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सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रम बाल-कुपोषण मिटाने के लिए जरुरी - सेव द चिल्डेन की नई रिपोर्ट


एक ऐसे समय में जब अर्थजगत में बुद्धिमानी का पर्याय यह बन चला है कि अर्थसत्ता के खेल के लिए मैदान खुला छोड़ दिया जाय और सामाजिक-क्षेत्र पर होने वाले खर्चों में कटौती की जाय, एक रिपोर्ट का कहना है कि भुखमरी और खासतौर से बाल-कुपोषण मिटाने की दिशा में प्रयास करना अपने आप में बुद्धिमानी का काम है। रिपोर्ट में यूपीए सरकार की प्राथमिकताओं में शुमार किए जाने वाले रोजगार गारंटी कार्यक्रम के सकारात्मक प्रभावों की भी चर्चा है, यह अलग बात है कि साल 2012-13 के बजट प्रस्ताव में यूपीए सरकार ने रोजगार गारंटी कार्यक्रम के लिए रकम के आबंटन में कमी की है।

रिपोर्ट का तर्क सरकार से कहता है कि 2012 का साल बच्चों को पोषण से जुड़े अधिकार दिलाने और ना नजर आने वाले कुपोषण के खात्मे के लिहाज से निर्णायक साल है क्योंकि औसत से कम बढ़वार वाले बच्चों को कुपोषण से बचाने की कोशिशों के मद्देनजर (सहस्राब्दि विकास लक्ष्यों को हासिल करने की डेडलाईन को देखते हुए ) साल 2013 की पहली छमाही गुजरने के साथ बहुत देर हो चुकी होगी। उस वक्त तक ऐसे बच्चों की आखिरी पीढ़ी भी अपने जन्म के दूसरे साल में प्रवेश कर चुकी होगी। 

सेव द चिल्ड्रेन नामक संस्था द्वारा प्रस्तुत “अ लाइफ फ्रॉम हंगर: टैक्लिंग चाईल्ड मालन्यूट्रिशन (2012)” शीर्षक रिपोर्ट में लंबे समय से कुपोषण और औसत से कम बढ़वार वाले बच्चों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस कुपोषण के कारणों की विवेचना की गई है। रिपोर्ट में उन समाधानों का जिक्र है जो बाल-कुपोषण रोकने में कारगर सिद्ध हुए हैं : 

अ). स्तनपान और सूक्ष्म पूरक पोषाहार महैया कराने जैसे प्रत्यक्ष उपाय; 
ब). सामाजिक सुरक्षा योजना चलाना तथा बच्चों की पोषाहार संबंधी जरुरतों को ध्यान में रखते हुए कृषि-उत्पादन जैसे अप्रत्यक्ष उपाय

रिपोर्ट का कहना है कि हाल के सालों में सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों को वैश्विक स्तर पर गति मिली है तथा इन कार्यक्रमों ने कई देशों में गरीबी घटाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। 

गुजरे दशक में ब्राजील और मैक्सिको जैसे देश ऐसे कार्यक्रमों की शुरुआत के लिहाज से प्रभावी देश रहे। कुछ ऐसी ही पहलकदमियां ईथोपिया और बांग्लादेश जैसे निम्न आय वाले देशों में की गई है जबकि जनसंख्या के आकार के लिहाज से पहले और दूसरे स्थान पर आने वाले देश चीन और भारत में पहली बार ऐसे कदम उठाने के बारे में सोचा जा रहा है। 

समाधान के कदम उठाने पर बल देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन देशों में कुपोषित या फिर औसत से कम बढ़वार के बच्चों की संख्या ज्यादा है उन्हें पोषण संबंधी दशाओं को सुधारने के लिए वादा करना चाहिए। भारत और नाईजीरिया जैसे देशों को, जहां पाँच साल तक की उम्र के बच्चों की संख्या ज्यादा है, ब्राजील, बांग्लादेश और घाना जैसे देशों की कामयाबी की कहानियों से प्रेरणा लेनी चाहिए और ऐसी कोशिश करनी चाहिए कि पाँच साल तक की उम्र वाले कुपोषित बच्चों की संख्या प्रतिशत पैमाने पर घटे।

