बाल मजदूरी भारत जैसे विकासशील देशों की एक बड़ी समस्या रही है
जहाँ की एक बड़ी आबादी को जीवन के बहुत ही बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए
अपना पूरा समय खपाना पड़ता है,इसी के चलते उन्हें अपने बच्चों को भी काम में लगाना
पड़ता है. तमाम सरकारी और गैर सरकारी प्रयासों के बावजूद
हमारे देश में बाल मजदूरी की चुनौती बनी हुई है. सावर्जनिक
जीवन में होटलों, मैकेनिक की दूकानों और एवं सार्वजनिक संस्थानों में बच्चों को
काम करते हुए देखना बहुत आम है जो हमारे समाज में इसकी व्यापक स्वीकारता को
दर्शाता है,समाज में कानून का कोई डर दिखाई नहीं देता है और सरकारी मशीनरी
भी इसे नजरअंदाज करती हुई नजर आती है.
2011 की जनगणना के
अनुसार भारत में 5 से 14 साल के
बच्चों की कुल आबादी 25.96 करोड़ है इनमें से 1.01
करोड़ बच्चे मजदूरी करते हैं .राज्यों की बात करें तो सबसे ज्यादा
बाल मजदूर उत्तरप्रदेश (21.76 लाख) में हैं जबकि दूसरे नम्बर
पर बिहार है जहाँ 10.88 लाख बाल मजदूर है, राजस्थान में 8.48 लाख, महाराष्ट्र
में 7.28 लाख तथा, मध्यप्रदेश
में 7 लाख बाल मजदूर है. वैश्विक स्तर पर देखें तो
सभी गरीब और विकासशील देशों में बाल मजदूरी की समस्या है इसकी
मुख्य वजह बच्चों का सस्ते मजदूर के रूप में उपलब्ध होना है .अंतरराष्ट्रीय
श्रम संगठन (आईएलओ) ने पूरे विश्व के 130 ऐसे चीजों की सूची
बनाई गई है जिन्हें बनाने के लिए बच्चों से काम करवाया जाता है,इस सूची में सबसे ज्यादा बीस उत्पाद भारत में बनाए जाते हैं.
इनमें बीड़ी, पटाखे, माचिस, ईंटें,
जूते, कांच की चूड़ियां, ताले, इत्र कालीन कढ़ाई, रेशम के कपड़े और फुटबॉल
बनाने जैसे काम शामिल हैं. भारत के बाद बांग्लादेश का नंबर है जिसके 14 ऐसे उत्पादों का जिक्र किया गया है
जिनमें बच्चों से काम कराया जाता है.
इधर राज्यसभा के बाद लोकसभा द्वारा भी
बाल श्रम कानून में संशोधन करने वाले विधेयक को पारित कर दिया गया है राष्ट्रपति से मंजूरी मिलने के बाद संशोधित कानून पूरे देश में लागू हो जाएगा. इस विधेयक में कई
ऐसे बदलाव हैं जिनको
लेकर विवाद है, विशेषज्ञ और बाल अधिकार संगठन इन बदलाओं का यह कहते हुए विरोध कर
रहे हैं की इससे बाल श्रम कानून कमजोर होगा.
सबसे ज्यादा एतराज 'पारिवारिक कारोबार' वाले प्रावधान पर हैं जिसमें पारिवारिक कारोबार या उद्यमों, एंटरटेनमेंट
इंडस्ट्री और स्पोर्ट्स एक्टिविटी में संलग्न 14 साल से कम उम्र के बच्चों को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखा गया है. चिंता इस बात
को लेकर जताई जा रही है कि व्यवहारिक रूप से यह साबित करना मुश्किल होगा कि कौन सा
उद्यम पारिवारिक है और कौन-सा नहीं, इसके आड़ में घरों की चारदीवारी के भीतर चलने
वाले उद्यमों में 14 वर्ष से कम उम्र
के बच्चों को बाल मजदूर के तौर पर झोके जाने की संभावना बढ़ जायेगी.
