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कविता - बेटी तुम

प्रबोध सिन्हा



बेटी तुम
बरसात के बाद के
उगते दूब की
घास बनो
समय का हस्ताक्षर बनो
जिस तरह दूब
तनकर
सबका प्रतिवाद करते हैं
बेटी तुम भी
इसी तरह
तनकर खड़ी रहो
तुम
ऊष्मा बनो
तुम तितली बनो
तुम दूर
गगन
में पहाड़ के
उस पार तक उड़ो
चुम लो चाँद को
बेटी तुम
उड़ो
खुब उड़ो
खूब खिलखलाओ
तुम्हारे हँसने से
ये धरती
खूब अंगड़ाई लेती है
ये धरती
तुम बेटियों पर
खूब प्यार लुटाना
चाहती है।
खूब ढेर सारा प्यार।
बेटी तुम
हस्ताक्षर बनों।


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