मध्यप्रदेश लोक सहभागी साझा मंच

“मामा राज” में कुपोषण का काल


जावेद अनीस



विदिशा के जिला अस्पताल में भर्ती एक साल के नन्हें सुरेश के शरीर से जब ब्लड सैंपल लेने की जरूरत पड़ी तो उसकी रगों से दो बूँद खून निकालने के लिए भी डाक्टरों को बहुत मुश्किल पेश आयी. दरअसल गंभीर रूप से कुपोषित होने की वजह से उसका वजन मात्र 3 किलो 900 ग्राम ही था जबकि एक साल के किसी सामान्य बच्चे का औसत वजन 10 किलो होना चाहिए. अंततः इस बच्चे को बचाया नहीं जा सका और सूबे के लाखों बच्चों की तरह उसकी भी कुपोषण से मौत हो गयी.उपरोक्त घटना मध्यप्रदेश में कुपोषण की त्रासदी का मात्र एक उदहारण है. सुरेश की तरह प्रदेश के सैकड़ों बच्चे हर रोज कुपोषण व बीमारी से जिन्दगी और मौत के बीच जूझने को मजबूर हैं.
ज्यादा दिन नहीं हुए जब म.प्र. में शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने 'आनंद मंत्रालय' खोलने की घोषणा की थी, मंत्रालय खुल भी गया. लेकिन अब इसी मध्यप्रदेश सरकार को “कुपोषण की स्थिति” को लेकर श्वेत पत्र लाने को मजबूर होना पड़ा है. करीब एक दशक बाद जब प्रदेश में कुपोषण की भयावह स्थिति एक बार फिर सुर्खियाँ बनने लगीं तो “विकास” के तथाकथित मध्यप्रदेश माडल के दावे खोखले साबित होने लगे. जमीनी हालात बता रहे हैं कि तमाम आंकड़ेबाजी और दावों के बावजूद मध्यप्रदेश “बीमारु प्रदेश” के तमगे से बहुत आगे नहीं बढ़ सका है.

श्योपुर ने फिर जगाया

मध्यप्रदेश में कुपोषण की घटनायें नयी नही हैं. करीब एक दशक पहले भी यह मामला बहुत जोर–शोर से उठा था और मध्य प्रदेश को भारत के सबसे कुपोषित राज्य का कलंक मिला था.  उस समय भी कुपोषण के सर्वयापीकरण का आलम यह था कि 2005 से 2009 के बीच राज्य में 1लाख 30 हजार 2सौ 33 बच्चे मौत के काल में समा गये थे. फरवरी 2010 में मध्यप्रदेश के तात्कालिक लोक स्वास्थ मंत्री ने विधानसभा में स्वीकार किया था कि राज्य में 60 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रस्त है. 2006 में भी श्योपूर जिला कुपोषण के कारण ही चर्चा में आया था. ऐसा लगता है कि इतने सालों में सरकार ने कोई सबक नही सीखा है.2016 में फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है. इस बार भी श्योपूर ही चर्चा के केंद्र में हैं. इसी के बाद सब का ध्यान एक बार फिर राज्य में कुपोषण की गंभीर स्थिति पर गया है.  

श्योपूर जिले के सहरिया बहुल गावों में भयावह स्तर पर कुपोषण की खबरें सामने आने के बाद शासन द्वारा वहां भेजी गई टीमों को 66 गावों में 240 कुपोषित बच्चे मिले जिसमें 83 बच्चे तो अतिकुपोषित थे. टीम ने बताया ‘वहां हालत इतने गंभीर हैं कि इसके लिए संसाधन और तैयारियां कम पड़ रही हैं. इतनी ज्यादा संख्या में कुपोषित बच्चे मिल रहे हैं कि उनके इलाज के लिए जिले के पोषण पुर्नवास केन्द्र में जगह की कमी पड़ रही है’. ऐसा नहीं है कि मध्यप्रदेश सरकार को श्योपूर में कुपोषण की गंभीरता का अंदाजा ना रहा हो.इस साल फरवरी में श्योपूर के विधायक रामनिवास रावत द्वारा विधानसभा में कुपोषण को लेकर सवाल पूछा गया था जिसके जवाब में मध्यप्रदेश सरकार ने बताया कि श्योपूर जिले में अप्रैल 2014 से जनवरी 2016 के बीच कुल 1280 बच्चे (0 से 6 साल के 1160 और 6 से 12 साल के 120 बच्चे) कुपोषण के कारण मौत का शिकार हुए हैं.इन सबके बावजूद इस पूरी स्थिति को लेकर मध्यप्रदेश शासन के महिला और बाल विकास विभाग के प्रमुख का बयान आता है कि ‘बच्चों की मौत कुपोषण से नही बीमारी से होती है’.

