सचिन कुमार जैन
कोरोना-कोविड
19
एक संक्रमण की बीमारी
है,
जो एक महामारी बन कर
पूरी दुनिया मैं फ़ैल गयी है. मानव इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है कि विश्व के 5.9 अरब लोगों तक इसका दायरा पहुंच चुका है. इस
बीमारी की कोई दवा या टीका उपलब्ध नहीं है. अतः देश, शहर, गांवों, बस्तियों में तालाबंदी की जा रही है. लगभग सभी
उपक्रम रोक दिए गए हैं. छोटे से छोटा व्यापार बंद कर दिया गया है. बस वही सेवाएं
चलायमान हैं, जो जीवन के लिए बुनियादी हैं. ज़रा सोचिये कि जब सब-कुछ रोक दिया जाता है, तब भारत जैसे देश में लोग अपना जीवनयापन कैसे
करते होंगे? और कुछ हो न हो, बच्चों को उनके जीवन के लिए जरूरी भोजन और सुरक्षा कैसे हासिल होती होगी? जिनके पास कोई जमापूंजी या साधन-संसाधन नहीं
है,
उनके लिए एक दिन की
तालाबंदी का असर भी कितना गहरा होता होगा? भारत में कुछ घंटों के मोहलत पर 21 दिन के लिए तालाबंदी की घोषणा कर दी गयी. हवाई
जहाज़ उड़ते रहे, किन्तु बसें-ट्रेनें बंद कर दी गयीं. जिस देश में एक समय में 5 करोड़ लोग रोजगार के लिए पलायन पर रहते हों, वे सब वहीं 'फंस' गए जहां वे थे?
उद्योगों और उपक्रमों
से आह्वान किया गया कि वे अपने कामगारों और श्रमिकों को वेतन देते रहें और उन्हें
काम से न निकालें, इसके बावजूद अरबों-खरबों के व्यापारियों ने लोगों को रोज़गार से निकलना शुरू
कर दिया है. वे सरकार से करों में छूट और आर्थिक पैकेज के लिए मोलभाव कर रहे हैं, किन्तु किसान सरकार को ब्लैकमेल नहीं कर रहा
है.
सरकार इतनी सी बात नहीं
समझ पायी जब संकट छाता है, तो लोग हर परिस्थिति में अपने गांव-घर पहुंच जाना चाहते हैं. उन्हें कोई
लोभ-लालच-आश्वासन रोक नहीं पाता है. वे मृत्यु या किसी दर्द से नहीं डरते हैं. यदि
डरते तो 1000
किलोमीटर पैदल अपने घर
की तरफ नहीं चलते. सरकार ने मजदूरों को वहीँ रोक दिया, जहां वे खड़े थे, लेकिन बैचेनी बढ़ रही है.
ऐसे में स्वास्थ्य
तंत्र बहुत सक्रिय है. कोरोना से संक्रमित लोगों की पहचान और उपचार के लिए
स्वस्थ्यकर्मी जोखिमकारी स्थितियों में लगभग बिना कवच के अपनी भूमिका निभा रहे
हैं. भारत में और दुनिया में भांति-भांति के तरीकों से उन लोगों के लिए थाली-ताली
बजवाई गयी, जो कोरोना के संक्रमण काल में समाज को बुनियादी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं.
यह जरूरी था, किन्तु कुछ वास्तविक किरदारों को क्यों भुला दिया गया? सवाल यह है कि क्या किसी प्रधानमन्त्री या
राष्ट्र प्रमुख ने उन लोगों के लिए कोई बात कही, जो इस बजने वाली थाली में भोजन भरते रहे हैं.
