बच्चों को लेकर हम बड़ों के बीच यह नजरिया हावी है कि वे खुद से सोचने, समझने, निर्णय लेने और किसी बात पर अपने विचार व्यक्त करने में सक्षम नहीं होते. आज भी हम उनके वर्तमान को दरकिनार करते हुये उन्हें भविष्य का नागरिक मानते हैं और यह भूल जाते हैं कि वे वर्तमान के बाशिंदे भी हैं जिसे उसी रूप में स्वीकार करने की जरूरत है . आज हमारा लोकतंत्र काफी हद तक चुनावी खेल तक ही सिमट गया लगता है और वोटर ना होने की वजह से बच्चे इस खेल से लगभग बाहर कर दिये गये हैं. साझी बात के इस अंक में लोकतंत्र में भुला दिये गये बच्चों के इसी स्थान को तलाशने का एक प्रयास किया गया है.
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