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बाल श्रम, सरकार और समाज


सुशील कुमार सिंह

Courtesy- paintings-janakiinjety.blogspot.in/


केंद्रीय श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के अनुसार बाल श्रम (प्रतिबंध और नियमन) संशोधन विधेयक-2012 को केंद्रीय मंत्रिमंडल की मंजूरी मिल गई है। संभव है कि आने वाले शीत सत्र में इसे संसद के समक्ष पेश किया जाएगा। यह बदलाव 1986 के कानून को न केवल परिमार्जित करने से संबंधित है, बल्कि चौदह से अठारह वर्ष की उम्र के किशोरों के काम को लेकर नई परिभाषा भी गढ़ी जा रही है। इसके पूर्व वर्ष 2006 में भी कुछ संशोधन किए गए थे। प्रस्तावित संशोधन में पुरजोर कोशिश की गई है कि सभी कार्यों और प्रक्रियाओं में चौदह साल से कम उम्र के बच्चों को काम पर रखना प्रतिबंधित होगा। देखा जाए तो इसे अनिवार्य शिक्षा अधिकार अधिनियम, 2009 की आयु से जोड़ने का भी काम किया गया है।

हालांकि इस सब के बावजूद कुछ मामले मसलन परंपरागत व्यवसाय, गुरु-शिष्य संबंधों के तहत काम करने वाले बच्चे कानून में शामिल नहीं होंगे, मगर इनका भी स्कूल जाना अनिवार्य होगा। सरकार ने चौदह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को लेकर प्रतिबंध वाले कानून पर सैद्धांतिक सहमति तो दे दी है, पर अभी इसका मूर्त रूप लेना बाकी है। सामाजिक-आर्थिक बदलाव के इस दौर में काफी कुछ बदल रहा है, बावजूद इसके कई मामले स्तरीय सुधार से वंचित हैं जिनमें बाल श्रम भी शामिल है। वैश्विक स्तर पर बाल श्रम की जो अवस्था है वह कहीं अधिक चिंताजनक है। भारत में कैलाश सत्यार्थी के प्रयास सराहनीय हैं जिसके लिए उन्हें पिछले वर्ष नोबेल सम्मान से विभूषित भी किया गया। सरकार के स्तर से देखा जाए तो स्वतंत्रता के बाद बाल श्रम को लेकर कुछ चिंता उजागर होती है। वर्ष 1979 में ऐसी समस्याओं के अध्ययन के लिए गुरुपाद स्वामी समिति बनाई गई थी जिसकी सिफारिश पर बाल श्रम (निषेध एवं विनियमन) अधिनियम, 1986 लागू किया गया। वर्ष 1987 में बाल श्रम पर एक राष्ट्रीय नीति को भी अमली जामा दिया गया था। इसके अलावा 1990 में राष्ट्रीय श्रमिक संस्थान जैसी इकाइयों को मूर्त रूप दिया गया, फिर भी बचपन बाल-श्रम के चक्रव्यूह से पूरी तरह नहीं निकल पाया। बाल श्रम का मतलब ऐसे कार्य से है जिसमें कार्य करने वाला व्यक्ति कानून द्वारा निर्धारित आयु सीमा के अंदर होता है।

बाल श्रम बालकों को उन मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित करता है जिस पर उनका नैसर्गिक अधिकार होता है, साथ ही बाल श्रम भौतिक, मानसिक, सामाजिक और नैतिक विकास को भी बाधित करता है। इस संदर्भ में कई परिभाषाएं और व्याख्याएं देखी जा सकती हैं। बाल श्रम विश्व में एक ऐसी समस्या है जिसके निदान के बगैर बेहतर भविष्य की कल्पना संभव नहीं है। यह स्वयं में एक राष्ट्रीय और सामाजिक कलंक तो है ही, अन्य समस्याओं की जननी भी है। देखा जाए तो यह नौनिहालों के साथ जबरन होने वाला ऐसा व्यवहार है जिससे राष्ट्र या समाज का भविष्य खतरे में पड़ता है। यह एक संवेदनशील मुद््दा है, जो लगभग सौ वर्षों से चिंतन और चिंता के केंद्र में है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे लेकर वर्ष 1924 में पहल तब हुई, जब जिनेवा घोषणापत्र में बच्चों के अधिकारों को मान्यता देते हुए पांच सूत्री कार्यक्रम की घोषणा की गई। इसके चलते बाल श्रम को प्रतिबंधित किया गया, साथ ही बच्चों के लिए कुछ विशिष्ट अधिकारों को स्वीकृति दी गई। भारतीय संविधान में बाल अधिकार के संदर्भ भी हैं।