थोड़ा बुद्धि को झाड-पोंछ कर साफ करके सोचिये. यदि देश में अनाज के भण्डार नहीं
होते,
तो प्रधानमंत्री जी का
तालाबंदी का आह्वान कितने दिन टिकता? पहले 21 दिन और फिर 18 दिन की तालाबंदी का निर्णय इतने आत्मविश्वास
से कैसे ले लिए गया? यह निर्णय लिया जा सका क्योंकि भारत में दुनिया की सबसे प्रभाव और व्यापक
सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी सस्ते राशन की दुकान की व्यवस्था है और भारत के 12 करोड़ किसान और 3 करोड़ मजदूर खेती का उपक्रम ज़िंदा रखे हुए हैं.
वे इतना उत्पादन करते हैं, जिससे हमारे प्रधानमंत्री पूरे आत्मविश्वास से देश की 'तालाबंदी' की घोषणा कर पाते हैं. दो महत्वपूर्ण पहलू हैं– एक उत्पादन और दूसरा सार्वजनिक वितरण
व्यवस्था.
उत्पादन
भारत में वर्ष 2019-20
में कुल 26.9
करोड़ टन अनाज का
उत्पादन हुआ. इसमें से 11.75 करोड़ टन चावल की पैदावार हुई, जबकि गेहूं का उत्पादन 10.6
करोड़ टन हुआ. बाकी मोटे
अनाज भी इसी में शामिल हैं.
जहां तक दलहन की बात है
इस साल में 2.3 करोड़ टन दाल का उत्पादन हुआ. इसका आशय यह है कि भारत में प्रति व्यक्ति
अनाज का 198
किलो और दलहन का 17 किलो सालाना उत्पादन होता है. इस मान से वर्ष 2019-20
में भारत में कुल
खाद्यान्न उत्पादन 29.20 करोड़ रहा. कोरोना के संक्रमण और तालाबंदी के दौरान ही
कृषि मंत्रालय ने कहा है कि वर्ष 2020-21 में भारत में 29.83 करोड़ टन खाद्यान्न का उत्पादन होगा क्योंकि
मानसून अच्छा और सामान्य रहेगा. इसमें से 2.56 करोड़ टन दालें होंगी. जबकि 27.27
करोड़ टन अनाज होगा.
खाद्य मंत्रालय ने यह भी कहा कि कोरोना के कारण उत्पन्न होने वाली स्थितियों से हम
निपटने में सक्षम हैं क्योंकि हमारे पास पर्याप्त अनाज भण्डार है और आने वाले
महीनों में रहेगा.
सार्वजनिक
वितरण प्रणाली का दायरा
भारत की खाद्य नीति के
तहत किसानों से हर रबी और खरीफ की फसल आने के बाद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अनाज की
सरकार द्वारा खरीदी की जाती है. भारत के कुल उत्पादन में से लगभग एक चौथाई हिस्सा
सरकारी खरीद का होता है. वर्ष 2019-20 में रबी फसल के तहत 3.42
करोड़ टन और खरीफ फसल के
तहत 3.77
करोड़ टन अनाज की खरीदी
सरकार द्वारा की गयी. यानी 26.9 करोड़ टन उत्पादन में से 7.19
करोड़ टन अनाज (26.72
प्रतिशत) अनाज सरकार
द्वारा खरीदा गया. यही अनाज आज भारत को कोरोना से लड़ने में सबसे बड़ी सहायता कर रहा
है. यह व्यवस्था भारत में भोजन के अधिकार को सुनिश्चित करती है, और भोजन के अभाव में होने वाले दंगों की आशंका
को समाप्त करती है.
