जावेद अनीस
हमने अपनी शिक्षा
प्रणाली को व्यापार बना दिया है और इस खेल में सरकार, कॉर्पोरेट, समाज, नेता और पेरेंट्स सभी शामिल हैं. अच्छी शिक्षा
तक पहुँच पैसे वालों तक ही सीमित हो गयी है, यह लगातार
आम आदमी के पहुँच से बाहर होती जा रही है. राज्य अपनी भूमिका से लगातार पीछे हटा
है हालांकि इस बीच शिक्षा का अधिकार कानून भी आया
है जो 6 से 14 साल
के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है, लेकिन इसका बहुत असर होने नहीं दिया गया है. एक बहुत ही सुनियोजित तरीके
से सरकारी शिक्षा व्यवस्था को चौपट और बदनाम किया गया है और आज स्थिति यह बन गयी
है कि सरकारी स्कूल मजबूरी का ठिकाना बन कर उभरे हैं. जो
परिवार थोड़े से भी समर्थ होते है वे अपने बच्चों को तथाकथित अंग्रेजी माध्यम के
प्राइवेट स्कूलों के शरण में भेजने में देरी नहीं करते हैं. हालांकि इन प्राइवेट
स्कूलों की हालत भी बदतर है. हमारी शिक्षा में यह एक ऐसा वर्ग विभाजन है जिसकी
लकीरें पूरी तरह से स्पष्ट है. “चॉक एंड डस्टर” का यह दावा है कि फिल्म शिक्षा के व्यापारीकरण पर सवाल उठती है, शायद इसलिए अभी तक इस फिल्म को राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और बिहार में कर मुक्त कर
दिया गया है। यह साल 2016 की पहली महिला प्रधान फिल्म
भी थी.
पिछले कुछ सालों
में बॉलीवुड में 'तारे जमीन पर' और '3 इडियट्स' जैसी
फिल्में बनी हैं जिन्होंने शिक्षा
व्यवस्था और इसको लेकर पेरेंट्स के उनके बच्चे की तरफ रवैये पर सवाल उठाया था। ऐसा करते समय वे मनोरंजक भी बनी रही
थी जिसकी वजह से व्यापक स्तर पर इन्हीं दर्शकों ने इन फिल्मों को खूब पसंद भी किया
था. “चॉक एन डस्टर” को लेकर भी लम्बे-चौड़े दावे किये गये थे लेकिन यह फिल्म अपने गंभीर विषय और
भारी-भरकम कलाकरों के बोझ को ही सहन नहीं कर पाती है और जबरदस्ती की भावुकता व
नैतिकता का लेक्चर बघारने वाली फिल्म ही साबित होती है.
कहानी एक प्राइवेट स्कूल और वहां पढ़ाने वाली शिक्षकों
की है, जिसमें एक तरफ विद्या (शबाना आजमी), ज्योति ठाकुर (जूही चावला) और
दूसरी तरफ कामिनी गुप्ता
(दिव्या दत्ता) है.
सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि स्कूल ट्रस्टी का बेटा अनमोल पारिख (आर्यन बब्बर) लंदन से एमबीए की पढ़ाई करके वापस आता है, वह अपने स्कूल को पूरी
तरह से व्यवसायिक बना देना चाहता है, एक ऐसा पांच सितारा स्कूल जहाँ सिर्फ सलेब्रिटी और बड़े लोगों के ही बच्चे पढ़े. इसीलिए सबसे पहले
वह स्कूल की
पुरानी प्रिंसिपल मिसेज प्रधान (जरीना वहाब) को
नौकरी से हटा देता
है और उनकी जगह स्कूल की सुपरवाईजर कामिनी गुप्ता
(दिव्या दत्ता) को प्रिंसिपल बना दिया जाता है। नई प्रिंसिपल का रवैया हिटलरी वाला होता है और वह पुराने-बुड्ढ़े हो चुके टीचरों की जगह नये और स्मार्ट
टीचर कम सेलरी में लाना चाहती है इसलिए वह उन्हें तंग करना शुरू करती है, क्लासों से अध्यापकों की कुर्सी हटवा ली जाती है, उन्हें चाय के पैसे अदा करने पड़ते हैं और अध्यापकों को उसी स्कूल में पढ़
रहे अपने बच्चों की फीस में अदा करनी पड़ती है. फिर
कामिनी गुप्ता बुजर्ग टीचर विद्या की काबिलियत पर ही
प्रश्न उठा देती है और उसे स्कूल से निकाल देती है. बाद में विद्या का साथ देनी वाली अध्यापक ज्योति को भी स्कूल से निकाल दिया जाता है.
