मध्यप्रदेश लोक सहभागी साझा मंच

सरकारी स्कूलों को गरियाइए नहीं


राहुल राजेश



स्कूल

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 की संवैधानिक वैधता पर 12 अप्रैल, 2012 को सर्वोच्च न्यायालय ने मुहर लगाकर यह बात तो साफ कर दी कि अब सरकार शिक्षा के अधिकार को जमीन पर उतारने की जिम्मेदारी से नहीं बच सकती. सर्वोच्च न्यायालय ने जो फैसला दिया है, उसके अनुसार निजी संभ्रांत स्कूलों में भी आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े तबकों के छह से चौदह वर्ष तक के बच्चों को भी पच्चीस फीसदी सीटें देनी होंगी. इस निर्णय से मालदार-मलाईदार निजी स्कूलों के पैसा-कमाऊ प्रबंधन-तंत्रों में एक साम्राज्यवादी रोष और विरोध पैदा हो गया है. उन्हें ऐसा लग रहा है कि उनके मुनाफे में इस फैसले ने नाजायज बट्टा लगा दिया है. उन्हें अब यह भी लगने लगा है कि उनके एलिट होने-कहलाने पर भी बट्टा लग जाएगा! लेकिन वे अपने विरोध को थोड़ा पेशेवर अंदाज में जता रहे हैं कि वे चैरिटी के लिए स्कूल नहीं चलाते. कोई उनसे कहे कि जो विद्या-दान करे, वही चैरिटी कर सकता है. आप तो बिजनेस करते हैं. आप भला चैरिटी कैसे कर सकते हैं?


गौर करें तो चैरिटी का शोर मचाकर ये बड़े-बड़े, भारी-भरकम निजी स्कूल जनता को भरमा ही रहे हैं क्योंकि आरक्षित 25 फीसदी सीटों पर पढ़ने वाले बच्चों का 65 प्रतिशत खर्च केंद्रीय सरकार वहन करेगी और 35 प्रतिशत खर्च राज्य सरकार वहन करेगी. फिर निजी स्कूलों को किस लिहाज से चैरिटी करना पड़ रहा है? दरअसल वे अपनी लाभ-हानि के हिसाब से अपनी छवि के बारे में ज्यादा चिंतित हो गए हैं. उन्हें लग रहा है, अब भोज में ब्राह्मणों के साथ पंगत में दलित भी बैठने लगेंगे. कुल मिलाकर, वे अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच, बड़े-छोटे और योग्य-अयोग्य की हिंसक दरार को पाटने के पक्ष में हैं ही नहीं. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के पीछे मंशा यही है कि शिक्षा के क्षेत्र में यह जो समर्थ-असमर्थ का विभाजन है, उसे धीरे-धीरे मिटाया जाये. अन्यथा सर्वोच्च न्यायालय को भी इसका बिल्कुल साफ-साफ अंदाजा जरूर होगा कि देश के सभी निजी स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए 25 प्रतिशत आरक्षण कर देने से पूरे देश के गरीब बच्चों को शिक्षा हासिल नहीं होने वाली. सर्वोच्च न्यायालय के संकेत साफ हैं. 

पहला, निजी स्कूलों को शिक्षा के नाम पर अनाप-शनाप और मनमानी कमाई और कारगुजारी करने से रोका जाये तथा इनपर संवैधानिक लगाम लगाई जाये. दूसरा, सरकार शिक्षा-व्यवस्था के मौजूदा तंत्र को दुरूस्त करे और सरकारी स्कूलों को बच्चों के लिए पढ़ने लायक बनाये.

लेकिन मीडिया और अखबारों में सर्वोच्च न्यायालय के इस इस ऐतिहासिक निर्णय को लेकर जिस तरह और जिन बिंदुओं पर गरमागरम चर्चाएँ चल रही हैं, उनसे मुझे ऐसा लग रहा है कि सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय के पीछे के संकेतों को न तो सरकार ठीक से समझ पा रही है और न ही मीडिया इन संकेतों पर ध्यान केंद्रित कर रही है. सरकार को ऐसा लगता है कि निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित हो जाने से गरीब बच्चों की शिक्षा सुनिश्चित करने के उनके अनिवार्य दायित्व की इतिश्री हो गई. मीडिया को भी लगता है कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के एलिट निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर गरीब बच्चे पढ़ने लगेंगे तो देश की शिक्षा-व्यवस्था की तसवीर बदल जाएगी. अगर मान भी लिया जाए कि देश के सभी निजी स्कूलों में 25 प्रतिशत सीटों पर गरीब बच्चों का पढ़ना अमली तौर पर संभव हो भी जाए तो बाकी बचे बच्चों को कहाँ और कैसे पढाया जाएगा? 