बहरहाल वर्तमान में
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत जनगणना-2011 की जनसंख्या (121.02 करोड़) में से 67 प्रतिशत जनसंख्या (80.95
करोड़) को ही इसमें
शामिल किया गया है, जबकि जनसंख्या वृद्धि दर के अनुमान के आधार पर आंकलन बताते हैं कि इस वक्त
भारत की जनसंख्या 136 करोड़ है, यानी 91.12 करोड़ लोगों को प्रत्यक्ष रूप से सार्वजनिक
वितरण प्रणाली के तहत खाद्य सुरक्षा का अधिकार मिलना चाहिए, किन्तु विसंगतिपूर्ण कानूनी प्रावधान के कारण 10 करोड़ लोग इससे वंचित हैं. यह बात सरकार
भली-भांति जानती है, इसलिए कोरोना संक्रमण के काल में ऐसे लोगों को भी सीमित समय के लिए राशन
देने की व्यवस्था बना रही है, जो अभी राशन हकदारों की सूची से बाहर हैं. जब
तालाबंदी हुई, तब यही व्यवस्था लोगों का कम से कम आधा पेट भर रही है.
सार्वजनिक
वितरण प्रणाली और पोषण सुरक्षा
भारत के सामने कुपोषण
की भी बड़ी चुनौती खड़ी है. जिससे निपटने के लिए एकीकृत बाल विकास कार्यक्रम-पोषण
आहार और स्कूलों में मध्यान्ह भोजन योजना का संचालन किया जाता है. ये दोनों
योजनायें हर रोज़ लगभग 20 करोड़ बच्चों में व्याप्त पोषण की कमी को पूरा करने
के लिए लागू हैं. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से मध्यान्ह भोजन योजना, आईसीडीएस, कल्याणकारी छात्रावास और किशोरी बालिकाओं के
लिए पोषण आहार कार्यक्रम के लिए भी वर्ष 2019-20 में 52.81 लाख टन अनाज का आवंटन किया गया. कोरोना के काल
में भी ये योजनायें महत्वपूर्ण भूमिका निभा पा रही हैं.
कोरोना
और सार्वजनिक वितरण प्रणाली
भारत में लोकहित पर
मज़हबी सियासत और पूंजी केन्द्रित सोच भारी पड़ती है. मई 2014
में जब केंद्र सरकार
बदली तब,
प्रधानमंत्री ने
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी क़ानून का मज़ाक उड़ाया और इसे पूर्व
सरकार की असफलता का प्रतीक बताया, जबकि यह क़ानून 8 करोड़ लोगों के जीवन में बड़ी भूमिका निभाता है.
इसी तरह सार्वजनिक वितरण प्रणाली में राशन/खाद्यान्न की जगह पर हक़ धारकों को 'नकद हस्तांतरण' किये जाने की नीति को पूरी ताकत से आगे
बढ़ाया. ज़रा सोचिये कि यदि अनाज का प्रावधान हटा दिया जाता तो आज इस संक्रमण काल
में लोग अनाज लेने कहां जाते, उन्हें किस कीमत पर अनाज मिलता और क्या खुले बाज़ार
को यह चिंता होती कि तालाबंदी में कोई भूखा तो नहीं सो रहा है? यदि किसी को लगता है कि हां, राशन की जगह नकद राशि लेकर समाज का वंचित तबका
बाज़ार से उचित मूल्य पर पर्याप्त मात्रा में अनाज हासिल कर सकता है, तो उसे वर्तमान स्थिति में अपने घर के आसपास
के निजी अस्पतालों के व्यवहार का अध्ययन कर लेना चाहिए.
भारत में 55 सालों से सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी सस्ते
राशन की व्यवस्था संचालित है. वर्ष 1991 की सातवीं पंचवर्षीय योजना से लगातार इसे ख़त्म
करने या कमज़ोर करने की नीति बनाने की कोशिश की जाती रही है. आर्थिक नीति बनाने
वालों और खाद्य सामग्री का व्यापार करने वाले समूह यह चाहते रहे हैं कि किसानों से
न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कृषि उत्पाद खरीदने और इसे राशन दुकान के माध्यम से सीधे
नागरिकों को उपलब्ध कराने की व्यवस्था बंद की जाए. इस कार्यक्रम के लिए दी जाने
वाली राजकीय सहायता (यानी खाद्य सुरक्षा सब्सिडी) सरकार द्वारा किया जाने वाला गलत
खर्च है. वर्ष 2019-20 में खाद्यान्न सुरक्षा के लिए 1.842 लाख करोड़ रूपए की सब्सिडी का प्रावधान किया
गया था,
किन्तु इसे वर्ष 2020-21 के बजट में घटा कर 1.16 लाख करोड़ कर दिया गया. नीतिगत जुगाड़ों से
भारत की खाद्य सुरक्षा नीति को कमज़ोर किये जाने का यह प्रत्यक्ष प्रमाण है.