जी-20 समूह के देशों की अगामी बैठक में कुपोषण के मुद्दे का उठाया जाना बहुत जरुरी है।  इस समूह के दो देश ब्राजील और मैक्सिको को कुपोषण की दशा में सुधार लाने के लिहाज से बड़ी कामयाबी मिली है जबकि समूह के अन्य देश इस मामले में पीछे हैं।  मिसाल के लिए, भारत में बच्चों की कुल तादाद की तकरीबन आधी संख्या औसत से कम बढ़वार की है और यह तादाद औसत से कम बढ़वार वाले विश्व के कुल बच्चों की संख्या के एक तिहाई से ज्यादा है। ग्रुप-20 के बाकी देश पोषण की दशा सुधारने के लिए राजनीतिक रुप से वचनबद्ध होते हैं तो वैश्विक स्तर पर कुपोषण को घटाने में बहुत मदद मिलेगी। 


भारत में 48% फीसदी बच्चों की बढ़वार सामान्य से कम है। अगर यही सूरते हाल जारी रहे तो अगले 15 सालों में सामान्य से कम बढ़वार बाले बच्चों की तादाद 450 मिलियन हो जाएगी। 
  
• साक्ष्यों से पता चलता है कि बच्चों को कुपोषण से बचाया जाय तो वे एक व्यस्क के रुप में कहीं ज्यादा कार्यक्षमता के साथ उत्पादक कामों में लग सकते हैं और उनकी आय-अर्जन की क्षमता में 46 फीसदी की बढ़ोतरी हो सकती है।भारत में कुपोषण जनित अनुत्पादकता के कारण सालाना अनुमानतया 2.3 बिलियन डॉलर का घाटा होता है। 
  
• रवि तथा ऐंगलर द्वारा प्रस्तुत एक अध्ययन (2009) में कहा गया है कि ग्रामीण परिवारों को साल में 100 दिन के रोजगार की गारंटी देने वाले कार्यक्रम मनरेगा के कारण ग्रामीण इलाकों में भोजन के मद में खर्च 40 फीसदी बढ़ा है। इसका सर्वाधिक प्रभाव मनरेगा में काम पाने वाले सर्वाधिक गरीब परिवारों के पोषण की दशा पर हुआ है। 
  
• अनुमान है कि राष्ट्रीय आय का 2–3% कुपोषण के कारण अपव्यय होता है। बचपन में कुपोषण का शिकार व्यक्ति की कार्यक्षमता कम होती है और ऐसा व्यक्ति व्यस्क होने की दशा में औसतन 20 फीसदी कम आय अर्जित करता है। 
  
• फरवरी 2011 में खाद्य-पदार्थों के दामों में रिकार्ड बढ़ोतरी हुई और इसके कारण तकरीबन 400,000 बच्चों के पोषण की दशा पर नकारात्मक असर पडा। 
  
• विश्वस्तर पर देखें तो चार में एक बच्चा कुपोषण का शिकार है। विकासशील देशों में यह आंकड़ा 3 में से एक बच्चे का है। इसका सीधा मतलब हुआ कि इन बच्चों का शरीर और मष्तिष्क कुपोषण के कारण समुचित रीति से नहीं विकसित हो रहा। 
  
• कुपोषण के कारण प्रतिदिन 300 बच्चों की मौत होती है। सालाना 2.6  मिलियन बच्चे विश्वस्तर पर कुपोषणजनित कारणों से मृत्यु को प्राप्त होते हैं।. 
  
• सामान्य से कम बढ़वार वाले बच्चों को इसके दुष्प्रभाव से बचाने की दिशा में वैश्विक स्तर पर प्रगति धीमी रही है। सामान्य से कम बढ़वार वाले बच्चों की तादाद साल 1990 में 40 फीसदी थी जो साल 2010 में घटकर 27 फीसदी हुई है यानी सालाना इस दिशा में 0.6 फीसदी की प्रगति हुई। 
  
• अगर विटामिन ए, जिंक की खुराक और आयोडिन युक्त नमक दिया जाय तथा स्वास्थ्य की सही देखभाल वाली आदतें मसलन-हाथ-मुंह धोना, नवजात शिशु को स्तनपान आदि डाली जायें तो लैंसेट मेडिकल जर्नल के अनुसार पाँच साल से कम उम्र के तकरीबन 2 मिलियन बच्चों की जान उन 36 देशों में बचायी जा सकती है जहां दुनिया के कुपोषित बच्चों की 90 फीसदी तादाद रहती है। 


इस कथा के विस्तार के लिए कुछ सहायक लिंक-





















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