पिछले दिनों मध्यप्रदेश सरकार के आला अधिकारियों द्वारा श्योपुर जिले का दौरा करके वहां की जो तस्वीर पेश की गयी है वह मध्यप्रदेश सरकार के लिए आईना है. अधिकारियों ने माना है इस जिले में सहरिया जनजाति बहुल गावों में अभी तक बिजली और सड़क जैसी बुनियादी सुविधायें नहीं पहुंच पाई हैं, एक कमरे के मकान में पूरे परिवार के लोग मुर्गा-मुर्गी, बकरा-बकरी के साथ रहते हैं. इन कमरों में न कोई खिड़की है न वेंटिलेशन, कई गावों में तो एक भी शौचालय नहीं है, गरीबी और बेरोजगारी इतनी ज्यादा है कि लोगों के पास खाने तक का कोई इंतजाम नहीं है. ज्यादातर महिलाएं एनीमिया और बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. साफ पीने लायक पानी की व्यवस्था नहीं होने के कारण हर घर में आए दिन लोग उल्टी-दस्त का शिकार होते हैं.

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की म.प्र. सरकार को नोटिस

श्योपुर जिले में कुपोषण से बच्चों की मौत के मामले में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मध्यप्रदेश सरकार को नोटिस भेजकर इसका चार सप्ताह के भीतर जवाब मांगा है. अपने नोटिस में आयोग ने कहा है कि ‘बच्चों के स्वास्थ्य की देखभाल नहीं होना और उनका कुपोषित होना मानवाधिकार का उल्लंघन है,धात्री महिला महिलाओं और बच्चों को पौष्टिक तथा संतुलित आहार उपलब्ध कराना राज्य सरकार का कर्तव्य है’.आयोग ने चिंता जतायी है कि पुनर्वास केंद्रों में भारी भीड़ होने की वजह कुपोषित बच्चों को बिस्तर तक उपलब्ध नहीं हो रहे हैं और उन्हें मजबूरन जमीन पर सोना पड़ रहा है.

सियासी मुद्दा बना कुपोषण

कुपोषण के मुद्दे को एक बार फिर तूल पकड़ते हुए देखकर मध्यप्रदेश के विपक्षी दल भी सक्रिय हो गये हैं. विपक्षीय कांग्रेस कुपोषण के मुद्दे पर सरकार को घेरने की पूरी कोशिश कर रही है. कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि शिवराज सरकार में भ्रष्टाचार की जड़ें बहुत गहरी हैं इसी वजह से वह 22 अरब रूपए खर्च करने के बाद भी प्रदेश के बच्चों को कुपोषण से मुक्त नहीं कर पायी है. कुपोषण के मुद्दे को लेकर म.प्र. कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव द्वारा 19 सितम्बर को भोपाल में मौन धरना दिया गया. इन दिनों प्रदेश में सक्रिय ज्योतिरादित्य सिंधिया भी इस मुद्दे को उठा रहे हैं. उन्होनें श्योपूर का दौरा भी किया जिसके बाद उन्होंने बयान दिया कि‘‘21 सदी में हमारे प्रदेश में इस तरह की घटनाऐं हम सभी के माथे पर कलंक है, मध्यप्रदेश सरकार दावा करती है कि कुपोषण मिटाने के लिए हर माह करोड़ो रुपये खर्च किये जा रहे हैं, अगर यह बात सच है तो ये पैसे कहाँ जा रहे हैं ? इसकी जाँच बहुत गहरायी से की जाने की जरुरत है.’’ ज्योतिरादित्य सिंधिया ने केन्द्रीय महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी से मिल कर उन्हें मध्यप्रदेश में कुपोषण की गंभीरता और उसके कारण लगातार बच्चों की हो रही मौतों से अवगत भी कराया था जिसके बाद मेनका गांधी ने श्योपुर केन्द्रीय जांच दल भेज कर इस पर रिर्पोट मांगी थी.


