मध्यप्रदेश लोक सहभागी साझा मंच

प्रदेश में बढ़ता जाता कुपोषण

 मुकेश तोमर




मध्यप्रदेश कुपोषण की गिरफ्त में है, मगर अब इस पर कहीं कोई चर्चा नहीं होती। नौनिहालों को कुपोषण से बचाने हेतु केंद्र सरकार के साथ ही साथ मध्यप्रदेश सरकार भी ढेरों योजनाएं चला रही है, लेकिन इन योजनाओं की जमीनी हकीकत ग्रामीण इलाकों में गरीबों के घर में झांकने पर ही पता चल जाती है।

इन योजनाओं के क्रियान्वयन के सरकारी रिकॉर्ड खंगालने पर यह संकेत मिलता है कि कुपोषण मिटाने के लिए प्रदेश सरकार की दृढ़ता केवल खोखली है। हकीकत तो यह है कि अकाल मौत के मुंह की ओर ले जाने वाला यह कुपोषण नौकरशाही को आराम की नौकरी फरमाने का अवसर उपलब्ध करा रहा है।


इस कार्य के लिए आवंटित राशि का सदुपयोग नहीं हो रहा है और जो खर्च हो रहा है, उससे कुपोषितों की हड्डियों पर मांस चढ़ने की बजाय नौकरशाहों की जेब मोटी हो रही है। आखिर, कुपोषण है क्या?
दरअसल, यह एक ऐसा चक्र है, जिसके चंगुल में बच्चे अपनी मां के गर्भ में ही फंस जाते हैं। उनके जीवन की नियति दुनिया में जन्म लेने के पहले ही तय हो जाती है। यह नियति लिखी जाती है, गरीबी व भुखमरी की स्याही से और इसका रंग स्याह होता है। स्थिति गंभीर होने पर जीवन में आशा की किरणों भी नहीं पनप पाती हैं।

आयु के अनुरूप पर्याप्त शारीरिक विकास न होना कुपोषण है और एक स्तर के बाद यह मानसिक विकास की प्रक्रिया को भी अवरुद्ध करने लगता है। बच्चों, खासतौर पर जन्म से लेकर पांच वर्ष की आयु तक के बच्चों को भोजन के माध्यम से पर्याप्त पोषण नहीं मिलने के कारण उनमें कुपोषण की समस्या जन्म ले लेती है।
इसके परिणाम-स्वरूप बच्चों में रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है और बहुत छोटी-छोटी बीमारियां भी उनकी मृत्यु का कारण बन जाती हैं।

प्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक बनी हुई है। यहां के कई जिलों में कुपोषण ने पैर पसार रखे हैं। मुरैना, शिवपुरी, श्योपुर, खंडवा से तो कुपोषण से बच्चों की मौत की खबरें भी आती रहती हैं। मुरैना के पुनर्वास केंद्रों में बड़ी संख्या में कुपोषित बच्चे लाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय कुपोषण संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार मुरैना में 53 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, तो प्रदेश में 51.9 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की गिरफ्त में हैं, जबकि राज्य महिला एवं बाल विकास विभाग 41 प्रतिशत बच्चों को ही कुपोषित मानता है।

नेशनल फैमिली हैल्थ सर्वे-3 की रिपोर्ट के आंकड़ों के अनुसार, मध्यप्रदेश में 62.7 प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं। इन तीनों रिपोर्टो से एक बात तो साफ हो जाती है कि प्रदेश में कुपोषण का कहर जारी है व राज्य सरकार इसे रोकने में पूरी तरह विफल रही है। उसने पिछले नौ वर्षो में महिला एवं बाल विकास के सालाना बजट में हर साल भारी बढ़ोतरी की है। मगर, यह बजट गया कहां?

भाजपा शासन की शुरुआत में वर्ष-2003-04 में विभाग का बजट करीब 386 करोड़ रुपए था, जो बढ़कर चालू वित्तीय वर्ष-2012-13 में 2949 करोड़ हो गया है।


सरकार इस बढ़ोतरी को अपनी एक बड़ी उपलब्धि गिनाकर भले ही गद्गद होती हो, पर कुपोषण की स्थिति में कहीं कोई सुधार नहीं दिखता और कुपोषित बच्चों की मौतों का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
किसी भी सरकारी विभाग का सालाना बजट बढ़ने पर दो बातें मुख्य रूप से सामने आनी चाहिए। एक तो विभाग में प्रशासनिक कसावट और गतिशीलता आनी चाहिए तथा दूसरे, योजनाओं का विस्तार होना चाहिए व उनके लक्ष्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में अधिक जवाबदारी के साथ काम होना चाहिए।

इस दृष्टि से महिला एवं बाल विकास विभाग के कामकाज की गुणवत्ता में सुधार और उसकी योजनाओं का सकारात्मक प्रभाव प्रदेश की महिलाओं-बच्चों के जीवन पर स्वत: दिखाई देना चाहिए था, पर यह प्रभाव कहीं दिखाई नहीं देता।