विद्या को अपने काबिलियत पर ही प्रश्न उठा दिए जाने और स्कूल से निकाल दिए जाने की
वजह से स्कूल में दिल का दौरा पड़ जाता है और वो
अस्पताल में भर्ती हो जाती है. बात मीडिया तक पहुंच जाती है और हंगामा हो जाता है. अंत में विद्या और
ज्योति को अपने आप को अच्छा
टीचर साबित करने के लिए एक क्विज में हिस्सा लेना पड़ता है जिसमें यह शर्त होती है कि जिसमें
अगर वे जीतेंगीं तो उन्हें
स्कूल की ओर से पांच करोड़ रु. मिलेंगे और नौकरी वापस
मिल जाएगी और प्रशासन उन दोनों से माफ़ी भी मांगेगी जबकि
अगर वो क्विज हारती है हो उनका अध्यापन का कैरियर बर्बाद हो जाएगा।
फिल्म की सबसे
बड़ी कमजोरी अस्पष्ट कहानी और कमजोर प्रस्तुतिकरण है, यह एक सपाट फिल्म है, दृश्य प्रभाव नहीं छोड़
पाते हैं. राजकुमार हिरानी बनने के चक्कर में कुछ भावुक दृश्य फिल्म में जबरदस्ती
ठूंसे हुए लगते हैं. फिल्म का उद्देश्य साफ नहीं है कि यह शिक्षा के व्यवसीकरण पर है या
शिक्षकों की समस्याओं पर. निर्दशक को अपनी कहानी पर भरोसा नहीं है शायद इसीलिए कहानी के जरिए नहीं ! थोड़ी- थोड़ी देर में बैकग्राउंड में ‘गुरू देवो नम:’ के माध्यम से दर्शकों
को शिक्षकों की
पीड़ा महसूस करने की कोशिश की गयी है, इसमें बच्चे और उनके पेरेंट्स भी गायब
है. पूरी फिल्म बोझिल है सिवाये क्लाईमैक्स के जहाँ ऋषि कपूर ताजगी का अहसास करते
है .
डायरेक्टर जयंत
गिलटर की इस फिल्म में शबाना आजमी,जूही चावला,दिव्या दत्ता,ऋचा चड्ढा,जरीना वहाब,उपासना सिंह और गिरीश कर्नाड जैसे
कलाकार हैं, लेकिन यह फिल्म इतने अच्छे कलाकारों को यूँ ही जाया कर देती है.शायद फिल्म बनाने वाले यह मान कर चल रहे थे कि इन कलाकारों को साथ ले आना ही काफी है
बाकि का काम खुद-बखुद हो जायेगा.
शिक्षा का निजीकरण
एक दिलचस्प और गंभीर विषय है जिस पर बहुत कम लोग फिल्म बनाने का सोचते हैं इसलिए इस विषय पर मेनस्ट्रीम फिल्म बनाने के लिए
अतिरिक्त प्रयास के जरूरत पड़ती है जिससे मनोरंजन
के साथ-साथ अपनी बात भी कही जा सके लेकिन दुर्भाग्य 'चाक एंड डस्टर' इन दोनों में से एक अकेला काम भी नहीं कर पाती है. नतीजे के
तौर पर 130 मिनट
की यह फिल्म आप को
उबाती तो है ही साथ ही साथ आप ऐसा महसूस करते है कि जैसे किसी बोरिंग टीचर के
नैतिक शिक्षा का प्रवचन झेल रहे हों. कुल मिलकर कर यहाँ विषय और कलाकार तो उम्दा है
लेकिन इसमें सिनेमा गायब है. यह शिक्षा के निजीकरण की व्यवस्था पर कोई ठोस सवाल खड़े करना तो दूर
अंत में जब यह केबीसी मार्का प्रश्नों के आधार पर अच्छे शिक्षक होने का फैसला
सुनती है तो अपने ही बनाये हुए जाल में
फंसी हुई नज़र आती है.
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