प्राइवेट स्कूलों में गरीबों के बच्चों को २५ प्रतिशत सीटें देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अच्छा है लेकिन इसके क्रियान्वयन में कई तरह की दिक्कतें आएँगी। यह जानना दिलचस्प हो सकता है कि इस निर्णय के बाद स्कूलों का परिदृश्य क्या होगा।
यह कल्पना करके ही रोमांच हो आता है कि मुंबई के जुहू कोलीवाड़ा में रहनेवाले गरीब मच्छीमारों के बच्चे 2 फर्लांग दूर जुहू तारा रोड पर स्थित उस जमनाबाई नरसी स्कूल में दाखिला ले सकेंगे जहां फ़िल्मी सितारों और उद्योगपतियों के बच्चे पढ़ते हैं! वे करीब से देख सकेंगे कि किस फिल्म सितारे का बेटा अपने टिफिन में क्या लेकर आया है,किस उद्योगपति के बेटे ने किस विलायती कंपनी के जूते पहन रखे हैं या यूनीफॉर्म की दुनिया में नया फैशन क्या चल रहा है. वे यह भी जान सकेंगे कि पॉकेट मनी क्या बला होती है और उनके माता-पिता की महीने भर की कमाई से ज्यादा पैसे इस मद में अमीर बच्चे किस मासूमियत से उड़ा देते हैं.
ज़रा सोचिये कि जब धारावी की झोपड़पट्टी का कोई बच्चा किसी इंटरनेशनल स्कूल में शान से क्लास अटेंड करेगा तो कितना अद्भुत नज़ारा होगा! धर्म, जाति, भाषा, वर्ग के कितने बंधन चकनाचूर होंगे. कई फ़िल्मी कहानियां हकीक़त बन सकती हैं. कई हाथ आसमान छू सकते हैं. कई सपने साकार हो सकते हैं. समाज में समरसता का एक नया दौर शुरू हो सकता है. कई किताबी बातें अमली जामा पहन सकती हैं.
यह मुमकिन होने जा रहा है राईट टू एजूकेशन एक्ट के प्रावधानों पर सुप्रीम कोर्ट की मुहर लग जाने के चलते. प्रावधान यह है कि देश भर के प्रायवेट स्कूलों को गरीब तबके के बच्चों के लिए 25 प्रतिशत सीटें आरक्षित करनी ही करनी हैं. बिना सरकारी मदद वाली अल्पसंख्यक प्रायवेट स्कूलों को इस दायरे से बाहर रखा गया है.
केंद्र सरकार ने सभी राज्यों से कहा है कि वे उपलब्ध सीटों तथा लाभान्वित होनेवाले छात्रों की सूची यथाशीघ्र भेजें. एक अनुमान के मुताबिक़ महाराष्ट्र में करीब 6000 प्रायवेट स्कूल हैं और इनमें 88000 से अधिक गरीब छात्रों को दाखिला दिया जा सकता है. ऐसे में पूरे देश की कल्पना कीजिये. एक करोड़ से ज्यादा गरीब छात्र पहले ही वर्ष लाभान्वित हो सकते हैं. लेकिन कहना जितना आसान है, करना उतना ही कठिन.
आर्थिक रूप से पिछड़े छात्रों को 25 प्रतिशत आरक्षण मिलना कम से कम इस साल तो संभव नहीं लगता. राज्य सरकारों ने अभी तक इस सम्बन्ध में स्कूलों को विशेष दिशा-निर्देश जारी नहीं किये हैं. दूसरी ओर प्रायवेट स्कूल दावा कर रहे हैं कि उनके यहाँ सीटें पहले ही फुल हो चुकी हैं क्योंकि अगले सत्र के एडमीशन की प्रक्रिया पूरी हो गयी है. उधर शिक्षा कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये स्कूल जून के पहले एडमीशन प्रक्रिया बंद नहीं कर सकते. एनजीओ 'फोरम फॉर फेयरनेस इन एजूकेशन' के अध्यक्ष जयंत जैन ने धमकी दी है कि अगर इसी साल से सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर अमल नहीं हुआ तो हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की जायेगी. तर्क यह है कि प्रायवेट स्कूलों को एडमीशन लेने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए थी. हाई कोर्ट की औरंगाबाद खंडपीठ ने पिछले साल ही यह रूलिंग दी थी कि स्कूलों को जून के आसपास एडमीशन लेना चाहिए.
जाहिर है कि बहुत कठिन है डगर पनघट की. समाज विज्ञान भले ही सिद्ध कर चुका है कि अगर समान अवसर मिले तो कामयाबी पाने के लिए गरीब-अमीर होना कोई मायने नहीं रखता. लेकिन सामाजिक समरसता की जिसे पड़ी हो वह अपना घर फूंके. प्रायवेट स्कूलों की हीला-हवाली से जाहिर है कि वे अपने माल कमाऊ बिजनेस मॉडल को आसानी से चौपट नहीं होने देंगे.
अब 'देवताओं' के बच्चों के साथ क्लासरूम में बैठने वाले 25 प्रतिशत 'आदम' के बच्चों से यह तो नहीं कहा जा सकता कि फलां ब्रांड के जूते पहन कर आओ, ज्ञानवर्द्धक पिकनिक के नाम पर लाखों का चेक डैडी से कटवा कर भेजो, एनुवल फंक्शन के नाम पर हजारों रुपये कंट्रीब्यूट करो. उनसे यह भी नहीं कह सकते कि सुप्रीम कोर्ट की कृपा से आये हो तो एसी क्लासरूम से बाहर जाकर बैठो. यह भी नहीं कह सकते कि तुम्हारे जैसे झोपड़ावासियों की संगत में ये महलवासी बच्चे बिगड़ रहे हैं इसलिए स्कूल आना ही बंद कर दो. इस सूरत-ए-हाल में प्रायवेट स्कूल वाले क्या करें! फिलहाल उन्हें यही सूझ रहा है कि सीटें न होने का बहाना बनाया जाए. क्या करें, देश की सबसे बड़ी अदालत का आदेश है, टाला भी नहीं जा सकता.
आशंकाओं कुशंकाओं के बावजूद इतना तो तय है कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश पूरी तरह इस सत्र से न सही अगले सत्र से लागू करना ही होगा. चाहे प्रायवेट स्कूल वाले अपने यहाँ सीटें बढाएं या नए स्कूल खोलें, गरीब बच्चों को 25 प्रतिशत सीटों पर बिठाकर पढ़ाना ही पड़ेगा. ऐसे में सरकारों को इस बात की कड़ी निगरानी करनी पड़ेगी कि प्रायवेट स्कूलों के अन्दर गरीब बच्चों के साथ शिक्षण अथवा व्यवहार में किसी तरह का भेदभाव न होने पाए. सबसे अहम बात यह है कि शिक्षा कार्यकर्ताओं को चौकस रहना पड़ेगा कि कहीं किसी गरीब की जगह अमीर बच्चे को झोपड़ावासी या नौकरानी-पुत्र बनाकर एडमीशन देने का खेल शुरू न हो जाए यानी बैक डोर इंट्री. और अगर यह सिलसिला चला तो आगे चलकर घृणा के नए प्रतिमान भी स्थापित हो सकते हैं!
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