मेरा सवाल यह है कि शेष बच्चों के लिए सरकार कौन-सी पक्की व्यवस्था करेगी? एक सामान्य अनुमान से स्कूल जाने योग्य अठारह करोड़ बच्चों के लिए क्या पर्याप्त स्कूल और पर्याप्त शिक्षक हैं? सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय पर सरकारी वाहवाही का और निजी स्कूलों के हायतौबा का इतना ज्यादा शोर मच रहा है कि बच्चों की शिक्षा से जुड़ी असली समस्याओं और मुद्दों पर कोई ऊंगली ही नहीं रख रहा है!

निजी स्कूलों के बारे में दो बातों पर गौर करने पर समस्याओं की तसवीर बिल्कुल साफ हो जाएगी. पहली बात तो यह कि देश में सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों की सँख्या और पहुँच क्या इतनी पर्याप्त और सुलभ है कि गाँव-गाँव के सभी गरीब बच्चों की आबादी में से एक छोटा-सा हिस्सा भी इन निजी स्कूलों में अपनी सीट पा सकेगा? यह तो कहने की जरूरत नहीं कि नामी-गिरामी, बड़े-बड़े निजी स्कूलों का तामझाम केवल शहरों और महानगरों में ही मौजूद है. छोटे-छोटे शहरों में भी जो निजी स्कूल चल रहे हैं, उनकी संख्या बहुत कम है और उसमें से भी अधिकांश स्कूल ढाँचे के लिहाज से स्कूल कम, दड़बे ज्यादा हैं. 

भारत के असली गाँवों में तो सरकारी स्कूलों का ही चाह-अनचाहा आसरा है. इसलिए सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का असर देश की राजधानी और कुछेक शहरों तक ही सीमित रहने वाला है. अर्थात शहरी गरीब बच्चों को इस निर्णय का फायदा मिल सकता है. लेकिन इस निर्णय का फायदा उठाने के लिए गरीब माँ-बापों और उनके बच्चों को कितने पापड़ बेलने पड़ेंगे, यह तो वक्त ही बताएगा. यह एक स्वतंत्र बहस की माँग करता है. तो कुल मिलाकर, देश के बाकी बच्चे सरकारी स्कूलों में ही जाएँगे. लेकिन सरकारें गाँव-गाँव में चल रहे सरकारी स्कूलों के खस्ता हाल पर एकदम चुप्पी साधी हुई हैं और उनकी जिम्मेदारी चमकीले विज्ञापनों के नियमित प्रसारण और प्रकाशन तक सीमित है!

दूसरी बात यह कि छोटे-छोटे शहरों तक में प्राइवेट पब्लिक इंगलिश मीडियम स्कूलों के जगजाहिर कुकुरमुत्ता प्रसार के पीछे असली कारण क्या है और इसका जिम्मेदार आखिर कौन है? कुकुरमुत्ते की तरह हर गली- मोहल्ले में खुल रहे इन पब्लिक इंगलिश मीडियम स्कूलों के विस्तार के पीछे सरकारी स्कूलों का लचर और नकाम होना ही एकमात्र कारण है. हर माँ-बाप अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की कोशिश करता है. जो लोग सक्षम नहीं भी हैं, वे भी अपना पेट काटकर प्राइवेट स्कूलों की फीस भरने को तैयार हैं. उन्हें लगता है, इन प्राइवेट स्कूलों में पढाई तो होती है. पढ़ाई होने के अनुमान के पीछे उनकी यही भोली धारणा रहती है कि इन प्राइवेट स्कूलों में टीचर समय पर आते हैं, बच्चों को ढेर-सारा होमवर्क देते हैं, उन्हें डिसिप्लीन में रखते हैं. और सबसे बड़ी धारणा तो यह होती है कि इन स्कूलों में पढ़ने से उनके बच्चे फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने लगेंगे. 