बच्चों के लिए
घरेलू स्तर पर काम को सुरक्षित मान लेना गलत होगा. दरअसल उदारीकरण के बाद असंगठित और अनौपचारिक
क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, काम का साधारणीकरण
हुआ है.अब बहुत सारे ऐसे काम घरेलू के
दायरे में आ गये हैं जो वास्तव में इन्डस्ट्रीअल हैं, आज हमारे देश में बड़े स्तर
पर छोटे घरेलू धंधे और उत्पादक उद्योग असंगठित क्षेत्र में चल रहे हैं जो
संगठित क्षेत्र के लिए उत्पादन कर रहे हैं इन क्षेत्रों में बड़ी संख्या में महिलायें
और बच्चे काम कर रहे है . जैसे बीड़ी
उद्योग में बड़ी संख्या में बच्चे काम कर रहे हैं, बड़े पैमाने पर अवैध रूप से चल
रहे पटाखों और माचिस के कारखानों में लगभग 5० प्रतिशत बच्चे
होते हैं जिन्हें दुर्घटना के साथ-साथ सांस की बीमारी के खतरे बने रहते है. इसी
तरह से चूड़ियों के निर्माण में बाल मजदूरों का पसीना होता है जहाँ 1000 से 1800 डिग्री सेल्सियस के तापमान वाली भट्टियों के
सामने बिना सुरक्षा इंतजामों के बच्चे काम करते हैं. देश के कालीन उद्योग में भी
लाखों बच्चे काम करते हैं.आंकड़े बताते है कि उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के
कालीन उद्योग में जितने मजदूर काम करते हैं उनमें तकरीबन 4०
प्रतिशत बाल श्रमिक होते हैं.वस्त्र और हथकरघा खिलौना उद्योग में भी भारी संख्या
में बच्चे खप रहे हैं. कुछ बारीक काम जैसे रेशम के
कपड़े बच्चों के नन्हें हाथों बनवाए जाते हैं. कानून में हुए बदलाओं के बाद अब 'पारिवारिक कारोबार' के नाम पर बच्चों को ऐसे कामों में खपाना और आसन
हो जाएगा और इसे एक तरह से कानूनी वैधता भी मिल जायेगी. इसके आलावा भारत में जो जाति वयवस्था व्याप्त हैं
उसमें हर जाति के परम्परागत पेशे रहे हैं और लोगों पर अपने जाति आधारित पेशे को
छोड़ कर कोई दूसरा पेशा अपनाने की सख्त मनाही रही है . यह चलन अभी भी पूरी तरह से
समाप्त नहीं हुआ है आज भी कई जातियां है जिन्हें
अपने परम्परागत पारिवारिक काम धंधे
करने को मजबूर किया जाता है. नया बाल श्रम कानून जाति
आधारित रोजगार के इस चलन को और मजबूत करेगा .
भूमण्डलीकरण के इस दौर में माल उत्पादन की पूरी प्रक्रिया बदल
गयी है जहाँ वैश्विक पूँजी पिछड़े और
विकासशील देशों में सस्ते श्रम की तलाश में विचरण करती है. अब निर्माण छोटे-छोटे
कुटीर उद्योग और यहाँ तक कि घरेलू उद्योगनुमा इकाइयों में इकाइयों में होंने लगा
है. ज्यादातर काम ठेके पर कराया जाता है और इसमें स्त्रियाँ और बच्चे बेहद कम
मज़दूरी पर ज्यादा समय तक काम करते हैं. इसी सस्ते श्रम की वजह से आज भारत जैसे
देश दुनियाभर के निवेशकों और कारपोरेशनों के चहेते बने हुए हैं. मोदी सरकार श्रम
क़ानून संशोधन को लेकर प्रतिबद्ध है. बाल श्रम कानून में हुए बदलाव उसके द्वारा
श्रम कानूनों में सुधार के व्यापक अजेंडे का हिस्सा है. ध्यान रहे मोदी
सरकार द्वारा पिछले साल भी फैक्टरी अधिनियम और न्यूनतम मजदूरी अधिनियम में संशोधन
की घोषणा की गयी है, जो नियोक्ता को बाल मजदूरों की भर्ती करने में समर्थ बनाता है
और ऐसे मामले में सजा नियोक्ता को नहीं माता-पिता को देने की वकालत करता है.
भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा 32 पर सहमति नहीं दी है जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की
बाध्यता है.1992 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ में यह
जरूर कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए हम बाल मजदूरी को खत्म करने का
काम रुक-रुक कर करेंगे क्योंकि इसे एकदम से नहीं रोका जा सकता है, आज 23 साल बीत जाने के बाद हम बाल मजदूरी तो खत्म नहीं कर पाए हैं उलटे बालश्रम
कानून में इस तरह का बदलाव कर दिया गया है.
किसी भी
देश में बच्चों की स्थिति से उस देश
सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक प्रगति स्तर का पता चलता है, बचपन एक ऐसी स्थिति है
जब बच्चे को सबसे अधिक सहायता, प्रेम, देखभाल
और सुरक्षा की जरुरत होती है. ऐसे में बाल श्रम किसी भी देश और समाज के लिए घातक
और शर्म की बात है.यह बच्चों को उनके बच्चे बचपन के समस्त अधिकारों जैसे शिक्षा ,
स्वास्थ, सुरक्षा इत्यादी से वंचित हैं और
उन्हें अपनी क्षमताओं को हासिल करने का कोई मौका नहीं मिल रहा है जिससे अपनी पूरी
जिंदगी वे अनपढ़ कामगार ही बने रहने को मजबूर होते हैं. जाहिर है कि ऐसी स्थिति
में कोई भी देश सामाजिक और आर्थिक रुप से प्रगति करने का दावा नही कर सकता है. बालश्रम निषेध और नियमन कानून में यह संशोधन बाल
श्रम और शोषण को परिसीमित करने के बजाय
उसे बढ़ावा ही देगा.
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