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गुम होते बच्चे और बेपरवाह सरकार


जाहिद खान



बीते कुछ सालों में बच्चों की गुमशुदगी के लगातार बढ़ते मामलों ने सभी का ध्यान खींचा है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के मुताबिक भारत में हर साल 44 हजार बच्चे लापता हो जाते हैं। इनमें से करीब 11 हजार बच्चे फिर कभी अपने घर नहीं लौट पाते। आयोग के मुताबिक दिल्ली बच्चों के गायब होने के मामले में सबसे अव्वल है। यहां हर साल औसतन 7 हजार बच्चे लापता होते हैं, जिसमें 5,500 से ज्यादा बच्चे तो मिल जाते हैं, लेकिन बाकी 1,400 बच्चों का क्या होता है, किसी को नहीं मालूम। कई संगठनों की पहल पर कराए गए अध्ययनों से साफ पता चलता है कि गुम हुए बच्चों में से ज्यादातर मानव तस्करी के शिकार हो जाते हैं। 

इन बच्चे-बच्चियों में कई यौन शोषण के अड्डों, भीख मंगवाने वाले या मानव अंगों के व्यापार में लिप्त गिरोहों के पास पहुंचा दिए जाते हैं। बच्चों के अवैध व्यापार में सामाजिक-आर्थिक कारण अहम भूमिका निभा रहे हैं। इस समस्या पर शोध करने वालों ने इसकी जड़ में गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, भविष्य के लिए सुरक्षा व्यवस्था का न होने आदि कारकों को जिम्मेदार माना है। इस अवैध व्यापार में इतना मुनाफा है कि कपिपय माफिया समूहों ने इसके लिए भी संगठित व्यापारिक संरचना विकसित कर ली है। जहां सुरक्षा का अभाव है, कानून व्यवस्था कमजोर है, वहां इन माफिया की नजर खास तौर पर गड़ी रहती है और मौका मिलते ही ये बच्चों को गायब कर देते हैं। करीब तीन साल पहले दिल्ली में कराए गए एक अध्ययन में यह बात सामने आई थी कि यहां जितने भी बच्चे गायब हुए, उन सबके मां-बाप या तो दिहाड़ी मजदूर थे या फिर बेहद गरीब। बच्चों के इस अमानवीय कारोबार को रोकने के लिए हमेशा कड़े कानून की बात की जाती है। लेकिन जब अमल की बात आती है, तो कुछ नहीं हो पाता।

 बाल संरक्षण को लेकर केंद्र सरकार वर्ष 2000 में ‘जुवेनाइल जस्टिस एक्ट-2000 (केयर एंड प्रोटेक्शन ऑफ चिल्ड्रेन)’ लाई थी। एक दशक से ज्यादा बीत गया, मगर ज्यादातर सूबों ने इस पर अमल ही नहीं किया। जिन सूबों में इस बाबत बोर्ड गठित हुए, वहां भी बाल संरक्षण की दिशा में कोई वास्तविक पहल नहीं हो सकी है। मुल्क में इस वक्त शायद ही ऐसा कोई सूबा हो, जहां संबंधित धाराओं के तहत एक साथ बाल अपराध न्याय बोर्ड और बाल कल्याण समिति गठित हुई हों। बाल तस्करी और यौन पर्यटन के पीड़ितों को इस भयानक चक्रव्यूह से निकालने के लिए एक विशेष पुलिस बल गठन करने की जरूरत बरसों से महसूस की जा रही है। लेकिन इसका भी गठन नहीं हो पा रहा है।