इस दौरान वर्ष 2001
में पीपुल्स यूनियन फार
सिविल लिबर्टीज़ द्वारा भोजन और पोषण के अधिकार पर सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल
जनहित याचिका ने भारत की सार्वजनिक वितरण प्रणाली को मरने से बचाया. इस मामले में
सर्वोच्च न्यायालय ने साफ तौर पर कहा है -'न्यायालय इस बात को लेकर चिन्तित है कि समाज
के निर्धन व बेसहारा व कमजोर तबके भूख व भुखमरी से न पीड़ित रहें. भूख और भुखमरी को
रोकना सरकार- केन्द्र व राज्य, दोनों की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है. अब यह सब
कैसे सुनिश्चित हो, एक नीतिगत मसला है जिसे सरकार को सुलझाना होगा. न्यायालय तो यह सुनिश्चित
करना चाहती है कि सरकारी गोदामों में भरा पड़ा अनाज न तो समुद्र में फिंके और न ही
चूहों का भोजन बने. बिना क्रियान्वयन के नीतियां निरर्थक हैं. महत्वपूर्ण यह है कि
खाद्यान्न उन लोगों तक पहुंचे जो भूख और भुखमरी के शिकार हैं.' कोरोना के संघर्ष में अनाज के भण्डार से ताकत
मिली है,
क्योंकि सरकार द्वारा
किसानों से की गयी सीधी खरीद के कारण की भारत सरकार और राज्य सरकारों के गोदामों
में 1
मार्च 2020
की स्थिति में 5.85
करोड़ टन अनाज का भण्डार
मौजूद था.
बाकी के
मिलियन-ट्रिलियन करने वालों की हालत देखिये कि हज़ारों कंपनियों ने अपने श्रमिकों
के भोजन की ही व्यवस्था नहीं की. यह जानते हुए कि अपने गाँव-घर जाना खतरनाक है, फिर भी 10 लाख मजदूर वापस लौटने निकल पड़े. जब सब-कुछ बंद
हो रहा था, तब राशन प्रणाली ने उम्मीद के दरवाज़े खोले. मार्च-अप्रैल 2020
में कोरोना-कोविड19 के प्रकोप ने यह साबित कर दिया कि किसानों से
की गयी सरकारी खरीद और सार्वजनिक वितरण प्रणाली ने कोरोना से जूझने में सबसे
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
18 मार्च 2020
को भारत के खाद्य और
नागरिक आपूर्ति मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा क़ानून
में दर्ज 80 करोड़ हितग्राही एक बार में ही, अगले छह महीने का खाद्यान्न उठा सकते हैं.
मंत्री जी ने नहीं बताया कि इसके लिए हमें अपने किसानों और सार्वजनिक वितरण
प्रणाली का आभारी होना चाहिए. यदि ये व्यवस्था नहीं होती तो एक बार फिर भारत
चीन-अमेरिका-यूरोप के सामने हाथ फैलाए खड़ा होता और पी.एल.480 की जानवरों के भोजन की आमद का स्वागत करना
पड़ता. 1960
के दशक की सरकारों ने खाद्य
सुरक्षा को गरिमा का प्रश्न बनाया तो ही आज हम कोरोना से भी लड़ पा रहे हैं.