उन्हें इसी बात से तसल्ली हो जाती है और उन्हें इन प्राइवेट स्कूलों की पढ़ाई की वास्तविक गुणवत्ता का ख्याल ही नहीं आता. मासूम बच्चों के सर्वांगीण विकास में ये प्राइवेट स्कूल क्या और कितना योगदान कर रहे हैं, इस बात पर माँ-बाप का ध्यान कभी नहीं जाता. उन्हें तो मिस, मैम और सर द्वारा कही गई बातों और वीकली, मंथली, हाफईयरली और एन्युल टेस्टों और एग्जामों में बच्चों को मिले नंबरों से ही बच्चों के प्रोग्रेस नापने का भरम सिखा दिया जाता है. उन्हें तो यह भी सोचने-विचारने का साहस नहीं हो पाता कि इन प्राइवेट स्कूलों के मैडम, सर, प्रिंसीपल, डायरेक्टर आदि क्या वाकई उतने योग्य और कुशल हैं, जितना नन्हें-नन्हें बच्चों के लिए अनिवार्यत: वांछित है? वे इन प्राइवेट स्कूलों के ड्रेस, टाई, भारी-भरकम बस्ते और स्कूल-फीस की रकम से ही स्कूलों की क्वालिटी और स्टैंडर्ड देखने के आदी हो गए हैं.
सरकारी स्कूल
 
वे तो यह भी देखने की जहमत नहीं उठाते कि जिस प्राइवेट इंगलिश मीडियम स्कूल में उनका बच्चा जा रहा है, वहाँ क्लासरूम हवादार और रौशनीदार है या नहीं, बैठने की व्यवस्था धकमपेल वाली यानी क्षमता से अधिक ठूँसने वाली तो नहीं है, खेलने की जगह पर्याप्त है या नहीं, पढ़ाने का तरीका रोचक और बालोपयोगी है या नहीं अथवा बच्चों से उनका बचपन तो नहीं छीना जा रहा है पढ़ाई के नाम पर?

इन बातों पर पेट काटकर फीस भरने वाले हजारों-लाखों माँ-बाप का ध्यान इसलिए नहीं जाता क्योंकि यह तथ्य प्रमाणित हो गया है कि अब सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती और इन सरकारी स्कूलों में केवल गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर करने वाले परिवारों के बच्चे ही जाते हैं. उनमें भी अधिकतर बच्चे मध्यान भोजन (मिड-डे मील) के लिए ही जाते हैं. 
जो जरा-सा भी अर्थ-सक्षम है, वह अपने बच्चों को ब्रेड-बटर-जैम से लैस करके भारी-भरकम स्कूल-बैग के साथ प्राइवेट स्कूलों में भेजने को लालायित है. ऐसे में कुकुरमुत्ते की तरह फैल रहे ये प्राइवेट स्कूल सीना तानकर शिक्षा का परचम लहराने का स्वांग किए जा रहे हैं. और इसके उलट, सरकारी स्कूलों को उनकी बदहाली के लिए कोई टोकने-टाकने वाला तक नहीं. भला कौन टोका-टाकी करे? जो समर्थ है, वह उसका तलबगार नहीं और जो उसके आसरे है, वह खेती-मजूरी करे कि यही सब देखे कि स्कूल में मास्टर-मास्टरनी आये या नहीं? उसे तो बस इतनी तसल्ली है कि सरकारी स्कूल में उसके बच्चे को एक वक्त का भोजन मिल जाता है. उसे पढ़ाई की गुणवत्ता देखने-परखने का वक्त कहाँ?


ऐसी हालत में सरकारी स्कूलों को दुरूस्त और भरोसेमंद बनाने का एक ही कारगर उपाय नजर आता है कि इन प्राइवेट स्कूलों के कुकुरमुत्तेनुमा प्रसार को सख्ती से रोका जाये. प्रशासन और सरकार यह सुनिश्चित करे कि जिनके पास पर्याप्त जगह, पर्याप्त सुविधाएँ और पर्याप्त एवं सक्षम स्टाफ नहीं हैं, उन्हें मनमर्जी से स्कूल खोलने की अनुमति बिल्कुल नहीं दी जाये. साथ ही, जो स्कूल पर्याप्त जगह और पर्याप्त एवं सक्षम स्टाफ के बिना ही चल रहे हैं, उन्हें नोटिस देकर सख्ती बरतते हुए तत्काल बंद किया जाए. यहाँ यह तर्क देना एकदम असंगत होगा कि सरकारी स्कूलों में तो पर्याप्त संख्या में शिक्षक ही नहीं हैं. इन प्राइवेट स्कूलों में भी पर्याप्त संख्या में शिक्षक नहीं होते और एक ही शिक्षक आठ-आठ कक्षाएँ लेने को विवश होते हैं. 