हामरे संविधान के कई प्रावधान बच्चों को नैसर्गिक न्याय प्रदान करते हैं। अनुच्छेद 21(क) शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है, जबकि नीति-निर्देशक तत्त्व के अंतर्गत यह अनिवार्य किया गया कि छह से चौदह वर्ष तक के बालकों को राज्य निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा। इतना ही नहीं, अनुच्छेद 51(क) के तहत मौलिक कर्तव्य के अंतर्गत यह प्रावधान भी 2002 में लाया गया कि अभिभावक उन्हें अनिवार्य रूप से शिक्षा दिलाएंगे। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने बाल-श्रम को बच्चे के स्वास्थ्य की क्षमता, उसकी शिक्षा को बाधित करने और उसके शोषण के रूप में परिभाषित किया है। वैश्विक पटल की पड़ताल करें तो बच्चों की स्थिति कहीं अधिक चिंताजनक है। बाल श्रम का जंग बहुत पुराना है। मार्क्सवादी नजरिए से देखें तो बाल श्रम का यह रोग औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दिनों से ही देखा जा सकता है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की ताजा रिपोर्ट का मानना है कि एक सौ चालीस देशों में इकहत्तर देश ऐसे हैं, जहां बच्चों से मजदूरी करवाई जाती है। इन देशों में भारत भी शामिल है। नन्हें हाथों में बीड़ी, पटाखे, माचिस, र्इंटें, जूते यही सब दिखाई देते हैं। कालीन बुनवाए जाते हैं, कढ़ाई करवाई जाती है, रेशम के कपड़े बनवाए जाते हैं। चौंकाने वाला सच यह है कि रेशम के तार खराब न हों, इस मकसद से बच्चों से ही काम करवाया जाता है। फाइंडिंग्स आॅन द फॉर्म्स आॅफ चाइल्ड लेबरनाम की एक रिपोर्ट ने ऐसी बातों का खुलासा करते हुए इस झकझोरने वाले सच को सामने लाया था। विकासशील देशों में बाल श्रमिकों की संख्या सबसे अधिक है। एशिया और अफ्रीका के कई देशों में यह भयावह रूप लिये हुए है। भारत के बाद बांग्लादेश और फिलिपीन्स के नाम भी इस सूची में देखे जा सकते हैं। भारत में स्टील का फर्नीचर बनाने, चमड़े आदि से जुड़े काम मानो इन्हीं नौनिहालों के जिम्मे हों। फिलिपीन्स में बच्चों से केला, नारियल, तंबाकू उगाने आदि खेतिहर कामों के साथ गहने और अश्लील फिल्मों के लिए इस्तेमाल होने वाला सामान भी बनवाया जाता है, जबकि पड़ोसी राष्ट्र बांग्लादेश में चौदह उत्पादों का जिक्र किया गया है जिससे बाल मजदूर जुड़े हैं।

