केयरटेकर ) की शिकायत उन्होने संचालिका मैडम से की थी तो उन्होनं डाँटकर भगा दिया था। दो बच्चियों ने बताया कि रचित ने एक साल पहले भी उनके साथ ऐसा ही किया था तो मैडम ने उसे नौकरी से निकाल दिया था। पर 15 दिन पहले वह फिर आ गया। इन 15 दिनों के बीच में दो बार कमरा बन्द करके बलात्कार किया और किसी को बताने पर जानसे मारने की धमकी दी थी। सहज अन्दाजा लगा सकते हैं कि 8 से 12 साल के भीतर की ये लडकियाँ कितनी हिम्मत जुटाकर अपनी टीचर को बता पायी होंगी। मॅडम निशा ने डीसीपी को बताया कि उन्होंने एक बच्ची के गाल पर निशान देखा और उससे पूछा तब जाकर चौकीदार की हरकत का पता चला।

 इलाहाबाद के राजकीय अनाथालय की घटना इसी किस्म की है। पिछले माह ही इलाहाबाद के शिवकुटी थाना क्षेत्र के तीन बच्चियों को चौकीदार विद्याभूषण औझा ने अपनी हवस का शिकार बनाया। फरक यही है कि यहां की अधीक्षिका उर्मिला गुप्ता ने ही इसकी शिकायत पुलिस में दर्ज करायी। लेकिन उनकी डयूटी के दौरान दिन में ही चौकीदार अपना कारनामा करता रहा और उन्हें पता नहीं चला। जब एक लडकी उनके पास शिकायत लेकर आयी तब उन्होंने मेडिकल के लिए भेजा। ज्ञात हो कि इस मामले का तो खुलासा होता ही नही यदि यहां से एक बच्ची को गोद लेनेवाले दम्पति ने यह पहल न की होती। बच्ची को गोद लेने के बाद बच्ची ने अपने अभिभावक से बालगृह के चौकीदार के बारे में बताया तब उस दम्पति ने इसकी शिकायत बालगृह की अधीक्षिका से की थी। अधीक्षिका उर्मिला ने कहा कि बच्चियों ने उनसे इसकी शिकायत नहीं की थी। दस वर्ष से कम उम्र की बच्चियों को क्या वह चौकीदार नही धमकाया होगा? किसका सहारा पाकर किससे शिकायत करती? 42 बच्चों में 17 बालिकाएं थी। दिनभर की डयूटी अधीक्षिका की थी यहां। यदि वे बच्चियों के साथ घुलीमिली होतीं और बच्चियों का उनपर भरोंसा बना होता तो वे क्यों नहीं घटना की जानकारी उन्हें देती ?

 अभी कुछ माह पहले ही दिल्ली का आर्य अनाथालय इसी किस्म की घटनाओं से सूर्खियों में था। दरअसल यहां रहनेवाले एक छात्रा की अचानक मौत होने के बाद पता चला कि उसके साथ यौन अत्याचार का सिलसिला चला था, फिर अख़बारों में हंगामा होने के बाद सरकार की तरफ से जांच की गयी थी।

 इलाहबाद, गुडगांव या दिल्ली की ये घटनायें इसी साल पहली बार सिर्फ इन्हीं राज्यों से नही आयी है। कुछ साल पहले तमिलनाडु से संचालित एक आश्रम की खबर थी कि वहां से बच्चियों को आश्रम से बाहर देहव्यापार के लिए मांग की आधार पर भेजा जाता था। दरअसल देशभर में सरकारी,गैरसरकारी सभी अनाथाश्रमों की ठीक से तहकीकात किए जाने की जरूरत है। जांच तो होती है लेकिन वह महज खानापूर्ति होती है। ऐसी यौनिक हिंसाओं के अलावा भी यहां के बच्चों का भविष्य ठीक से संवर नहीं पाता है यदि किसी सही व्यक्ति /दम्पति ने उन्हें गोद लिया तब तो ठीक है वरना शायद ही स्नेह/प्यार की भाषा भी वे सुन पाते होंगे।

  वैसे देखा तो यह भी जाना चाहिए कि नि:सन्तान दम्पतियों को गोद लेने के लिए सालों का इन्तजार क्यों करना पडता है। गोद लेने की इच्छा रखने वालों की सूचि लम्बी बतायी जाती है फिर क्या वजह है कि बच्चों का बचपन अनाथआश्रम में ही बीत जाता है। यह सही है कि गोद लेनेवाले भी सही है या नहीं इसका कोई ठिकाना नहीं है लेकिन उसकी जांच पड़ताल ही तो उपाय है और पडताल में इतना समय क्यों लग जाता है ?