(बॉक्स-1) प्रशासन की लापरवाही से एक्सपायर होने की कगार पर आयरन की दावायें
इस साल श्योपुर जिले के कुल 2 लाख 11 हजार बच्चों में से 1 लाख 60 हजार में खून कमी पायी गयी थी। इसलिए इस जिले को ‘नेशनल आयरन प्लस इनिशिएटिव कार्यक्रम में शामिल किया गया था. इस कार्यक्रम के तहत खून की कमी वाले  बच्चों को 7 दिनों में आयरन और फोलिक एसिड का डोज दिया जाना था. फरवरी माह में इसके लिए 40 लाख डोज खरीदे भी लिए गये थे लेकिन अभी तक महज 1 लाख डोज ही बंट पाए हैं. करीब 39 लाख टेबलेट व सीरप डोज का उपयोग नहीं हो पाया है अगर नवंबर 2016 तक इनका उपयोग नहीं किया गया तो ये एक्सपायर हो जाएंगे.

मौजूदा हालत

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-4 (एनएफएचएस -2015-16) के अनुसार मध्यप्रदेश कुपोषण के मामले में बिहार के बाद दूसरे स्थान पर है. यहाँ अभी भी 40 प्रतिशत बच्चे कुपोषित हैं, कुपोषण के सबसे ज्यादा शिकार आदिवासी समुदाय के लोग है. सबसे ज्यादा प्रभावित जिलों में श्योपूर (55प्रतिशत),बड़वानी (55 प्रतिशत), (52.7प्रतिशत), मुरैना (52.2प्रतिशत) और गुना में (51.2प्रतिशत) शामिल हैं. कुपोषण के कारण इन बच्चों का ठीक से विकास नही हो पाता है और उनकी ऊॅचाई व वजन सामान्य से कम रह जाती है. रिर्पोट के अनुसार सूबे में 5 साल से कम उम्र के हर 100 बच्चों में से लगभग 40 बच्चों का विकास ठीक से नही हो पाता है. इसी तरह से 5 साल से कम उम्र के लगभग 60 प्रतिशत बच्चे खून की कमी के शिकार हैं और केवल 55 प्रतिशत बच्चों का ही सम्पूर्ण टीकाकरण हो पाता है.

हाल में जारी एनुअल हेल्थ सर्वे 2014 के अनुसार शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्यप्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है जहाँ 1000 नवजातों में से 52 अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते हैं. जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह दर आधा यानी 26 ही है.प्रदेश के ग्रामिण क्षेत्रों में स्थिति ओर चिंताजनक है जहाँ शिशु मृत्यु दर 57 है. मध्यप्रदेश में 5 साल से कम उम्र के 58 प्रतिशत लड़कों और 43 प्रतिशत लड़कियों की लम्बाई औसत से कम है, इसी तरह से 49.2 फीसदी लड़कों और 30 प्रतिशत लड़कियों का वजन भी औसत से कम है. प्रदेश में केवल 16.2 प्रतिशत महिलाओं को प्रसव पूर्ण देखरेख मिल पाती है. उपरोक्त स्थितियों का मुख्य कारण बड़ी संख्या में डाक्टरों की कमी और स्वास्थ्य सेवाओं का जर्जर होना है. जैसे म.प्र. में कुल 334 बाल रोग विशेषज्ञ होने चाहिए जबकि वर्तमान में केवल 85 ही हैं और 249 पद रिक्त हैं.