यदि यह प्रभाव स्वत: दिखता, तो फिर इसे दिखाने के लिए सरकार को आंकड़ेबाजी की जरूरत नहीं रहती। कुपोषण रोकने को लेकर राज्य सरकार कितनी संवेदनहीन है, यह इससे भी साफ हो जाता है कि सरकार आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के चयन की प्रक्रिया में गरीब, दलित आदिवासी या विधवा महिलाओं को ही चुनती है, ताकि उनका शोषण किया जा सके और विपरीत परिस्थितियों में अपराधी घोषित कर अपना दामन बचाया जा सके। इससे फायदा यह है कि जब व्यवस्था की लापरवाही से कोई गड़बड़ होती है, तो कभी भी बड़े अफसरों और नीतियां बनाने वालों की जवाबदेही तय नहीं होती।

ठीकरा फोड़ने के लिए आंगनबाड़ी कार्यकर्ता मौजूद रहती हैं। स्थिति यह भी है कि कई आंगनवाड़ी केंद्र या तो बंद हैं या फिर उनमें कर्मचारी नहीं हैं। तब नए केंद्र शुरू करने का तो सवाल ही नहीं उठता। वैसे तो राज्य सरकार ने अटल बाल आरोग्य मिशन नामक कार्यक्रम लागू कर रखा है, पर इसके तहत कहां, क्या हो रहा है, यह सरकार के अलावा कोई नहीं जानता।

जाहिर है कि सरकार की योजना के घोड़े कागजों पर दौड़ रहे हैं और कुछ अधिकारी अपनी तिजोरियां भरने में लगे हैं। स्वास्थ्य अधिकारियों के यहां आयकर छापों में बरामद अकूत संपत्ति से इसकी पुष्टि होती है कि धांधली बहुत हो रही है। प्रदेशवासियों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है, जिससे वह लगातार कतरा रही है।

फिलहाल, बाल शक्ति केंद्रों में कुपोषित बच्चों का इलाज हो रहा है, तो वह भी सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद, वरना सरकार ने नौनिहालों को भगवान भरोसे ही छोड़ दिया था। इधर, स्थिति यह भी है कि अपने प्राथमिक फर्ज से मुंह फेरकर सरकार आयोजनों पर जनता का धन फूंक रही है।

खैर, कुपोषण एक जटिल समस्या है। इसके लिए घरेलू खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करना जरूरी है व यह तभी संभव है, जब गरीब समर्थक नीतियां बनाई जाएं, जो कुपोषण और भूख को समाप्त करने के प्रति लक्षित हों। मगर, वर्तमान वैश्वीकरण के दौर में जब गरीबों के कल्याण को नजरअंदाज किया जाता है, तब खाद्य असुरक्षा बढ़ने के ही आसार नजर आते हैं।

अपने प्रदेश की कहानी और भी विचित्र है। यहां लाड़ली लक्ष्मी योजना में सरकारी पेंच फंसा है। जननी सुरक्षा योजना को स्वास्थ्य अमला पलीता लगा रहा है। मुख्यमंत्री कन्यादान योजना में नाबालिग और शादीशुदा लोग शरीक हो रहे हैं। प्रदेश की सड़कंे बदहाल हो चुकी हैं। साधन-सुविधाओं के अभाव में पहले से स्थापित उद्योगों में तालाबंदी हो रही है और सूबे के मुखिया चीन से उद्योग लगाने की आस लगा रहे हैं।


कुपोषण के मामले में सबसे बड़ी समस्या यदि जवाबदेही और समन्वय के अभाव की ही है, तो फिर संकट से मुक्ति भी असंभव हो जाती है।
आहार की आपूर्ति का मसला भी एक गंभीर रूप ले चुका है। वर्ष-2002 में सरकार ने यह निर्णय लिया था कि आंगनबाड़ियों को पोषण आहार भेजने का काम दलित-आदिवासी महिलाओं के स्वयं सहायता समूहों को सौंपा जाएगा। इससे 750 समूहों को फायदा होने वाला था, पर वर्ष-2006 में सरकार ने नीति फिर बदल दी।


अब निजी निर्माता डेढ़ सौ करोड़ रुपए का पोषण आहार बनाकर आंगबाड़ियों को भेजते हैं। इस कारण आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, ठेकेदार और अफसर पोषण आहार लील रहे हैं और सजा भुगत रहे हैं, मासूम बच्चे।
प्रदेश का अनुभव माथे पर बल ला देता है, क्योंकि यहां कुपोषण की समस्या से निपटने के लिए होने वाले सीमित प्रयासों में भी स्वास्थ्य विभाग की किंचित मात्र ही भूमिका नजर आती है। आश्चर्य की बात यह है कि प्रदेश सरकार की स्वास्थ्य नीति शिशु मृत्यु दर कम करने की बात तो कहती है, पर कुपोषण को मिटाने का लक्ष्य उसकी नीति का हिस्सा नहीं बना है।





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