भारत में बाल श्रम निषेध के लिए अनेक कानून बनाए गए हैं। 1948 के कारखाना अधिनियम से लेकर दर्जनों प्रावधान हैं। बावजूद इसके बाल श्रमिकों की संख्या में निरंतर वृद्धि दर्ज की गई है। कुल श्रम शक्ति का पांच फीसद बाल श्रम ही है। संविधान को लागू हुए पैंसठ साल हो गए, पर बाल श्रम की चिंता से देश मुक्त नहीं हुआ। भारत ने अभी तक संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार समझौते की धारा-32 पर सहमति नहीं दी है, जिसमें बाल मजदूरी को जड़ से खत्म करने की बाध्यता शामिल है। वर्ष 1992 में संयुक्त राष्ट्र में भारत ने कहा था कि अपनी आर्थिक व्यवस्था को देखते हुए इस दिशा में रुक-रुक कर कदम उठाएंगे, क्योंकि इसे एकदम नहीं रोका जा सकता। तेईस बरस बीतने के बाद आज भी हमारा देश बाल मजदूरी से अटा पड़ा है। इतना ही नहीं, बाल श्रम कानून के संशोधन में भी थोड़ी नरमी देखने को मिल रही है। ताजा मामला यह है कि मनोरंजन उद्योग, खेल गतिविधियों और पारिवारिक कारोबार आदि को बाल श्रम के दायरे से बाहर रखा गया है। देखा जाए तो कानून में बदलाव के बावजूद आंशिक तौर पर बाल श्रम बने रहने की गुंजाइश बनी हुई है, साथ ही यह पुछल्ला भी जोड़ा गया है कि अभिभावक ध्यान रखेंगे कि बच्चे की पढ़ाई प्रभावित न हो और न ही सेहत पर कोई गलत प्रभाव पड़े। दंडात्मक कार्रवाई के प्रावधान में भी काफी हद तक यह संशोधन ढीलापन लिये हुए है। विशेषज्ञों और बाल संगठनों की चिंता है कि स्थिति सुधरने के बजाय बद से बदतर होने की ओर जा सकती है। दरअसल, पहले भी ऐसा देखा गया है कि कानून में सभी गुंजाइशें एक साथ नहीं आती हैं। बाल श्रमिकों के मामले में शोषण और रोजगार के बहुत आयाम हैं। इसके अलावा अवैध व्यापार और शारीरिक शोषण के शिकार भी बहुतायत में यही हैं। और इसके पीछे गरीबी बड़ी वजह है। असल में बच्चा गरीब इसलिए है, क्योंकि घर के हालात ही खराब हैं। ऐसे में दो जून की रोटी के जुगाड़ में बाल श्रम आविष्कार लेता है।


वर्ष 1996 में उच्चतम न्यायालय ने बाल श्रम पुर्नवास कल्याण कोष की स्थापना का निर्देश दिया था, जिसमें नियोजित करने वाले व्यक्ति द्वारा प्रति बालक बीस हजार रुपए कोष में जमा कराने का प्रावधान है। इसी वर्ष न्यायालय द्वारा शिक्षा, स्वास्थ्य और पोषण में सुधार के भी निर्देश दिए गए। बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम, 2005 में बालकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए एक राष्ट्रीय आयोग और राज्यों में आयोग के गठन का प्रावधान किया गया। वर्ष 2006 में भारत सरकार ने बच्चों को घरेलू नौकर के रूप में काम करने पर या अन्य प्रतिष्ठानों मसलन होटल, रेस्तरां, दुकान आदि के नियोजन पर रोक लगा दी। पर सवाल है कि सफलता कितनी मिली? 2011 की जनगणना के अनुपात में जो बाल श्रम का आंकड़ा है वह यह संकेत देता है कि बाल श्रम निवारण को लेकर अभी मीलों का सफर तय करना है। यक्ष प्रश्न यह भी है कि क्या केवल कानून से बाल श्रम को समाप्त किया जा सकता है। शायद उत्तर ना में ही होगा। जब तक शिक्षा और पुनर्वास के पूरे विकल्प सामने नहीं आएंगे, तब तक कानून लूले-लंगड़े ही सिद्ध होंगे। चाहे सरकार हो या संविधान, बाल श्रम के उन्मूलन वाले आदर्श विचार बहुत उम्दा हो सकते हैं, पर जमीन पर देखें तो बचपन आज भी पिस रहा है। इस स्थिति का सबक यह है कि हम उस सामाजिक संरचना और मूल्य-बोध को भी बदलने के बारे में सोचें जो बच्चों के शोषण के प्रति हमें उदासीन बनाते हैं। कहने को सभी बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। पर क्या एक वर्ग के तौर पर बच्चों के हालात के प्रति सभी लोग संवेदनशील हैं

जनसत्ता से साभार 

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