आदिवासी समुदाय सबसे ज्यादा प्रभावित

मध्यप्रदेश के आदिवासी क्षेत्रों में बच्चों को कुपोषण और विकास संबंधी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. गरीबी इसका मूल कारण है, उनके आहार में दुग्ध उत्पादों, फलों और सब्जियों की मात्रा ना के बराबर होती है और केवल 20 फीसदी आदिवासी परिवारों में स्वच्छ पेयजल की सुविधा है. भारत सरकार द्वारा जारी ‘‘रिर्पोट आफ द हाई लेबल कमेटी आन सोशियो इकोनामिक, हैल्थ एंड एजुकेशनल स्टेटस आफ ट्राइबल कम्यूनिटी’’ 2014 के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर आदिवसी समुदाय में शिशु मृत्यु दर 88 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 113 है, इसी तरह से राष्ट्रीय स्तर पर 5 साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 129 है वही प्रदेश में यह दर 175 है, आदिवासी समुदाय में टीकाकरण की स्थिति चिंताजनक है. रिर्पोट के अनुसार देश में 12 से 23 माह के बच्चों के टीकाकरण की दर 45.5 है जबकि मध्यप्रदेश में यह दर 24.6 है. 2015 की कैग रिपोर्ट ने जिन आदिवासी बाहुल्य राज्यों की कार्यप्रणाली पर प्रश्न चिन्ह लगाये थे उसमें मध्यप्रदेश भी शामिल है. इस रिपोर्ट में मप्र के जनजातीय क्षेत्रों में कुपोषण पर प्रदेश सरकार के प्रयास नाकाफी बताए गए हैं.कैग रिपोर्ट के मुताबिक तेरह जिलों में आंगनवाड़ियों में पोषण आहार के बजट में गड़बडियां पायी गयी थी. रिर्पोट के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों की आंगनवाड़ियां सुचारु रुप से संचालित नही हैं और वहां पोषण आहार का वितरण ठीक से नही हो रहा है.

आंकड़ों की बाजीगरी

म.प्र. में कुपोषण के आकंड़ों को लेकर बहुत भ्रम की स्थिति है. प्रदेश में 5 साल से कम उम्र के लगभग 1 करोड़ 10 लाख बच्चे हैं. एक तरफ केन्द्र सरकार द्वारा जारी “नेशनल फैमली हेल्थ सर्वे-4” के रिर्पोट के अनुसार म.प्र. में 5 साल से कम आयु के 42.8 फीसदी (लगभग 47 लाख 8 हजार) बच्चे कम वजन के हैं जिनमें 9.2 फीसदी (लगभग 10 लाख) बच्चे अतिकुपोषित हैं। वही दूसरी तरफ म.प्र. के महिला और बाल विकास विभाग के अनुसार 2016 में जिन 71.90 लाख बच्चों का वजन लिया गया उसमें 18.6 फीसदी (लगभग 13 लाख) बच्चे कुपोषित पाये गये यानी इसमें भी 2 प्रतिशत बच्चे ही अतिकुपोषित बताये गये हैं. अगर इन दोनो आकंड़ों की तुलना की जाये तो प्रदेश के लगभग 34 लाख कुपोषित और 8.56 लाख अतिकुपोषित बच्चे म.प्र. सरकार के आकंड़ों में ही नही आते हैं हैं। 


पानी की तरह बहा है पैसा

मध्यप्रदेश में पिछले 12 सालों में 7800 करोड़ का पोषण आहार बंटा है. फिर भी शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में मध्य प्रदेश पहले नंबर पर और कुपोषण में दूसरे स्थान पर है है. इसी तरह से पिछले 3 सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने स्वास्थ्य विभाग को 13 हजार 715 करोड़ एवं महिला और बाल विकास को 13 हजार 645 करोड़ का बजट दिया है. सवाल ये है कि इतना भारी भरकम रकम खर्च होने के बाद जमीनी स्तर पर कोई प्रभाव देखने में नही आ रहा है.