फिर 25 मार्च 2020 को भारत सरकार ने निर्णय लिया कि राशन प्रणाली
के तहत 80
करोड़ हकधारकों को 5 के बजाये 7 किलो, यानी 2 किलो अतिरिक्त राशन, दिया जाएगा. यह निर्णय भारत सरकार कैसे ले
पायी?
क्योंकि व्यवस्था बनी
हुई थी.
इसके
बाद 30
मार्च 2020
को भारत सरकार ने
निर्णय लिया की सभी 80 करोड़ हक़धारकों को 5 किलो प्रति व्यक्ति के मान से प्रधानमंत्री
गरीब कल्याण अन्न योजना के तहत तीन महीने का 1.22 करोड़ मीट्रिक टन राशन निःशुल्क दिया जाएगा.
कहां से आया यह राशन और किस व्यवस्था से लोगों तक पहुंचाया जाएगा? इसके साथ ही दिल्ली, मध्य प्रदेश, कर्नाटक सरीखे राज्यों ने उन परिवारों को भी
राशन देने की योजना बनाई है, जिनके पास राशन कार्ड नहीं हैं. इसमें भी 50 लाख टन खाद्यान्न का उपयोग होगा.
2 अप्रैल 2020 को उपभोक्ता मामलों, खाद्य और सार्वजनिक वितरण प्रणाली मंत्रालय ने बहुत आत्मविश्वास से यह
प्रेस वक्तव्य जारी किया कि भारतीय खाद्य निग्रम ने केवल राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा
क़ानून के हितग्राहियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए तैयार है, बल्कि इसके इतर भी हर मांग को पूरा करने की
स्थिति में है.
आज
की स्थिति और तीन कदम
वर्तमान स्थिति में इन
चार मकसदों को पूरा करने के लिए एक निश्चित अवधि में तय मात्रा में अनाज के भण्डार
सरकार के नियंत्रण में रखे जाने की व्यवस्था है. 1 अप्रैल को सरकार के पास 210.40
लाख टन अनाज का भण्डार
होना चाहिए, किन्तु वास्तव में 1 अप्रैल 2019 को भारत सरकार के गोदामों में 463.86 लाख टन अनाज भरा हुआ था. इसी तरह 1 जुलाई 2019 को 411.20 लाख टन के मानक के विपरीत 742.52
लाख टन, 1 अक्टूबर 2019 को 307.70 लाख टन के मानक के विपरीत 642.32
लाख टन और 1 जनवरी 2020 को 214.10 लाख टन के मानक के विपरीत 565.11
लाख टन अनाज का भण्डार
भरा हुआ था, यानी भारत के पास जरूरत से दो गुना से भी ज्यादा अनाज भण्डार मौजूद रहा है.
यही
व्यवस्था भारत के प्रधानमंत्री को आत्मविश्वास देती है, किन्तु दुखद यह है कि प्रधानमंत्री ने अपने 4 राष्ट्रीय संबोधनों, वित्तमंत्री की दो राष्ट्रीय प्रेस वार्ताओं
और भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के 17 अप्रैल 2020 के संबोधन में सार्वजनिक वितरण प्रणाली और
किसानों-कृषक मजदूरों के लिए कोई सम्मानजनक वक्तव्य नहीं था. वास्तव में अब इन
सबको दिल पर पत्थर रखकर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली और
खेती से जुड़े 14 करोड़ से ज्यादा परिवार भारत की असली ताकत हैं.
यह
जरूरी है कि (1) भारत में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को लोकव्यापिकृत करके सभी को इसके दायरे
में लाया जाए. (2) साथ ही इसमें दालों और खाने के तेल को भी शामिल किया
जाए. और (3) किसानों को उनकी लागत का बिना धोखेबाज़ी वाला डेढ़ गुना दाम दिया जाना
सुनिश्चित किया जाए.