 बहुचर्चित निठारी कांड के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने पीसी शर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए उस वक्त कई सिफारिशें सुझाई थीं लेकिन इन पर गंभीरता से अमल नहीं किया गया। बहरहाल, समिति की सिफारिशें आज भी प्रासंगिक हैं। समिति का मानना था कि लापता बच्चों के मामलों को सरकार और समाज दोनों जगह वाजिब तरजीह नहीं मिलती। इन मुद्दों को सभी स्तरों पर, खासकर कानून लागू करने वाली एजेंसियों की प्राथमिकता में लाना बेहद जरूरी है। समिति ने सिफारिश की थी कि राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को अपने मातहतों को इस बारे में संवेदनशील बनाने के लिए वाजिब कदम उठाने चाहिए। आयोग का मानना था कि पुलिस बच्चों के गुम होने के मामलों को गंभीरता से नहीं लेती और एक-दो राज्यों को छोड़कर ज्यादातर मामलों में रिपोर्ट ही दर्ज नहीं की जाती। 

आयोग की राज्य सरकारों को इस बाबत सलाह थी कि वे ऐसी पण्राली विकसित करें, जिससे यदि गुम हुआ बच्चा 15 दिन से घर नहीं आता तो हर हाल में प्राथमिकी दर्ज हो। लापता बच्चों के मुद्दे पर प्रशासन के रवैये की आलोचना करते हुए आयोग ने सिफारिश की थी कि मुल्क के हर थाने में लापता बच्चों के संबंध में एक विशेष डेस्क हो। समिति ने उस वक्त कहा था कि बच्चों के लापता होने के मामले में पंचायतों, नगर पालिकाओं और गैर सरकारी संगठनों की भूमिका महत्वपूर्ण साबित होगी। लेकिन जरूरत इस बात की है कि इन संस्थाओं को बच्चों की गुमशुदगी को संज्ञान में लाने के लिए प्रेरित किया जाए। समिति ने मुल्क में बच्चों के लापता होने की घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो से राष्ट्रीय पहचान तंत्र गठित करने की सिफारिश भी की थी। जिसमें गुमशुदा बच्चों के बारे में आंकड़े नियमित तौर पर दर्ज किए जाएं। समिति ने अपनी रिपोर्ट में स्कूलों को भी जबावदेही से मुक्त नहीं किया था। समिति का कहना था कि स्कूलों को भी अपनी जबावदेही तय करनी चाहिए। 

बहरहाल, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने समिति की रिपोर्ट और तमाम सिफारिशों पर गौर करने के बाद उस वक्त लापता बच्चों के बारे में एक राष्ट्रीय नेटवर्क गठित करने की सिफारिश की थी। आयोग का कहना था कि राज्य पुलिस ऐसा तंत्र विकसित करे जिससे इस तरह के मामले की सूचना 24 घंटे के अंदर नवगठित राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के पास पहुंच जाए। यही नहीं, पुलिस की जबावदेही को तय करते हुए आयोग ने कहा था कि ऐसी सूचना न देने पर माना जाएगा कि पुलिस ने मामले को दबाने की कोशिश की है। कुल मिलाकर, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बच्चों की गुमशुदगी के रोकथाम के लिए उस वक्त जो सुझाव सुझाए थे, वे तभी कामयाब हो सकते हैं, जब पुलिस प्रशासन पूरी संवेदना के साथ इस दिशा में कारगर कदम उठाए। लेकिन अफसोस, न तो पुलिस और न ही हमारी सरकारों ने इस दिशा में ईमानदारी कोशिश की है।

 नतीजा यह कि हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं। अदालतों के लगातार सख्त रुख के बाद भी मुल्क में बाल कानूनों की अमलदारी में देरी सरकारों की बच्चों के प्रति बेरुखी और उदासीनता ही दर्शाती है। बाल तस्करी, सेक्स टूरिज्म और बाल मजदूरी को रोकने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कड़े कानून, निगरानी बंदोबस्त व संबंधित महकमों के बीच तालमेल व सहयोग जरूरी है। बाल कानून सारे मुल्क में कारगर ढंग से अमल में लाए जाएं, इसके लिए केंद्र सरकार को फौरन कड़े कदम उठाने होंगे। उम्मीद की जानी चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देश से इस मामले में सरकारों की उदासीनता का ये सिलसिला जरूर टूटेगा।


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