दस साल में क्या बदला ?
सूचकांक
2005-06
एनएफएचएस-3
2015-16
एनएफएचएस-4
कम वजन के बच्चे
60


42.8
गभीर कुपोषित बच्चे
12.6
9.2
ठिगने बच्चे
50
42
बच्चों में खून की कमी
74.1


68.9
महिलाओं में खून की कमी
56


52.5

मध्यप्रदेश की महिला और बाल विकास मंत्री ने दिसंबर 2014 में अपने विभाग का रिर्पोट कार्ड पेश  करते हुए कहा था कि ‘राज्य से कुपोषण खत्म करने के लिए कई स्तर पर प्रयास किये गये हैं’. उन्होंने बताया था कि सरकार द्वारा बच्चों को आंगनवाड़ी से जोड़ने के लिए आंगनवाड़ी चलो अभियान, जहाँ आंगनवाड़ी केन्द्र नहीं हैं या जो बच्चे अस्थायी बसाहट में रहते हैं उनके लिए चलित आंगनवाड़ी जुगनूकी शुरुवात की गई, स्नेह शिविर और गृह भेंट, कुपोषण के विरुद्ध सुपोषण अभियान, कुपोषित बच्चों के निगरानी व उनके पुर्नवास के लिए डे केयर सेंटर कम क्रेश की स्थापना की गई. समाज को इस अभियान से जोड़ने के लिए सरोकार योजना की शुरुआत भी की गई जिसमें समाज के सक्षम लोग कुपोषित बच्चों को सुपोषित करने की जिम्मेदारी उठाते हैं.

तमाम योजनाओं,कार्यक्रमों और पानी की तरह पैसा खर्च करने के बावजूद दस साल पहले और आज की स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. मध्यप्रदेश शिशु  मृत्यु दर के मामले में लगातार 11 साल से  पूरे देश पहले नंबर पर बना हुआ है. म.प्र. में बच्चों के कुपोषण में कमी की वार्षिक दर 1.8 प्रतिशत ही है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आकड़ों पर नजर डालें तो एनएफएचएस-3 के दौरान जहाँ मध्यप्रदेश में पांच साल तक के 60 प्रतिशत बच्चे कम वजन के पाए गये थे वहीं एनएफएचएस-4 के दौरान यह दर घट कर 42.8 प्रतिशत जरूर हुई है लेकिन मध्यप्रदेश अभी भी इस मामले में दूसरे नम्बर पर बना हुआ है. ध्यान रहे 1992-93 में जारी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य के पहले सर्वेक्षण में कुपोषण के मामले में मध्यप्रदेश सातवें स्थान पर था.

दूसरी तरफ अभी तक आईसीडीएस सेवाओं की पहुँच प्रदेश के सभी बच्चों तक नहीं हो सकी हैं, वर्तमान में मध्यप्रदेश में करीब 80,160 आंगनवाड़ी और 12070 मिनी आंगनवाड़ियां हैं, नियमों के अनुसार 1000 की आबादी पर 1आंगनवाड़ी केन्द्र और 500 की जनसंख्या पर 1मिनी आंगनवाडी केन्द्र होनी चाहिए. इस हिसाब से मध्यप्रदेश में करीब एक चौथाई बच्चे अभी भी आंगनवाड़ी सेवाओं की पहुँच से बाहर हैं, इस कमी को पूरा करने के लिए करीब डेढ़ लाख नए आंगनवाडी केन्द्रों की जरुरत है.

इतना सब होने के बावजूद मध्यप्रदेश के निवर्तमान बजट (2015-16) में कमी करते हुए एकीकृत बाल विकास सेवा योजना में 211 करोड़ रुपये और बच्चों के पोषण आहार में 163 करोड़ रुपये की कटौती कर  गयी है.