भारत की खाद्य नीति का संक्षिप्त इतिहास
आधुनिक विश्व के इतिहास
में द्वितीय विश्वन युद्ध के गहरे असर दिखाई देते हैं. भारत की खाद्य सुरक्षा की
स्थिति पर भी इसका बहुत गहरा असर था. उन स्थितियों में तत्कालीन गवर्नर जनरल की
परिषद में शामिल वाणिज्य सदस्य के अंतर्गत खाद्य विभाग की स्थापना की गई. इस मसकद
का प्रस्ताव 30 नवंबर 1942 को रखा गया कि 1 दिसंबर 1942 से खाद्य विभाग काम करना शुरू करे. इसके बाद 10 दिसंबर 1942 को भारत की सभी प्रांतीय सरकारों और केंद्र
से संचालित प्रदेशों को सूचना दी गई कि "मुझे यह कहने का निदेश हुआ है कि
भारत सरकार के खाद्य विभाग ने कार्य शुरू कर दिया है और इसने चीनी और नमक (लेकिन
चाय अथवा कॉफी नहीं) सहित खाद्य पदार्थों के मूल्यन और संचालन को नियंत्रित करने
से संबंधित सभी मुद्दे अपने हाथ में ले लिए हैं. खाद्य पदार्थों से संबंधित
निर्यात व्याचपार नियंत्रण संबंधी प्रशासन इस विभाग को हस्तांतरिक करने के संबंध
में अधिसूचना जारी की जा रही है. सेना के लिए खाद्य पदार्थों की खरीद, जो इस विभाग का एक कार्य होगा, तत्पश्चात घोषित की जाने वाली तारीख तक
आपूर्ति विभाग द्वारा जाती रहेगी." इसका आशय यह है कि खाद्य विभाग का शुरूआती
काम मूल्य और उनका वाणिज्यिक उपयोग को संचालित करना था.
वास्तव में 1960
का दशक स्वतंत्र भारत
के इतिहास में खाद्य सुरक्षा और आत्मनिर्भरता के नज़रिए से बहुत महत्वपूर्ण रहा है.
पड़ोसी देशों से युद्धों और सूखे की स्थितियों ने भारत के सामने बड़ी चुनौतियां खड़ी
कीं. वर्ष 1965 में देश में खाद्यान्न की कमी को ध्यान में रखते हुए खाद्य निगम अधिनियम,
1964 लागू किया गया, और स्थापना हुई भारतीय खाद्य निगम की. हम सब
जानते हैं कि 1965 के बाद के वर्षों में भारत ने हरित क्रान्ति की नीति अपनाई. जिससे देश में
खाद्यान्नों का उत्पादन बढ़ा. तब उत्पादकों को बाज़ार की उठक-पुथल से बचाने, खाद्यान्न की जमाखोरी रोकने, कीमतों के नियंत्रण और विपरीत परिस्थितियों
में देश की खाद्य सुरक्षा को सुरक्षित रखने की व्यापक नीति बनने की प्रक्रिया शुरू
हुई. 1983
में खाद्य और कृषि
मंत्रालय दो अलग-अलग मंत्रालय बना दिए गए. इससे खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्रालय
का गठन हुआ.
भारत
की खाद्य सुरक्षा व्यवस्था में वर्ष 1965 से यह व्यवस्था है कि भारत सरकारें, राज्य सरकारों के साथ सामंजस्य बना कर रबी और
खरीफ़ उत्पादन मौसम के दौरान उत्पादकों से खाद्यान्न (मुख्य रूप से गेहूं और धान)
की न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी करती हैं. इसी व्यवस्था के तहत भारत में
सार्वजनिक वितरण प्रणाली की नीव रखी गई. इस प्रणाली के माध्यम से भारत सरकार सस्ती
दरों पर नागरिकों को खाद्यान्न उपलब्ध करवाती रही है. आज इस व्यवस्था को सबसे अधिक
सम्मान देने की है. अब ग्रामीण अर्थव्यवस्था और कृषि को भारत की राजनीतिक
अर्थव्यवस्था के केंद्र में लाया जाना चाहिए.
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