अगर प्राइवेट स्कूलों पर सरकार और प्रशासन द्वारा नकेल कसा जाएगा तो लोगों का ध्यान खुद-ब-खुद सरकारी स्कूलों पर जाएगा. लोग सरकारी स्कूलों पर बेहतर व्यवस्था, नियमित पढाई और उम्दा परिणाम देने के लिए दबाव बनाएँगे. यहाँ बिल्कुल माँग और आपूर्ति का सिद्धांत काम करेगा. सरकारी स्कूलों पर हर तबके के माँ-बाप जोर डालेंगे तो वे जरूर सुधरेंगे. सरकारी स्कूलों के शिक्षक चौकन्ने और तत्पर रहेंगे और जितनी सुविधाएँ हैं, उतने में ही सर्वोत्तम देने को बाध्य होंगे. इसी तरह, प्राइवेट स्कूलों पर नकेल कसा जाएगा तो वे भी मनमर्जी से जरूरत से ज्यादा संख्या में बच्चों को दाखिला देने में हिचकेंगे.

इसी के समानांतर, सरकारी स्कूल बेहतर होंगे तो उनकी माँग बढ़ेगी और प्राइवेट स्कूलों पर विवशतापूर्ण निर्भरता घटेगी. इसके साथ-साथ, सरकार और जिला प्रशासन को हर जिले के शिक्षा-विभाग में मनचाहे ट्रांसफर-पोस्टिंग से जुड़े भ्रष्टाचार को भी सख्ती से मिटाना होगा. नेता और दलाल बने शिक्षकों को सख्ती से दंडित करना होगा. टीचर-युनियनों को यह बात साफ-साफ कहनी होगी कि सरकारी शिक्षकों को मोटी-मोटी तनख्वाहें स्कूलों में पढ़ाने के लिए दी जाती हैं, नारेबाजी और निठल्लेपन के लिए नहीं. सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को अक्सर शिकायत रहती है कि उन्हें पशु-गणना से लेकर जनगणना और पल्स-पोलियो अभियान तक में जोत दिया जाता है. तो जनाब, आप स्कूलों में पढ़ायेंगे नहीं तो आपकी ऐसी दुर्दशा तो होनी ही है! और अब तो मल्टी-टास्किंग का जमाना है. 

मोटी पगार मुफ्त में अब और नहीं मिलने वाली. सरकारी स्कूलों के शिक्षकों को शायद अनुमान भी नहीं होगा कि उनकी तुलना में आधे से भी कम वेतन और सुविधा पर प्राइवेट स्कूलों के शिक्षकों को स्कूल-प्रबंधन के इशारों पर कितने-कितने और कैसे-कैसे काम करने पड़ते हैं! हुक्म न मानी तो नौकरी से निकाल दिये जाने का डर बेताल की तरह कंधे पर बैठा रहता है, सो अलग!

कुल मिलाकर, देश में शिक्षा की सरकारी व्यवस्था को ही दुरूस्त करना होगा, तभी देश की इतनी विशाल आबादी को शिक्षा मिल पाएगी. देश की बहुत बड़ी आबादी गाँवों में रहती है. वहाँ ग्राम-पंचायतों को इस दिशा में क्रांतिकारी स्तर पर सक्रिय करना होगा. कुछ हद तक ग्राम-पंचायतों में सरकारी स्कूलों को दुरूस्त करने की दिशा में सक्रियता आयी भी है. 

अगर देश में सभी बच्चों को शिक्षित करना है तो शिक्षा की आऊटसोर्सिंग बंद करनी होगी. प्राइवेट स्कूलों को रत्ती-भर उपकार का जिम्मा देने से देश का उद्धार नहीं होने वाला. स्कूलों की तुलना मल्टीप्लेक्सों और मेगामॉलों से करना बेवकूफी होगी. जैसे छोटे-छोटे किराना दुकानों के बगैर देश के अधिकांश परिवारों का गुजारा नहीं होने वाला, वैसे ही सरकारी स्कूलों के बिना देश की आबादी शिक्षित नहीं होने वाली. इंजीनियरों, डॉक्टरों, अफसरों, पूँजीपतियों आदि के बच्चों के लिए एयर-कंडीशन्ड, फाइव-स्टार प्राइवेट स्कूलों को रहने दीजिए. करोड़ों-करोड़ किसानों, मजूरों, दलितों के लिए तो सरकारी स्कूल ही सबसे समर्थ, सबसे सक्षम, सबसे सही विकल्प है. इसलिए हम सरकारी स्कूलों को गरियायें नहीं, उनका सम्मान करें और उन्हें दुरूस्त करें.

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