भ्रष्टाचार का काला साया

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अरुण यादव ने आरोप लगाया है कि ‘‘हर साल 22 अरब रुपये खर्च करने के बावजूद अगर मध्यप्रदेश में कुपोषण खत्म नही हो पाया है तो इसका कारण भ्रष्टाचार है.” दरअसल प्रदेश में कुपोषण समाप्त करने के लिए कई योजनायें चलायी, पिछले 12 साल में 7719 करोड़ का पोषण आहार बांटा गया लेकिन फिर भी शिशु मृत्युदर में मध्यप्रदेश टॉप है ऐसे में सवाल उठाना लाजिमी है. सबसे ज्यादा सवाल पोषण आहार सिस्टम पर खड़े हो रहे हैं. आंगनवाड़ियों के जरिए कुपोषित बच्चों और गर्भवती महिलाओं को दी जाने वाली पोषणाहार व्यवस्था को लेकर लम्बे समय से सवाल उठते रहे हैं.  12 सौ करोड़ रुपए बजट वाले इस व्यवस्था पर तीन कंपनियों-एमपी एग्रो न्यूट्री फूड प्रा.लि., एम.पी. एग्रोटॉनिक्स लिमिटेड और एमपी एग्रो फूड इंडस्ट्रीज का कब्ज़ा रहा है. जबकि 2004 में ही सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि आंगनवाड़ियों में पोषण आहार स्थानीय स्वंय सहायता समूहों द्वारा ही वितरित किया जाये.सुप्रीमकोर्ट द्वारा इस व्यवस्था को लागू करने की जिम्मेदारी मुख्य सचिव और गुणवत्ता पर निगरानी की जिम्मेदारी ग्राम सभाओं को दी गई थी. लेकिन कंपनियों को लाभ पहुचाने के फेर में इस व्यवस्था को लागू नही किया गया.

पिछले दिनों आयकर विभाग ने प्रदेश में पोषण आहार वितरित करने वाली कम्पनियों के ठिकानों और मध्यप्रदेश सरकार के कुछ आला अफसरों के यहाँ छापे मार कर गड़बडियां पकड़ी थी. आयकर विभाग ने काले धन को सफेद बनाने के लिए कई फर्जी कम्पनी बनाये जाने का अंदेशा जताया है. इतना सब होने के बावजूद प्रदेश सरकार द्वारा आयकर विभाग से कोई जानकारी नही मांगी गई है जबकि छापे में मिले दस्तावेज अफसरों और कम्पनियों पर कार्यवाही का आधार बन सकते हैं.
  
“कैग” ने भी मध्यप्रदेश में पोषण आहार में हो रही गड़बड़ियों को लेकर कई बार आपत्ति दर्ज की है. पिछले 12 सालों में कैग द्वारा कम से कम 3 बार पोषण आहार आपूर्ति में व्यापक भ्रष्टाचार होने की बात सामने रखी है लेकिन सरकार द्वारा उसे हर बार नकार दिया गया है . कैग ने अपनी रिपोर्टों में 32 फीसदी बच्चों तक पोषण आहार ना पहुचने, आगंनबाड़ी केन्द्रों में बड़ी संख्या में दर्ज बच्चों के फर्जी होने और पोषण आहार की गुणवत्ता खराब होने जैसे गंभीर कमियों को उजागर किया गया है .

इस व्यवस्था में भ्रष्टाचार बेनकाब होने के बाद पिछले 6 सितंबर को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान द्वारा पोषण आहार का काम कम्पनियों के बजाय स्वंय सहायता समूहों को दिये जाने की घोषणा की गई जिसके बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री अर्चना चिटनिस ने 15 दिन में नई व्यवस्था तैयार करने के निर्देश दिए थे लेकिन प्रदेश की अफसरशाही नयी व्यवस्था जानने और समझने के नाम पर उच्च स्तरीय कमेटी बना कर इस मामले को एक महीने एक उलझाये रखा गया. 8 अक्टूबर को हुई कमेटी की तीसरी बैठक में 12 साल से चली आ रही पोषण आहार के ठेकेदारी वाली सेंट्रलाइज्ड व्यवस्था को बंद करने का फैसला कर लिया गया है. वर्तमान व्यवस्था 31 दिसंबर तक लागू चलती रहेगी. इसके बाद 1 जनवरी 2017 से 3 महीने के लिए अंतरिम व्यवस्था लागू की जायेगी. अगर सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो 1 अप्रैल 2017 से पोषण आहार की नई विकेंद्रीकृत व्यवस्था लागू हो जायेगी.

इन सबके बीच यह सवाल उठाना लाजिमी है कि मध्यप्रदेश सरकार ने पोषण आहार व्यवस्था में गलती मान कर इसे बदलने का ऐलान तो कर दिया है लेकिन इसके लिए दोषी अफसरों और कम्पनियों पर कोई कार्यवाही नहीं की गई और ना ही भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की गई. जानकार इसे एक तरह से पूरानी गड़बड़ियों पर परदा डालने की कवायद मान रहे हैं. मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच कहती हैं कि ‘‘सरकार को पोषण आहार में भ्रष्टाचार के जांच के लिए अलग से ऐसी कमेटी बनानी चाहिए जिसमें महिला और बाल विकास व स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी ना हों, तभी बच्चों का निवाला खाने वालों का नाम सामने आ सकेगा और पता चल सकेगा कि कहाँ गड़बड़ी हुई और किसने की.’’ 