 दरअसल इस पूरे मामले में जितनी संवेदनशीनलता और सरोकार की जरूरत है उसकी कमी पड गयी है औरमामला शासकीय फाइलों में उलझा पडा रहता है। किसके पास समय है उसे जल्दी संज्ञान में लेने के लिए?

 इन अनाथाश्रमों की दुर्दशा के साथ ही देशभर में चलनेवाले नारीनिकेतनों का हाल भी कम बुरा नही है। यहां से बलात्कार जैसी घटना की खबर भले नहीं आती होगी लेकिन यहाँ ऐसी घटनाओं के शिकार तथा दूसरे अन्य प्रकार के पीडिताओं भी भेजा जाता है। यहाँ का वातावरण भी एक जेल है। नारीनिकेतन या महिलाओं के लिए चलने वाले शेल्टर होम्स में सुरक्षा के नाम पर कैदी की तरह रखे जाते है। ऐसे कितने ही दुराचार जो रोज-रोज होते है लेकिन खबर नही बनते उसकी मुक्ति का क्या उपाय है,कौन लोग उसकी चिन्ता करेंगे और वे अपनी मुहीम को सफल, सशक्त कैसे बनायेंगे यह विचार करने की जरूरत है।

 एक तीसरा महत्वपूर्ण पहलू यह सोचने का बनता है कि किसी भी तरह से ऐसे काम कल्याण या सेवा की मानसिकता से नहीं चलना चाहिये। जो कोई व्यक्ति या संस्था दया करना चाहे तो उसके परमार्थ के रूप में जरूरतमन्दों की जरूरतें पूरी नहीं हो बल्कि सभी आश्रयगृह जिसमें किसी भी असहाय या वृध्द को जाना हो तो वह उसके नागरिक अधिकार के तौर पर मिले न कि दानखातें के रूप मे। यद्यपि कई संस्थाओं को सरकार स्वयम् ही अनुदान देती है जो लोगों को बतौर सेवा उपलब्ध कराया जाता है लेकिन सरकार को इस बहुत बड़े अन्तर को समझना होगा कि सरकारी राशि का खर्च लोगों के उपर कृतज्ञता के रूप में खर्च होता है जबकि सरकार को लोग चुन कर बनाते हैं जिसकी जिम्मेदारी है कि वह उन सारे कामों को स्वयम् करें जो नागरिक और व्यक्तिगत अधिकार की श्रेणी में आता है।

इस पर भी सोचने की जरूरत है कि विकसित से विकसित समाज में आश्रयस्थलों का निर्माण एक मजबूरी नहीं आवश्यकता होगी। सवाल यही तय करने का है कि उसका संचालन कौन करे ?क्या उसे कारोबार के अन्य हिस्सों की तरह देखा जाए या सरकार खुद अपनी जिम्मेदारी समझ कर इनका संचालन करे। कोई भी आश्रयस्थल चाहे वृध्दों का हो,अनाथों का हों,मानसिक या शारीरिक रूप मे चुनौतीपूर्ण अवस्थावालों के लिये हो या मुसीबत की मारी महिलाओं के लिये हो यह जो कमजोर हालात के होते है या जिनका कोई आधार न हो, निश्चित ही यह काम किसी कारोबार का हिस्सा नहीं हो सकता तथा सरकार के लिये यह जरूरी जिम्मेदारी बनती है कि वह किसी निजी या स्वयंसेवी संगठन के कंधों पर डाल कर मुक्त नहीं हो सकती है।

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