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शिक्षा अधिकार अधनियम पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 की संवैधानिक वैधता को बरकार रखा है.


poster source -posterfortomorrow.org; 2011

भारतीय संविधान के अनुच्छेद २१ (ए) (जीने की आजादी का अधिकार) के तहत शिक्षा का अधिकार कानून-२००९ एक अप्रैल २०१० से लागू हुआ। इसमें प्रावधान किया गया कि ६ से १४ वर्ष आयु वर्ग के सभी बच्चों को ८ वर्ष तक मुफ्त अनिवार्य शिक्षा दी जाएगी। निजी स्कूलों के २५ प्रतिशत सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित करनी होंगी। किसी भी बच्चे की प्रवेश परीक्षा नहीं होगी।इस अधिनियम के तहत भारत के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में गरीब छात्रों के लिए 25 प्रतिशत सीटें बिना फीस के आरक्षित करने का प्रावधान है.


लकिन शिक्षा का अधिकार कानून लागू हुए भले ही दो साल हो गए हों पर इसके क्रियान्वयन को लेकर अस्पष्टता कभी कम नहीं हुई। अब जबकि इस कानून पर सर्वोच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला आया है, सरकार के लिए अपनी कार्यनीति तय करने में बड़ी मदद मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून की संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने फैसला सुनाया है कि देश के सभी सरकारी और निजी स्कूलों में 25 फीसद गरीब बच्चों के दाखिले के प्रावधान में कहीं कोई विसंगति नहीं है। 


सर्वोच्च न्यायालय ने आरक्षण के इस दायरे से सिर्फ सरकारी सहायता न पाने वाले अल्पसंख्यक संस्थानों को बाहर रखा है। अदालत ने फैसला सुनाते हुए यह भी साफ किया कि यह फैसला गुरुवार यानी 12 अप्रैल से ही लागू होगा। लिहाजा इससे कानून के पास हो जाने के बाद हुए दाखिले प्रभावित नहीं होंगे। जाहिर है, न्यायालय इस महत्वपूर्ण कानून को भविष्य में कारगर रूप में देखना चाहता है। इसलिए अपने फैसले में भी उसने इस नजरिए को व्यापक तरजीह दी और गत वर्ष तीन अगस्त को सुरक्षित रखे फैसले को अंतिम रूप से सुनाने में इतना समय लिया। यह अलग बात है कि यह फैसला सर्वसम्मति से आने के बजाय बहुमत से आया। तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ में शामिल मुख्य न्यायाधीश एसएच कपाडिया और न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार ने जहां आरक्षण की हिमायत की, वहीं तीसरे न्यायाधीश केएस राधाकृष्णन की राय में सरकारी सहायता न पाने वाले निजी और अल्पसंख्यक स्कूलों पर 25 फीसद आरक्षण की बाध्यता लागू नहीं होनी चाहिए।

 बहरहाल, अब जबकि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने शिक्षा का अधिकार कानून को लेकर लंबे समय से चली आ रही कई तरह की गलतफहमियों को दूर कर दिया है, गेंद एक बार फिर से सरकार के पाले में है। 2010 में जब यह कानून लागू हुआ था, तभी से यह सवाल केंद्र और राज्य सरकारों के सामने है कि वे प्राथमिक स्तर के शैक्षणिक ढांचे को कैसे चुस्त-दुरुस्त करें! पिछले दो सालों में पुराने स्कूलों में सुधार, नए स्कूल खोलने से लेकर शिक्षकों की बहाली तक के मुद्दों पर या तो पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया या फिर कुछेक कदम उठे भी तो वे भारी अनियमितताओं और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। ऐसे में उम्मीद बांधना कि रातों रात सब कुछ ठीक हो जाएगा, कुछ ज्यादा ही उत्साह से भर जाना है।

 हाल में देश में प्राथमिक शिक्षा की सालाना ‘असर’ रिपोर्ट में कई ऐसे तथ्य सामने आए हैं जिससे सरजीमीनी हकीकत समझने में मदद मिलती है। रिपोर्ट के मुताबिक कई तरह के प्रोत्साहन कार्यक्रमों और सरकारी दबाव में ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूलों में दाखिले का आंकड़ा तो 96.7 फीसद तक पहुंच गया पर उपस्थिति के मामले में यह बढ़त नजर नहीं आती। आलम यह है कि 2007 की स्थिति से तुलना करें तो 2011 में उपस्थिति का आंकड़ा 73.4 से खिसककर 70.9 पर आ गया। यही नहीं, इस चर्चित रिपोर्ट में स्कूलों में दी जा रही शिक्षा की स्तरीयता पर भी कई गंभीर सवाल उठाए गए हैं।

 सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से यह जरूर होगा कि अब सरकारी के साथ निजी विद्यालय भी सर्वशिक्षा का लक्ष्य पाने में जुटेंगे। पर यह महज इतनी अनुकूलता से पूरा होने से रहा। सरकार को चाहिए कि वह अपने अधीन आने वाले शैक्षणिक संस्थाओं को ढांचागत रूप से संपन्न करने के साथ शिक्षा की स्तरीयता बहाल करने के लिए कड़ी निगरानी व्यवस्था भी विकसित करे।


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