कुपोषण के मूल कारणों के समाधान में किसी की रुचि नहीं है

कुपोषण अपने आप में कोई बीमारी नहीं हैं. यह एक लक्षण है. दरअसल बीमारी तो उस व्यवस्था में है जिसके तहत रहने वाले नागरिकों को कुपोषण का शिकार होना पड़ता है. कुपोषण की जड़ें गरीबी, बीमारी, भूखमरी और जीवन के बुनियादी जरूरतों की अभाव में है. अभाव और भूखमरी की मार सबसे ज्यादा बच्चों और गर्भवती महिलाओं पर पड़ता है. आवश्यक भोजन नही मिलने की वजह से बड़ों का शरीर तो फिर भी कम प्रभावित होता है लेकिन बच्चों पर इसका असर तुरंत पड़ता है, जिसका असर लम्बे समय तक रहता है, गर्भवती महिलाओं को जरुरी पोषण नही मिल पाने के कारण उनके बच्चे तय मानक से कम वजन के होते ही है, जन्म के बाद अभाव और गरीबी उन्हें भरपेट भोजन भी नसीब नही होने देती है,नतीजा कुपोषण होता है,जिसकी मार या तो दुखद रुप से जान ही ले लेती है या इसका असर ताजिंदगी दिखता है.

इतनी बुनियादी और व्यवस्थागत समस्या के लिए हमारी सरकारें बहुत ही सीमित उपाय कर रही हैं और उसमें भी भ्रष्टाचार,धांधली और अव्यवस्था हावी है? समेकित बाल विकास सेवा (आईसीडीएस) एक कार्यक्रम है जिसके सहारे कुपोषण जैसी गहरी समस्या से लड़ने का दावा किया जा रहा है. यह 6 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के शुरूआती देखभाल और विकास को लेकर देश का एक प्रमुख कार्यक्रम है जिसके द्वारा बच्चों को पूरक पोषाहार, स्वास्थ्य सुविधा और स्कूल पूर्व शिक्षा जैसी सुविधायें एकीकृत रूप से पहुंचायी जाती हैं. इस योजना के तहत आंगनवाड़ी केन्द्रों द्वारा दिए जाने वाले पोषण आहार पर प्रतिदिन एक बच्चे के लिए 6 रु खर्च किया जाता है जिसमें 2 रु.नाश्ता और 4 रु भोजन का खर्च शामिल है.

जाहिर है कुपोषण दूर करने की हमारी पूरी बहस आंगनवाड़ी सेवाओं तक ही सीमित है जबकि इसके मूल में  गरीबी आजीविका के साधन,वर्ग और जाति के आधार पर विभाजन आदि प्रमुख कारण हैं. यही वजह है कि हमारी सरकारें पिछले दस सालों में कुपोषण दूर करने का कोई टिकाऊ माडल खड़ा नहीं कर पायी है. शायद कुपोषण के मूल कारणों के समाधान में किसी की  रुचि नहीं है.

कुपोषण के मामले पर एक बार फिर घिरने के बाद अब मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण पर श्वेतपत्र लाने जा रही है.विपक्ष का कहना है कि ‘यह काले कारनामों पर पर्दा डालने का प्रयास हैं’. उम्मीद है मध्यप्रदेश सरकार कुपोषण को लेकर इतनी भीषण त्रासदी के लिए जिम्मेदारी एवं हुई चूकों को स्वीकार करेगी और आईसीडीएस सेवाओं की पहुँच सभी बच्चों को सुनिश्चित करते हुए अपने श्वेतपत्र में कुपोषण के मुख्य कारणों को ध्यान रखते हुए आजीविका, खाद्य सुरक्षा, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा जैसे उपायों पर भी ध्यान देगी.



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