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मध्य प्रदेश: बच्चों को लग रहा मिड डे मील से डर!


भोपाल। बिहार के छपरा में मिड डे मील खाने से 22 बच्चों की मौत पर हंगामा मचा हुआ है, लेकिन सवाल ये है कि क्या छपरा हादसे के बाद राज्य सरकारों की नींद खुलेगी। बात करें मध्यप्रदेश की तो यहां भोपाल के पास जाटखेड़ी गांव के सरकारी प्राथमिक स्कूल में बच्चों को मिड डे मील मिलता है। यहां गरीब मां-बाप एक एक वक्त के खाने की वजह से बच्चों को स्कूल भेज देते हैं। मगर ये योजना बच्चों को दूर भगाने में लगी है।

चौथी दर्जे की छात्रा अभिलाषा का कहना है कि एक दिन हम खाना खा रहे थे तब एक इल्ली निकली थी। इसके बाद हमने खाना फेक दिया। खाना खाने का मन होता है लेकिन जब इल्ली निकलती है तो नहीं होता। जाटखेड़ी गांव के स्कूल में कभी दाल में पानी मिलता है तो कभी पापड़ जैसी चपाती। कई बार जंग लगी लोहे की पिन भी मिल चुकी है। अधिकारी सुनते नहीं, शिक्षक शिकायत करें भी तो किससे? हालात ये है कि दोपहर के भोजन ने स्कूल में बच्चों की तादाद कम कर दी है।

स्कूल के हेड मास्टर राजेश श्रीवास्तव के मुताबिक एक बार पिन निकली थी छोटी बच्ची ने लाकर दी थी मुझे। मैने शिकायत की। जहरीला होता है। अगर बच्चा खा लेता तो बच्चे को नुकसान होता। स्कूलों में मिड डे मील के लिए रसोई बनाने के लिए मिड डे मील योजना के तहत 60 हजार रुपए मिलते हैं। दूसरी तरफ खाना बनाने के लिए सहायक रखे जाते हैं। साल 2011-12 में मिड डे मील योजना के देश के सभी स्कूलों के लिए 26 हजार 99 लाख 338 सहायकों को रखने की इजाजत थी लेकिन रखे गए 24 लाख 57 हजार 635 सहायक। यानी करीब 2 लाख 41 हजार सहायक कम।
जाटखेड़ी में स्कूल के बच्चे ही मिड डे मील बांटते हैं। जहां कचरा फेका जाता है उस जगह बैठकर बच्चे खाना खाने को मजबूर हैं। सरकार जब सफाई के लिए पैसा ही नहीं देती तो बेचारे छोटे छोटे कर्माचारी करें भी तो क्या। खाना सहायक गुलाबराव पाटिल के मुताबिक सरकार से पेमेंट नहीं मिल रहा है। फिर भी काम करते जा रहे हैं। सफाई के लिए यहां कोई नहीं है। बच्चे गंदा तो करेंगे। जब पेमेंट नहीं मिलेगा तो हम सफाई कैसे करेंगे।

भोपाल के पास ही बागमुगालिया की गोंड बस्ती के स्कूल का भी यही हाल है। और तो और मिड डे मील लेने के लिए बच्चे छुट्टी होने पर घर जाकर बर्तन लाते हैं। कई बार तो ऐसा खाना पहुंचता है कि बच्चे गाय का पेट भरके पुण्य कमाते हैं। राईट टू फूड के लिए काम कर रहे संगठनों की अगर मानें तो राज्य सरकार छपरा जैसी किसी बड़ी वारदात के होने का इंतज़ार कर रही है।

राईट टू फुड संयोजक प्रशांत दुबे के मुताबिक छपरा की घटना प्रकाश में आ गई है एमपी में ऐसी घटनाये रोज होती हैं। इतने बड़े पैमाने पर नहीं हो रही हैं इक्का दुक्का हो रही हैं। कभी पिन मिलती है, कभी मेंडक, कभी छिपकली, कभी सांप के बच्चे। इतनी गैर जिम्मेदाराना व्यवस्था में आप कैसे कह सकते हैं कि बच्चे स्कूल मे बैठकर शिक्षा पाएंगे।

मध्य प्रदेश में मिड डे मील के नाम पर 1000 करोड़ रूपया खर्च होता है। मिड डे मील योजना के प्रावधानों के मुताबिक इसका 75 फीसदी खर्चा केन्द्र औऱ 25 फीसदी राज्य सरकार उठाती है। एक लाख पन्द्रह हज़ार स्कूलों में योजना चलती है जिसमें पहली से आठवी दर्जे के 78 लाख से ज्यादा छात्रों को योजना का फायदा देने का सरकार दावा करती है। प्राथमिक स्कूल के एक छात्र को सरकार रोज़ाना तकरीबन चार रूपये की मिड डे मील देती है जबकि मिडिल स्कूल के छात्र को छह रूपये की।

मिड डे मील संचालक अरूण कुमार के मुताबिक आज भी सभी स्कूलों में जो पूरी स्वच्छता का जो हमारा प्रोटोकॉल है वो लागू नहीं हो पाता है। लेकिन हमारा प्रयास जारी है।

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